वर्ष 2017 विश्व परिदृश्य में एक अभूतपूर्व वर्ष होने वाला है। इस वर्ष का महत्व इस कारण बढ़ जाता है क्योंकि दो कार्यकाल के बाद राष्ट्रपति ओबामा के जाने के बाद डोनाल्ड ट्रम्प अमेरिका के राष्ट्रपति के रूप में 20 जनवरी, 2017 को सत्तासीन हुए है। उनके सामने बहुत बड़ी-बड़ी चुनौतियां है, जैसे कि अमेरिकी अर्थव्यवस्था को सुदृढ़ करना, अमेरिकी नागरिकों के लिए रोजगार के अवसर मुहैया कराना और आर्थिक विकास की दर को 4 ये 5 प्रतिशत तक लाना। उन्होंने अपने चुनाव प्रचार के दौरान ऐसे विचार रखे थे कि वे कुछ हटकर सोचना चाहते हैं और इस संदर्भ में अमेरिकी विदेश नीति को एक नया प्रारूप और आयाम देने की पेशकश की है। संभावना व्यक्त की जा रही है कि रूस के साथ अमेरिका के संबंधों को पुनर्स्थापित करने की बात की जा रही है। इसमें कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी कि अमेरिका और रूस के संबंधों में थोडा सुधार होगा। चूंकि पुतिन और ट्रम्प बहुत ही सख्त मानसिकता वाले व्यक्तित्व है तो 2017 किस तरह में वे संबंधों की व्याख्या करते हैं, यह देखना महत्वपूर्ण होगा। रूस जो कि आर्थिक प्रतिबन्ध के कारण वृहद आर्थिक समस्याओं से जूझ् रहा है वो यह चाहेगा किअमेरिका उसके प्रति नरम रवैया अपनाये। जबकि डोनाल्ड ट्रम्प यह चाहेंगे कि जिस तरह से क्रीमीयन अतिक्रमण रूस ने किया था, वैसी संभावनाये दोबारा न हो। हाल फ्लिहाल में नाटो सैनिकों की एक टुकड़ी पोलेण्ड में कुछ ठिकानों पर आ गयी है ताकि यूक्रेन जैसी संभावनाओं से निपटा जा सके।
यूरोप के परिदृश्य में जब पूरे साल ब्रिटेन की यूरो विकास रणनीति पर गहन विचार विमर्श होगा। साथ ही साथ यह भी देखा जायेगा कि यूरोपीय संघ मूल रूप से अग्रणी देश है जैसे कि जर्मनी, फ्रांस और इटली, उनका रवैया ब्रिटेन के जाने के बाद इस संगठन के प्रति कैसा रहता है। जर्मनी जो कि अब शरणार्थियों की समस्या से निपट रहा है और एन्जेला मर्कल की लोक प्रियता बीच में घट रही थी लेकिन अब पुनः बढ़ रही है। उसमें आगमी वर्ष में किस तरह का नेतृत्व परिवर्तन जर्मनी में होता है। गत वर्ष यह देखा गया है कि यूरोप में बहुत हद तक दक्षणपंथी दलों का प्रभुत्व बढ़ता चला जा रहा है।
इस्लामिक कटृरपंथियों का वर्चस्व धीरे धीरे कई पश्चिमी एशियाई देशों में बढ़ता चला जा रहा है। यह व्यक्त किया जा रहा है कि किस तरह बगदादी दायश का संचालन करते है। क्योंकि गत वर्ष यह देखा गया है कि ईराकी सेनाओं ने कई राष्ट्रों के सैनिक समर्थन से अल्लिप्पो जैसी महत्वपूर्ण दायश के ठिकानों पर कब्जा जमा लिया है। साथ ही साथ रूस ने भी यह अंकित किया है कि वह सीरिया के राष्ट्रपति असद के बारे में बाकि और क्षेत्रीय शक्तियों के साथ विचार विमर्श कर सकता है और एक शक्ति संतुलन स्थापित करते हुए कुछ क्षेत्रों को चिन्हित कर उनमें शांति बहाल के कदम उठा सकता है। सीरिया के शरणार्थियों की संख्या निरन्तर बढ़ती चली जा रही है। लेकिन जिस तरह से हवाई हमलों के कारण सीरिया के नागरिक हताहत हुए है उससे संयुक्त राष्ट्र की महत्ता एवं कार्य शैली पर भी प्रश्नचिन्ह लगे हैं यद्दपि संघर्ष विराम की संभावनाएं व्यक्त की जा रही है। किन्तु राजनीतिक समाधान जो कि दूरगामी हो और स्थायित्व प्रदान करे उसके बारे में कोई निश्चित मानदण्ड और प्रारूप अभी तक किसी भी देश के पास नहीं हैं। ईरान जो कि खुद प्रतिबंध दौर के समय काफी आर्थिक समस्याएं झेल चुका है, वह आंशिक रूप से जो प्रतिबंध उस पर लगे है उसको हटाने की बात करता रहा है। ईरान की अंदरूनी राजनीति में भी यह कयास लगाए जा रहे है कि अगर अमेरिका और अन्य यूरोपीय देश कोई सकारात्मक पहल नहीं करते है तो ईरान को इस समझौते पी-5+1 परमाणु समझौता किया था, उस पर पुनर्विचार करना पड़ सकता है। ईरान और अमेरिका के बीच में सौहार्द्रपूर्ण रिश्ता ही इस क्षेत्र की भू-राजनीति में परिदृश्य की व्याख्या करेगा। अस्थाना शांति वार्ता के दौरान रूस, ईरान और तुर्की ने सीरिया में शांति बहाल करने कि एक समय सारणी पर विचार विमर्श किया। इसके अतिरिक्त यह भी चर्चा हुई कि आगामी वार्ता में शांति बहाल के तन्त्र और तरीकों पर भी बात होगी।
सउदी अरब जो कि खुद अभूतपूर्व आर्थिक संकट से गुजर रहा है उसे अपनी अर्थव्यवस्था को तेल से हटकर देखना होगा। ऐसी संभावनाएं व्यक्त की जा रही है कि अगर कच्चे तेल की कीमत 30-50 डालर रहती है तो सउदी अरब की विदेशी मुद्रा भण्डार में काफी कमी आयेगी। इससे न केवल राजशाही परिवार में अपितु, आम सउदी नागरिक के रहन सहन में भी बुरा प्रभाव पडेगा। इस समस्या का आंशिक प्रभाव भारत पर भी पड़ेगा क्योंकि 6.5 मिलियम प्रवासी भारतीयों पर आर्थिक रूप से बहुत दबाव पडेगा। बहरीन और यूएई के साथ साथ सउदी अरब और कुवैत में अधिकतर प्रवासी भारतीय काम करते हैं और तकरीबन 70 विलियम डालर का प्रेषण अप्रवासी भारतीय के साथ करते हैं। इस प्रेषण का बहुत बडा भाग अप्रवासी भारतीय खाडी देशों से करते हैं। अगर राजनीतिक और आर्थिक कठिनाईयां इस क्षेत्र में बढती रही तो इसका कुप्रभाव भारतीय समाज एवं कुछ राज्यों की अर्थव्यवस्था पर भी पडेगा। हाल ही में ओपेक के सदस्य देशों और गैर सदस्य देशों के मध्य इस बात को लेकर करार हुआ कि वे तेल उत्पादन में कटौती करे जिससे दरों में बढ़ोतरी होगी और उनकी अर्थव्यवस्था को उभरने का मौका मिलेगा।
सीरिया, लीबिया और ईराक में स्थाई शान्ति बहाल करना सबसे बडी चुनौती होगी। जहां कि लीबिया में सैन्य सरदारों ने अपने अपने प्रभाव क्षेत्रों को चिन्हित कर लिया है। ऐसे में राष्ट्रीय मत की सरकार बनना मुश्किल तो है पर असंभव नहीं। विगत तीन सालों से इस पर विचार विमर्श हो रहा है। लेकिन लीबिया की संसद में इस पर एकमत बनना मुश्किल प्रतीत हो रहा है। ईराक में अभी भी सम्प्रदायिक मन मुटाव है और नेतृत्व परिवर्तन की पुरजोर कोशिशें की जा रही है। ईराक में शिया सुन्नी समुदायों को लेकर एकमत बन पाना थोडा मुश्किल लग रहा है। साथ ही साथ सउदी अरब और ईरान के बीच में संबंध बहुत सहज प्रतीत नहीं हो रहे है। भविष्य में किस तरह से ये दो खाडी देश अपने संबंधों को परिभाषित करते है, यह देखना रोचक होगा। कई सामरिक विशेषज्ञों ने यह कयास लगाये है कि अगर ईरान और सउदी अरब के बीच रिश्ते तल्ख होते है तो इसका प्रभाव साम्प्रदायिक तनाव के रूप में उभर कर आयेगा। खासतौर पर तब जब ईरान धीरे धीरे अपने आपको अमेरिका के नजदीक ले जाने की कोशिश में है।
अफ्रीका महाद्वीप में भी कुछ देशों में राजनीतिक स्थायित्व और शांति की बातों पर अन्तर्राष्ट्रीय पहल पर काफी विचार विमर्श हो रहा है खासतौर पर जब ईस्लामिक कटृरपंथियों का प्रभाव इस पूरे महाद्वीप में बढ़ रहा है। और बोको हरम एवं अल शबाब जैसे आंतकवाद संगठन अपना क्षेत्रीय प्रभाव बढाने में प्रयासरत है।
लेटिन अमेरिका में कुछ देशों को छोडकर बहुत सारे देश आर्थिक संकट एवं बेरोजगारी से निपटने में प्रयासरत है। ब्राजील में सत्ता परिवर्तन के साथ साथ आर्थिक विकास दर में बहुत गिरावट आई है। आई एम एफ और विश्व बैंक की रिपोर्ट को देखे तो ब्राजील, अर्जेटाईन, वेनेजुऐला और बोलिविया में आर्थिक् मन्दी के संकेत दिये गये है। यह देखना रोचक होगा कि किस तरह यूरोपीय देश एवं अमेरिका इस पूरे महाद्वीप के राष्ट्रों के साथ अपने राजनीतिक और आर्थिक निवेश को बढाते है। हाल फ्लिहाल में क्यूबा और अमेरिका के बीच में रिश्तों को स्थापित किया गया है और इस साल उन रिश्तों में गति आने की संभावनाये व्यक्त की जा रही है। क्यूबा जो कि एक अग्रणी देश है, खासतौर पर चीनी एवं तंबाकू निर्यात में उसको अमेरिकी बाजार एक नया आयाम देगा।
एशियाई परिदृश्य में यहा देखना होगा कि किस तरह से मध्य एशिया के देश अपनी आर्थिक दिशा व दशा का निर्धारण करते है। और किस तरह आगामी राजनीतिक नेताओं को चिन्हित करते है। क्योंकि मध्य एशिया के सारे नेता 70-80 साल के बीच के है और किसी की भी अकस्मात मृत्यु राजनीतिक अनिश्चितता को जन्म दे सकती है। ऐसा हमने गत वर्ष उजबेकिस्तान के राष्ट्रपति इस्लाम करिमोफ की मृत्यु के समय पाया।
पूर्वी एशिया में रूस और जापान के बीच में नये राजनीतिक विचार विमर्श का प्रयास किया गया है। प्रधानमंत्री अबे और राष्ट्रपति पुतिन के बीच जो वार्ता हुई उससे यह संभावनाएं व्यक्त की जा रही थी कि द्वितीय विश्व युद्द से जो लम्बित कुरिल द्वीप का मुद्दा एक निर्णायक मोड पर पहुंच सकता है। साथ ही साथ जापान जो कि आर्थिक ठहराव से जूझ् रहा है, वो चाहता है कि रूस के साथ सहयोग करके रूस चीन के ध्रुवीकरण को व्यक्त किया जा सके। चूंकि चीन और जापान के बीच शिकांगो द्वीप कला मुद्दा चीन एवं जापान में न केवल राजनीतिक मतभेद अपितु युद्द जैसी स्थिति भी पैदा करने में सक्षम है। कोरियाई प्रायद्वीप के उत्त्ारी कोरिया ने संकेत दिये हैं कि वह अपना परमाणु कार्यक्रम किसी भी कारणों से स्थगित नहीं करेगा हालांकि ट्रम्प के राष्ट्रपति बनने पर उत्तरी कोरिया के नेता किम जोंग उन्ह ने यह संकेत दिया है कि वह वार्ता कर सकते हैं। दक्षिणी कोरिया में पार्क गुविन हाई को महाभियोग के बाद सत्ता से हटा दिया गया हालांकि संवैधानिक न्यायालय के निर्णय के बाद नये नेता की खोज की जायेगी और पूर्व संयुक्त राष्ट्र महासचिव बान की मून ने यह इच्छा जाहिर की थी कि वह दक्षिणी कोरिया के राष्ट्रपति बनने के इच्छुक है। लेकिन अब उन्होंने स्पष्ट कर दिया है कि वे इस पद के इच्छुक नहीं है।
दक्षिणी पूर्वी एशिया के परिदृश्य में मूल रूप से दक्षिणी चीन सागर वाला मुद्दा गत वर्ष भी प्रमुखता में था। और इस साल इस पर राजनीतिक एवं सामरिक वाद विवाद निरन्तर चलता रहेगा। देखने वाली बात यह होगी कि किस तरह फ्लिीपीन्स के राष्ट्रपति दूतरते अमरीका के साथ सामजस्य बिठा पाते है। हाल फ्लिहाल में दूतरते ने चीन के साथ सहयोग की नीति अपनाई हुई है जो कि उसके सामरिक दोस्त अमेरिका और जापान को नागवार गुजर रही है। ट्रम्प के आने के बाद दूतरते किस तरह का रवैया अपनाते है यह देखने वाली बात होगी। फिलिपिन्स इस साल के लिए आसियान की अध्यक्षता करेंगे और किस तरीके से आसियान की शासकीय सूचना जारी करते है और किन चीजों का उल्लेख करते है यह इस बात का मानदण्ड होगा कि आसियान एक क्षेत्रीय संगठन के रूप में किस तरह की भूमिका अदा करेगा। और क्या इस साल के आसियान शिखर सम्मेलन में आसियान देशों के बीच कोई मनमुटाव दक्षिण चीन सागर को लेकर उत्पन्न होगें। यह भी देखना पडेगा कि किस तरह दूतरते चीन अमरीका और जापान से उचित दूरी बनाते हुए अपने सामरिक दृष्टिकोण और विदेश नीति का संचालन करते है। म्यान्मार में ओंग–सोंग सुकी के विदेश मंत्री बनने के बाद यह कयास लगाये जा रहे है कि म्यान्मार में जो राजनीतिक गतिरोध संजातीय समूह एवं म्यान्मार सरकार के बीच था, वह क्या समाप्त हो पायेगा। यह भी देखना होगा कि येंगलोन्ग समझौता जो कि 12 फरवरी 1947 का ओंग - सोंग सूची के पिता ओंग – सोंग और संजातीय समूह के बीच में हस्ताक्षरित हुआ था। उसका पुनरावलोकन करते हुए क्या पैगलोंग 2 समझौते को म्यान्मार सरकार परिभाषित कर सकती है। इंडोनेशिया जो कि एक क्षेत्रीय शक्ति है वह आर्थिक रूप से धीरे धीरे उभर रही है। हालांकि कुछ आतंकवादी समूह और कटृरपंथी समूहों का वर्चस्व धीरे धीरे बढ़ रहा है। ऐसा खासतौर पर कुछ प्रान्त जैसे कि अचे एवं दक्षिण सूलावेसी में देखा जा रहा है। राष्ट्रपति जोको विडोडो को यह सुनिश्चित करना पडेगाकि इन कटृरपंथियों का प्रभाव सीमित रखा जा सके एवं भ्रष्टाचार को कम किया जा सके। इंडोनेशिया और आस्ट्रेलिया के बीच भी रिश्ते थोडे तनावपूर्ण रहे है और इसका कारण पापुआ के अलगाववादी समूहों का समर्थन जो आस्ट्रेलिया कर रहा है वह इंडोनेशिया को नागवार गुजरा है एवं हाल फ़िलहाल में सैन्य प्रशिक्षण के दौरान धर्म सूचक आपत्तिजनक टिप्पणियों के कारण दोनों सेनाओं के बीच सैन्य प्रशिक्षण में रूकावट आई है। इंडोनेशिया ने अपने सैन्य प्रशिक्षु आस्ट्रेलिया भेजने से मना कर दिया है। पूर्वी तिमोर ने अपने नौसेना सीमा समझौता जो कि आस्ट्रेलिया के साथ हस्ताक्षर किये थे उसे निरस्त करने की पहल कर दी है। इस संबंध में आस्ट्रेलिया को तिमोर ने अवगत करा दिया है और यह इस कारण हुआ कि सनराइज फील्ड जो कि तेल बहुल सामुद्रिक क्षेत्र है, उसमें रायल्टी भुगतान को लेकर दोनों देशों में विवाद रहा है। आस्ट्रेलिया और पूर्वी तिमौर के बीच कुछ सामुद्रिक क्षेत्रों को जहां कि कच्चे तेल की बहुलता है। उसे लेकर विवाद कई सालों से चला आ रहा है। और पूर्वी तिमोर ने पिछले 2-3 सालों से यह कहना शुरू कर दिया था कि कुछ समझौते आस्ट्रेलिया के पक्ष में है और आस्ट्रेलिया को इसका ज्यादा लाभ होता है। आस्ट्रेलिया के प्रधानमंत्री माइकल टर्नबुल के समक्ष भी विकट समस्याएं है। ये समस्याएं खासतौर पर रोजगार के अवसर बढाने एवं आस्ट्रेलिया की अर्थव्यवस्था को नई दिशा देने के संबंध में है। आस्ट्रेलिया ने अमरीका और चीन के बीच साथ अपने संबंधों का संतुलन करने की कोशिश की है। हालांकि डोनाल्ड ट्रम्प के आने के बाद आस्ट्रेलिया जो कि अमरीका का एक सहयोगी संबंध वाला देश है वह किस प्रकार अपनी साझेदारी का निर्वाह करता है, यह देखने वाली बात होगी।
चीन ने गत वर्ष भ्रष्टाचार पर बहुत अथक प्रयास किये और राष्ट्रपति शि जिनपिंग ने काफी राजनीतिक अधिकार प्राप्त कर लिये और निकट भविष्य में वे एक शक्तिशाली नेता के रूप में उभर कर आयेंगे। हालांकि चीन के साथ कई विषम समस्याएं है जो अंदरूनी राजनीतिक के भविष्य का निर्धारण करेगी। इसमें मुख्य रूप से इस्लामिक कटृरपंथियों का वर्चस्व शिगजिआंग क्षेत्र में बढ़ना, ताइवान के राष्ट्रपति का ट्रम्प से रिश्तों का बढाना, तिब्बत के अंदरूनी कलह एवं ग्रामीण तथा शहरी क्षेत्रों में विषम विकास जैसी समस्याओं का समाधान करना आवश्यक होगा। साथ ही साथ अन्तर्राष्ट्रीय पटल पर जिस तरह चीन ने अतिक्रमण वाली नीति अपनाई है, खासतौर पर दक्षिण चीन सागर और पूर्वी चीन सागर में, उसमें कई निकटवर्ती देशों में चीन की नीति के प्रति असहजता उत्पन्न हुई है। चीन और रूस के बीच रिश्तों का प्रगाढीकरण भी इस बात का द्योतक है कि किस तरह अन्तर्राष्ट्रीय संबंधों की परिभाषा मुख्य शक्तियों के बीच संबंधों पर प्रभाव डालेगी।
दक्षिण एशिया के संदर्भ में प्रधानमंत्री मोदी जो कि अपना आधा कार्यकाल पूरा कर चुके है। वे अपनी विदेश नीति को एक प्रभावी मोड पर लाने की चेष्टा करेंगे। जापान, रूस, चीन एवं अमरीका के साथ अभी तक उन्होंने रिश्तों को यथासंभव सुचारू रूप से चलाने की कोशिश की है। प्रधानमंत्री अबो के साथ उनका व्यक्तिगत और वैचारिक सामन्जस्य है। वहीं रूस के राष्ट्रपति पुतिन के साथ भी उनका कई मुद्दों पर एकमत है। हालांकि रूस ने हाल फ़िलहाल में पाकिस्तान के साथ जो नजदीकियां बढाई है। उससे दोनों के बीच में रिश्तों में थोडा ठंडापन जरूर आया है किन्तु भारत और रूस के रिश्ते पाकिस्तान के साथ संबंधों के द्वारा परिभाषित नहीं होंगे। ऐसी धारणा अभी भी विदेश नीति के जानकारों के बीच है। रूस जो कि प्रतिबन्धों के दौर से गुजर रहा है। उसे अपनी आर्थिक चुनौतियों का सामना करने में भारत की आवश्यकता है। और भारत जो कि एक लंबे अरसे से रूसी सैन्य सामान का उपयोग करता रहा है। वह रूस के साथ संबंधों को सकारात्मक एवं सहयोगात्मक रवैया अपनाना चाहेगा।
भारत चीन के संबंधों में कुछ मुद्दों को लेकर खासतौर पर परमाणु आपूर्ति समूह की सदस्यता और मसूद अजहर का आतंकवादी घोषित किये जाने पर चीन का विरोध मुख्य है हालांकि जलवायु परिवर्तन, व्यापार एवं बहुपक्षीय संस्थानों में दोनों में तालमेल है। हालांकि इसमें कोई अतिश्योक्ति नहीं है कि सीमा चिन्हित करने की वार्ता अभी भी एक निर्णायक मोड पर नहीं पहुंच पाई है, जो कि एक चिन्ता का विषय है। अमेरिका के साथ भारत के संबंध नये रूप में परिभाषित होगें। क्योंकि राष्ट्रपति ट्रम्प ने कई भारत पक्षीय व्यक्तियों से अपने केबिनेट में जगह दी है और यह भी इंगित किया है कि अमेरिका भारत के साथ वृहद सहयोग की इच्छा रखता है। दक्षिण एशिया में ही पाकिस्तान की राजनीतिक स्थिति थोडी चिन्ताजनक है। नये सेना प्रमुख के कार्यभार संभालने के बाद यह देखना रोचक होगा कि किस तरह प्रधानमंत्री नवाज शरीफ और नये सेना प्रमुख के बीच सामन्जस्य रहता है। कटृरपंथियों का एक बडा तबका जो कि भारत विरोधी नीतियों का समर्थन करता है। उसने पाकिस्तानी राजनीतिक परिदृश्य में अच्छा प्रभाव डाला है। किस तरीके से प्रधानमंत्री शरीफ इस वर्ष पाकिस्तान की अर्थव्यवस्था को पटरी पर ला पाते है और चरमपंथियों को नियन्त्रण में रख सकते है, यह गौर करने वाली बात होगी। श्रीलंका और मालद्वीप में राजनीतिक गतिविधियां तेज हो गयी है और किस तरीके से विपक्ष और सरकार के बीच में सामन्जस्य बैठता है, इस पर इस साल चर्चा रहेगी। बांग्लादेश में वैसे तो शेख हसीना की सरकार सफल प्रयास कर रही है किन्तु चरम पंथियों की गतिविधियां चिन्ता का विषय है। हाल फिलहाल में रोहिग्ंया समूह के आंतकवादी गतिविधियों में संलिप्त होने की रिपोर्ट भी आई है। यह न केवल भारत, बांग्लादेश किन्तु म्यान्मार के लिए भी चिन्ता का विषय है। नेपाल में वर्ष 2015में बने नये संविधान से देश में राजनीतिक स्थिरता के कयास लगाए जा रहे थे। लेकिन मधेशियों की मांगों को पूरा किये बिना यह मुश्किल है। इस वर्ष नेपाल के प्रधानमंत्री प्रचंण्ड संवैधानिक संशोधन कर पाते है या नहीं तथा आगामी चुनावों का क्या भविष्य रहेगा, ये निर्णय नेपाल की दिशा को इस साल नया मोड दे सकते हैं।
अन्त में मूल रूप से आर्थिक समस्याएं पश्चिमी एशिया में सामरिक एवं साम्प्रदायिक उथल पुथल चीन एवं अमेरिका का परस्परनीति एवं सामरिक सोच एवं रूस की राजनीतिक एवं आर्थिक स्थिति ब्रिटेन की यूरो विकास वाले मुद्दे प्रमुखता में रहेंगे। और इस साथ अधिकतर सामरिक चर्चाओं का केन्द्रीय मुद्दा इन्हीं सब मुद्दों के आस पास होगा। भारतीय विदेश नीति को न केवल दक्षिणी एशियाई बदलाव के बाद में सोचना होगा बल्कि किस तरह प्रमुख शक्तियों के बीच सामन्जस्य या तनाव होता है उसके अनुरूप अपनी नीति का संचालन करना होगा।
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* लेखक, शोध अध्येता, विश्व मामलों की भारतीय परिषद्, सप्रू हाउस, नई दिल्ली.
व्यक्त विचार शोधकर्ता के हैं, परिषद के नहीं.