गत वर्ष भारत में नई सरकार के पदार्पण के साथ ही भारतीय विदेश नीति के सन्दर्भ में कई तरह के कयास लगने लगे. प्रश्न उठने लगे कि क्या भारतीय विदेश नीति में कुछ विशेष परिवर्तन किया जाएगा जो विदेश नीति का नया मानदंड या पर्याय बन जाएगा? एन डी ए सरकार के समक्ष मुख्य चुनौतियाँ क्या होंगी? उन चुनौतियों का सामना करने का सरकार का तरीका क्या होगा? इन प्रश्नों के साथ यह अनुमान भी लगाया जाने लगा कि विगत वर्षों में, विदेश नीति में जो एक ठहराव आ गया था, कम से कम उसमें कुछ गति आएगी. प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी ने निश्चित रूप से एक बेहतरीन शुरुआत करते हुए विश्व पटल पर भारत की छवि को मजबूत किया है. हालाँकि पड़ोस की भू-राजनीतिक वास्तविकताओं और अंतराष्ट्रीय स्तर पर विश्व ताकतों की नीतियों के मद्देनज़र एन डी ए सरकार की शुरुआती सफलता से बँधी उम्मीदों को बनाए रखना वर्ष 2015 की मुख्य चुनौती होगी.
पिछले कुछ वर्षों में विश्व पटल पर होने वाली घटनाओं पर अगर ध्यान डाला जाए तो मुख्य चुनौतियाँ स्पष्ट रूप से दिखाई देती हैं. दक्षिण एशिया, विशेषकर पाकिस्तान और अफगानिस्तान, इस वर्ष भारतीय विदेश नीति के लिए सबसे बड़ी चुनौती हैं. सरकार ने 'नेबरहुड फर्स्ट' की नीति अपनाते हुए दक्षिण एशिया में एक अच्छी शुरुआत तो की, परन्तु अपनी इच्छा को ठोस परिणामों में परिवर्तित न कर सकी. पड़ोसी देशों के सन्दर्भ में सबसे महत्वपूर्ण कदम बांग्लादेश के साथ 'सीमा समझौता' है. किन्तु दूसरा महत्वपूर्ण मुद्दा 'तीस्ता रिवर वॉटर' पर अभी तक कोई राय नही बन पाई है. चीनी पनडुब्बी के कोलंबो दौरे से जहाँ भारत और श्री लंका के रिश्तों में खटास आ गयी थी, वहीं नई सरकार मैत्रीपाला सीरीसेना के आगमन से दोनों देशों के बीच संबंधों में सुधार के अवसर बन गये हैं. यह देखना रोचक होगा कि नयी सरकार कैसे इस रिश्ते को आगे ले जाती है. भारत-पाकिस्तान के संबंधों में आए ठहराव के बाद नई दिल्ली को, चीन तथा अन्य बाहरी ताकतों के प्रभाव को संतुलित करते हुए, इस्लामाबाद के साथ सकारात्मक घटनाक्रम पर सावधानी से चलना होगा. वर्तमान परिस्थिति में पाकिस्तान के साथ संबंधों में कोई बड़ी उपलब्धि दिखाई नहीं देती है परन्तु भारत को यह ध्यान रखना होगा कि पाकिस्तान के साथ उसके संबंध अफगानिस्तान पर भी प्रभाव डालेंगे. अफगानिस्तान से नाटो शक्तियों की वापसी के बाद क्षेत्रीय ताकतों ने अपना प्रभाव जमाने की कवायद शुरू कर दी है. अफगानिस्तान में अपनी पैठ प्रभावी ढंग से बनाए रखना नई सरकार के लिए एक बड़ी चुनौती होगी. दक्षिण एशिया में आतंकवाद का मुकाबला करना भी सरकार की प्राथमिकताओं में से एक होगा.
पश्चिम एशिया में होने वाली राजनीतिक उथल पुथल, धार्मिक कट्टरवाद और आतंकवाद की घटनाओं ने विश्व स्तर पर विषम परिस्थितियाँ पैदा कर दी हैं. पश्चिम एशिया में जिस तरह से इस्लामिक राज्य की घोषणा हुई है और जिस तरह विभिन्न देशों के युवा इस संगठन से जुड़ रहे हैं, यह एक चिंता का विषय है. पश्चिम एशिया में तेल से होने वाली आय से इस्लामिक राज्य को समर्थन मिलने की संभावना है जिससे धार्मिक कट्टरवाद को बढ़ावा मिलेगा. यह देखना स्वाभाविक होगा कि लीबिया, येमन, सिरिया और इराक़ जैसे राष्ट्र, जो विषम परिस्थितियों से गुजर रहे हैं, उनका भविष्य क्या होगा. इस्राइल और फ़िलिस्तीन जैसे मुद्दों को एक साथ कैसे संबोधित किया जाए. इस परिपेक्ष में भारत को यह सुनिश्चित करना होगा कि तेल का आयात बिना बाधित हुए भारत पश्चिम एशिया की समस्याओं पर क्या रुख़ ले सकता है. साथ ही यह भी देखना होगा कि वहाँ काम कर रहे भारतीय नागरिकों को कोई नुकसान न हो. एन डी ए सरकार को इस बात का ख्याल रखना होगा कि भारतीय संसाधनों के आतंकवादी संगठन द्वारा इस्तेमाल पर कैसे रोक लगाई जाए ताकि ऐसे आतंकवादी संगठन भारत के खिलाफ लामबंद ना हो पाएं.
भारतीय विदेश नीति के समक्ष एक महत्वपूर्ण चुनौती है चीन के साथ अपने संबंधों की दिशा निर्धारित करना. चीन की प्रसारवादी नीति और आक्रामक रवैये से विश्व स्तर पर असहजता बढ़ी है. चीन, पूर्वी चीन सागर और दक्षिणी चीन सागर को पूरी तरह से अपने प्रभाव का क्षेत्र मानता है. चीन अपने सामरिक और राष्ट्रीय हितों के लिए जो आक्रामक रवैया अपना रहा है, उसने जापान और विएतनाम जैसे देशों में असुरक्षा की भावना को जन्म दिया है. इन्हीं वजहों से अमेरिका को विएतनाम और जापान जैसे देशों के साथ संबंध स्थापित करने में आसानी हो गयी है. जापान ने अपनी शांति समर्थन करने वाले संविधान में परिवर्तन कर, खुद को चीन की चुनौती के लिए तैयार करने की ठान ली है. भारत-चीन की सीमा पर चीन के आक्रामक रवैये से भारत में भी असहजता और चिंता की स्थिति है. हालाँकि गौरतलब है कि चीन भारत जैसे बाज़ार को नज़रअंदाज़ नहीं कर सकता है. भारत को यह निर्धारित करना है कि वो चीन के साथ सहयोग की नीति अपनाना चाहता है या अमेरिका के 'चीन की चुनौती' रोकने के अभियान में शामिल होना चाहता है. इसी संबंध में जब चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग भारत आए थे, तो प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी ने अपनी चिंताओं से चीनी राष्ट्रपति को अवगत कराया था. उन्होने ये भी कहा था कि भारत चीन के संबंध में संभावनायें तो बहुत हैं, मगर चुनौतियाँ भी उतनी ही हैं. संभावनायें व्यक्त की जा रहीं हैं कि प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी चीन की यात्रा कर सकते हैं. इस सन्दर्भ में चीन और अमेरिका के साथ संबंधों का निर्धारण भारतीय विदेश नीति के लिए एक बड़ी चुनौती होगी.
रूस और अमेरिका के साथ संबंधों में संतुलन बनाए रखना भी भारतीय विदेश नीति के लिए एक मुख्य मुद्दा होगा. अमेरिका ने भारत के 'रणनीतिक साझेदार' के रूप में पिछले दो वर्षों से, सबसे बड़े हथियार आपूर्तिकर्ता के रूप में रूस की जगह ले ली है. शीत युद्ध के बाद राष्ट्रीय हितों को पुनः परिभाषित करना, इसकी मुख्य वजह रही है. रूस और अमेरिका में 'युक्रेनिअन संकट' को लेकर जो सामयिक गतिरोध पैदा हुआ है उससे भारत के उपर भी दबाव बढ़ा है. 26 जनवरी 2015, को गणतंत्र दिवस के अवसर पर, मुख्य अतिथि के रूप में, अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा की भारत यात्रा कई मायनों मे महत्वपूर्ण है. इस यात्रा से भारत और अमेरिकी संबंधों मे एक नया दौर आया और ‘आण्विक समझौते’ में गतिरोध ख़त्म होने के आसार नज़र आने लगे. साथ हीं रक्षा सहयोग, विशेषकर रक्षा उत्पादन और रक्षा उपकरण के आयात को सुगम ब्नाने की कोशिश की गयी. व्यापार और पेटेंट जैसे मुद्दों पर भी सकारात्मक बहस हुई. दूसरी ओर भारतीय और रूसी नेताओं के मुलाकात, विशेषकर रूसी राष्ट्रपति पुतिन के भारत दौरे के समय, रूस को ये आश्वासन दिया गया की रूस आगे भी भारत का हथियार आपूर्तिकर्ता बना रहेगा. वर्तमान समय में इन दोनों देशों के बीच पुनः शीत युद्ध की स्थिति बनने से भारत को यह सुनिश्चित करना होगा कि वह क्या रुख़ अपनाता है और इन दोनों देशों के साथ भारत के संबंध कौन सी दिशा लेते हैं? यूरोपीय देशों के साथ भारत के संबंधों को और कितनी गहराई तक ले जाया सकता है, यह भी विदेश नीति का एक मुख्य पहलू होगा. यूरोपीय देश भारतीय बाज़ार की ओर आकर्षित हैं, परन्तु 'मुक्त व्यापार क्षेत्र' के संबंध में जो वार्ता हो रही है वो किसी निश्चित दिशा की ओर नहीं जा रही है. भारत और यूरोपीय देशों के बीच मुक्त व्यापार नई संभावनाओं को जन्म देगा.
यह माना जाता है कि भारत की विकास की गति, उसकी आर्थिक नीति व सामरिक सोच के कारण, अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भारत की अवहेलना नहीं की जा सकती. इसके साथ ही आर्थिक क्षेत्र में नई संभावनाओं को तलाशना और निर्यात को बढ़ावा देना भी विदेश नीति का महत्वपूर्ण कदम होगा. भारत को इस बात पर विशेष ध्यान देना होगा कि विदेशों में अपने संसाधनों को और वृहत कैसे बनाया जाए. क्षेत्रीय सहयोग संगठनों जैसे दक्षेस और आसियान में भारत को अपनी भूमिका और सशक्त बनानी होगी और सबके साथ शांति और सहयोग के साथ आगे बढ़ने का संदेश देना होगा.
****
* लेखक विश्व मामलों की भारतीय परिषद में अनुसंधान निदेशक हैं और लेखिका विश्व मामलों की भारतीय परिषद में अनुसंधान अध्येता हैं. ये लेखकों के अपने विचार हैं.