विश्व की सामरिक राजनीति में ईरान और अफगानिस्तान के सम्बन्ध काफी महत्वता रखते हैं। दोनों देश धार्मिक, सांस्कृतिक, ऐतिहासिक, व्यापारिक, संजातीय, भाषाई और पारिवारिक रूप से जुड़े हुए हैं और साथ ही साथ इनमें ९३६ किमी सीमा का साझापन भी है। वर्ष १९७८-७९ में दोनों ही देशों में महत्वपूर्ण उतार चढ़ाव आये, जिनके दूरगामी परिणाम निकले; अफ़ग़ानिस्तान में सोवियत सेना का आगमन तथा ईरान में हुई क्रांति जिसने यहाँ इस्लामिक गणराज्य की स्थापना की। अफगानिस्तान एक भू-आबद्ध और अस्थिर राष्ट्र है लेकिन इसकी भू-सामरिक अवस्थिति एवं व्यापारिक मार्ग इसकी महत्वता को बढ़ा देते है। वहीं ईरान जो कि तेल के संसाधनों से युक्त है, अफ़ग़ानिस्तान के लिए काफी मददगार पड़ोसी साबित हो सकता है। परन्तु विश्व की महाशक्तियों के लिए यह क्षेत्र सामरिक अखाड़ा रहा है। जहाँ ये महाशाक्तियाँ इन देशों में आन्तरिक दखल देकर अपने हितों की पूर्ति करती है। इस बाहरी हस्तक्षेप को दोनों देश आपसी विवादास्पद मुद्दों को सुलझा कर न्यून कर सकते है। इन दोनों देशों में इतनी समरूपता और साम्यता होने के बावजूद भी कुछ मुद्दों पर असंतोष व्याप्त है, जैसे, जल समस्या, मादक पदार्थ, हज़ारा समुदाय और शरणार्थी समस्या।
हेलमंद नदी का जल बँटवारा ईरान अफगानिस्तान के मध्य सबसे पुराना और विवादास्पद मुद्दा रहा है। हेलमंद नदी अफगानिस्तान की सबसे लम्बी नदी है और यहाँ इसकी लम्बाई ११५० किमी है। इस नदी से यहाँ हेलमंद, कंधार और निर्मुज़ प्रान्तों में सिंचाई होती है। वहीं दूसरी तरफ ईरान में सिस्तान-बलूचिस्तान प्रान्त में भी इस नदी से सिंचाई होती है। समस्या तब उत्पन्न होती है जब इस जल समस्या को मानवीय सुरक्षा और पर्यावरण का मुद्दा न मानकर राजनितिक हथकंडे के तौर पर प्रयोग किया जाता है। वर्ष १९९८ में तालिबानियों द्वारा अफ़गानी शियाओं और ईरानी राजनयिकों को मज़ार-ए-शरीफ़ में मारने के फरमान के तुरंत बाद ईरान ने २७०,००० सैनिकों को सीमा पर तैनात कर दिया। इस तनाव ग्रस्त समय में काबुल सरकार ने हेलमंद नदी के ईरान की तरफ जल बहाव को रोक दिया जो कि वर्ष २००२ तक बंद रहा। जब अफगानिस्तान ने हेलमंद नदी पर कज़ाकी बांध का पुनर्निर्माण का कार्य शुरू किया तो ईरान ने इसका विरोध किया और सीमा सुरक्षा बल को भेजकर बांध को पुनः खोलने का दबाव डाला। जिसे लेकर दोनों देशों में मतभेद रहे और झड़प में कुछ लोग घायल भी हो गए। हेलमंद नदी जल विवाद अभी भी बना हुआ है और कज़ाकी बांध दोनों देशों के रिश्तो में नासूर बन गया है। वर्ष १९७३ में हेलमंद नदी जल संधि हुई थी उसके बाद अफ़गानी सरकार ने इसका नवीनीकरण नहीँ किया। काबुल सरकार को कज़ाकी बांध के निर्माण कार्य को करना जरुरी है क्योंकि यह उसकी ऊर्जा क्षमता को समृद्ध करेगा। अतः यहाँ जरुरत है कि अफगानिस्तान इस मसले पर रौहानी सरकार के साथ मिल बैठकर एक समझौता करे जिससे इस समस्या का हल निकल सके।
हजारा समुदाय की समस्या भी इन दोनों देशों के मध्य काफी अरसे से चली आ रही है। हजारा मुस्लिम समुदाय है और इनका शोषण अन्य मुस्लिम समूहों द्वारा होता रहा है। आंकड़ों के अनुसार ईरान, अफगानिस्तान और पाकिस्तान में ४.५ से ७.५ मिलियन हजारा समुदाय के लोग रहते है और ये सभी मूलतः शिया अनुयायी है। इस समुदाय को अफगानिस्तान में तालिबान द्वारा तथा पाकिस्तान में तालिबान सहयोगी सुन्नी कट्टरपंथियों द्वारा निशाना बनाया जा रहा है। शिया नेतृत्व वाली ईरानी सरकार द्वारा भी आधिकारिक रूप से अपने हितों को पूरा करने के लिए समय समय पर इस समुदाय के साथ भेदभाव का बर्ताव किया है। वर्ष १९९८ में ईरान के उत्तर-पूर्व में ‘सफ़ेद संग’ निवारक केंद्र में सेना द्वारा ६३० शरणार्थियों को मार दिया गया जिनमें ज्यादातर हजारा समुदाय के लोग थे। इस प्रकार हजारा समुदाय का न तो कोई वास्तविक मित्र है और न ही उन्हें कही से ठोस सहायता मिल रही है। कुछ पश्तून और ताजिको का मानना है है कि हजारा अभी भी ईरान के गुप्तचर का काम करते है तथा ये उनके देश के प्रति निष्ठावान नहीं है। हजारा समुदाय और ईरान में काफी समानताएं है जैसे एक धर्म, एक भाषा और खास तौर पर दोनों ही शिया अनुयायी है। ज्यादातर अफ़गानी शरणार्थी जो ईरान में है वे सभी हजारा है। ईरान के साथ हजारा समुदाय को संपर्क बनाने और रिश्ता कायम रखने में काफी खामियाजा उठाना पड़ा है।
अफ़ीम की तस्करी इन दोनों राष्ट्रों के बीच एक और बड़ी चुनौती है। वर्ष २००० तक अफगानिस्तान में अफ़ीम की खेती को तालिबान द्वारा निषेध किया गया लेकिन वर्ष २००१ के बाद अफ़ीम की पैदावार में अभूतपूर्व वृद्धि हुई तथा अफगानिस्तान विश्व में सबसे बड़ा अफ़ीम उत्पादक देश बन गया। संयुक्त राष्ट्र के मादक द्रव्य एवं अपराध कार्यालय की रिपोर्ट के अनुसार ६० प्रतिशत अफ़गानी अफ़ीम की तस्करी ईरान के रास्ते होती है क्योंकि यहाँ से अफ़ीम के मुख्य उपभोक्ता यूरोप और मध्य पूर्व तक कम समय में आसानी से पंहुचा जा सकता है। ईरान विश्व की सबसे बड़ी मादक पदार्थो की तस्करी की समस्या से जूझ रहा है और अपनी मादक निषेध नीति द्वारा इन पर पाबन्दी तथा कटौती पर भी जोर देता रहा है। साथ ही साथ ईरान अफ़गानी अफ़ीम पर रोक, मादक पदार्थो की प्रयोगशालाओं को बंद करना और सीमा पार से अफ़गानी अफ़ीम से जुड़े नेटवर्क को रोकना, जैसे कार्य कर रहा है। इस संदर्भ में, अफगानिस्तान और ईरान में अंतर न केवल मादक पद्रार्थों के उत्पादक तथा उपभोक्ता/पारगमन का है वरन मादक पदार्थों से फैले भ्रष्टाचार और सम्पूर्ण स्तर पर कानून और व्यवस्था में भी अंतर है। जहाँ ईरान में इसका दमन होता है, वहीं अफगानिस्तान में मादक पदार्थो के व्यापार को देश का एक बड़ा वर्ग खासतौर से तालिबान और कई स्थानीय सिपहसालार संरक्षण प्रदान करते है।
लगभग तीस प्रतिशत अवैध मादक पदार्थ ईरान में प्रति वर्ष पहुँचता है और यहाँ इसकी घरेलु खपत होती है, जिसके फलस्वरूप देश की सरकार को मादक पदार्थो से उत्पन्न समस्याओं से सामना करना पड़ रहा है। ईरान की जेलों में ज्यादातर कैदी ऐसे है जोकि मादक पदार्थों (विशेष रूप से अफ़ीम) की तस्करी, व्यापार और दुरुपयोग में लिप्त थे। ईरान अन्तर्राष्ट्रीय स्तर के सभी मादक विरोधी अभियानों से जुड़ा हुआ है। इस मुद्दे पर अफगानिस्तान के साथ ईरान ने द्विपक्षीय सम्बन्ध कायम किये और पाकिस्तान तथा अफगानिस्तान की सीमाओं पर चौकसी बढ़ा दी। इसमें ईरान को लगभग एक बिलियन डॉलर खर्च करने पड़े। यधपि, ईरान द्वारा उपयुक्त सुरक्षा बंदोबस्त होने के बाद भी अफ़गानी अफ़ीम के देश में प्रवाह होने से कानून व्यवस्था को लागू करने और कई सामाजिक समस्याओं से देश को जूझना पड़ रहा है। ईरान को अन्तर्राष्ट्रीय मादक निषेध अभियान का सहयोग काफी सीमित और अपर्याप्त है। इस गंभीर मुद्दे को बहुपक्षीय सहायता द्वारा प्रभावशील और समग्र रूप से नियंत्रण में लाया जा सकता है। इस समस्या पर काबू पाने से स्वास्थ्य और सामाजिक पुनर्वास को बेहतर स्थिति में लाया जा सकता है।
शरणार्थी एवं मज़दूरों के आव्रजन की समस्या भी इन दोनों देशों के बीच है। ईरान में अफगानिस्तान से कितने शरणार्थी आते है, इस बारे में काफी कम आंकड़े उपलब्द है। ईरान द्वारा पंजीकृत शरणार्थियों की संख्या लगभग १ मिलियन है (जिनमें ९००,००० अफ़गानी है और ५५,००० इराक़ी है), गैर पंजीकृत शरणार्थीयों का आंकलन करे तो उनकी संख्या १ मिलियन से १.५ मिलियन है और कभी कभी यह बढ़ भी जाती है। ज्यादातर अफ़गानी शरणार्थी ईरान में गृहयुद्ध के दौरान और अस्सी के दशक में सोवियत विरोधी जिहाद के समय आये थे। हांलाकि अभी ईरान पिछले कुछ सालों से आये गैर पंजीकृत अफ़गानी शरणार्थियों के साथ समायोजन बैठाने की कोशिश कर रहा है। वहीं दूसरी तरफ जहाँ पाकिस्तान में अधिकतर शरणार्थी कैम्पों में रहते है, वहीं ईरान में ये सभी अफ़गानी पूरे देश में फैले हुए है। इसके अतिरिक्त गौरतलब बात यह है कि सस्ती मज़दूरी होने के कारण ये ईरान की सामाजिक-आर्थिक जीवन का अभिन्न हिस्सा बन गए है। संभवतया इसी कारण ईरान-अफगानिस्तान के संदर्भ में शरणार्थी और श्रमिक आव्रजन में फर्क कर पाना मुश्किल है। अतः काफी अफ़गानी प्रवासी आर्थिक उत्तरजीविता के अवसरों के कारण दोनों देशों आते जाते रहते है।
अफ़गानी सस्ते श्रमिकों का प्रवेश जब ईरान में होता है तो इससे निर्माण कार्य और कृषि जैसे सेक्टरों को जबरदस्त श्रम शक्ति मिलती है और दूसरी तरफ श्रमिकों द्वारा भेजे गए धन से अफ़गानी अर्थव्यवस्था और समाज पर सकारात्मक असर पड़ता है। लेकिन बड़े पैमाने पर होने वाले इस आव्रजन से ईरान को कई सामाजिक समस्याओं का सामना करना पड़ता है। बहुतायत संख्या में लोगों का आना और तस्करी एवं मादक पदार्थो का अवैध व्यापार आदि समस्याएं ईरान में शरणार्थी और श्रमिक आव्रजन से उत्पन्न होती है। हांलाकि ईरान ने अफगानिस्तान से आने वाली इन मानवीय सुरक्षा चुनौतियों से निपटने के लिए सम्बंधित अन्तर्राष्ट्रीय संस्थाओं के तंत्रीकरण (जिसमे यूरोपीय संघ और अमेरिका शामिल है) में एक सक्रिय सदस्य के रूप में भूमिका निभाना शुरू कर दिया है। परन्तु अपर्याप्त अंतर्राष्ट्रीय सहायता के कारण ईरान इसे नहीं सुलझा पा रहा है।
ईरान और अफगानिस्तान की भौगोलिक समीप्यता इस बात की तरफ इशारा करती है कि यहाँ स्थिरता रहे और दोनों देशों की नीतियों में सुसंगतता बनी रहे। इन देशों की घरेलू समस्याएं भी एक दूसरे पर अतिव्याप्त है। ईरान अपनी घरेलू समस्याओं से ग्रस्त है और साथ ही साथ इसे पड़ौसी मुल्कों से होने वाले खतरे का भी भय व्याप्त है। वहीं दूसरी और अफगानिस्तान की बहुस्तरीय एवं पेचीदगी पूर्ण समस्याएं भी उभरकर सामने आ रही है जोकि हाल फिलहाल में सही होती नहीं दिखाई दे रही है। यहाँ तत्कालीन आवश्यकता यह है कि दोनों देशों के राजनीतिक नेतृत्व अपनी राष्ट्रीय और क्षेत्रीय आकांक्षाओं को ध्यान में रखते हुए एक साझी समझ विकसित करें। जिससे दोनों देशों के मध्य सहयोगात्मक सम्बंधो का निर्माण होगा और इसमें पारस्परिक विकासात्मक योजनाओं, ऊर्जा हिस्सेदारी के नए पथ खोजना, सुरक्षित व्यापार मार्ग को बनाया जाये जिससे व्यापार की मात्रा में वृद्धि हो, इस प्रकार की बातों को शामिल किया जाये। अंततः दोनों राष्ट्रों को आपसी सदभाव और विश्वास के माहौल में अपने विवादित मुद्दों को सुलझा लेना चाहिए। अब जब खासतौर पर ईरान पर से अन्तर्राष्ट्रीय प्रतिबन्ध हटाये जा रहे है और भारत भी ईरान को एक सहयोगी के रूप में देख रहा है। इस परिदृश्य में अफगानिस्तान ईरान रिश्तों में अगर मतभेद कम होते है तो भारत की अफगान और मध्य एशिया नीति को प्रबलता मिलेगी।
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* लेखक, शोध अध्येता, विश्व मामलों की भारतीय परिषद् , नई दिल्ली