वैश्विक व्यवस्था गंभीर भू-राजनीतिक उथल-पुथल के दौर से गुजर रही है क्योंकि दुनिया सदी में एक बार होने वाले असामान्य स्वास्थ्य संकट का सामना कर रही है। इस तरह की महामारी ने पिछली बार लगभग सौ साल पहले स्पेनिश फ्लू के दौरान तबाही मचाई थी।
संक्रमण की दर में तेजी से वृद्धि और जानमाल के नुकसान ने सरकारों को आंशिक या पूर्ण लॉकडाउन सहित उपायों को लागू करने के लिए मजबूर किया, जिसने बदले में सामान्य आर्थिक गतिविधियों और सामाजिक संबंधों को बाधित किया। औद्योगिक गतिविधियों और अंतर्राष्ट्रीय व्यापार, होटल और यात्रा उद्योग, पर्यटन और मनोरंजन, शिक्षा और सामाजिक मेलजोल और मानवीय गतिविधियों के कई अन्य क्षेत्रों को महामारी के कारण बुरी तरह नुकसान हुआ है। मुद्रास्फीति और मंदी ने अर्थव्यवस्थाओं को अस्त-व्यस्त कर दिया, नौकरियों के अत्यधिक नुकसान ने आजीविका को प्रभावित किया और शैक्षिक और अनुसंधान संस्थानों को बंद कर दिया, ज्ञान के प्रसार और नवाचार को अवरुद्ध कर दिया।
इन तमाम मुश्किलों के बीच, यूक्रेन संकट ने अवरोधों को और बढ़ा दिया है और इसके दुष्प्रभाव पूरी दुनिया भर में पड़े हैं । संयुक्त राज्य अमेरिका (यूएस) और उसके सहयोगियों द्वारा रूस पर लगाए गए अभूतपूर्व प्रतिबंधों के साथ, आपूर्ति श्रृंखला बाधित होने से, ऊर्जा की कीमतों में वृद्धि और खाद्य और उर्वरक की कमी से वैश्विक राजनीतिक अर्थव्यवस्था गंभीर संकट का सामना कर रही है।
सत्ता संघर्ष: भू-राजनीतिक मंथन
महामारी और यूक्रेनी संघर्ष से पहले विश्व व्यवस्था न तो स्थिर थी और न ही शांतिपूर्ण थी। प्रमुख शक्तियों के बीच एक विशिष्ट शक्ति संघर्ष और नए शक्ति केंद्रों के निरंतर आगमन पहले से ही वैश्विक राजनीतिक संरचना में शक्ति के विभाजन में संभावित परिवर्तनों का संकेत दे रहे थे।
ब्रेक्सिट, यूरोजोन संकट और 2008 के बाद से वैश्विक मंदी ने यूरोपीय आर्थिक एकता और राजनीतिक स्थिरता को प्रभावित किया है जबकि पश्चिम एशिया में अरब स्प्रिंग के बाद से तनाव बढ़ रहा है। रूस एक नए भू-राजनीतिक कर्ता के रूप में विकसित हो रहा था जिसने जॉर्जिया में सैन्य हस्तक्षेप किया, अमेरिकी विरोध के सामने सीरिया में असद शासन का समर्थन किया, क्रीमिया पर कब्जा कर लिया और अप्रैल 2022 में अपनी परमाणु सक्षम अंतर्महाद्विपीय बैलिस्टिक मिसाइल का परीक्षण किया।
इसकी तुलना में, अमेरिका को एक घटती शक्ति के रूप में माना जाता था। ट्रम्प प्रशासन को न केवल व्यापक घरेलू राजनीतिक ध्रुवीकरण का सामना करना पड़ा, बल्कि वह यूरोप और एशिया में अपने सहयोगियों के बीच तेजी से घटते रणनीतिक विश्वास के लिए भी जिम्मेदार था। अफगानिस्तान में स्थिरता और सुशासन लाने में अमेरिका और नाटो बलों की विफलता, और इस्लामी चरमपंथियों, विशेष रूप से तालिबान को रोकने में असमर्थता ने उनकी क्षमताओं पर संदेह पैदा किया। यह विचारणीय है कि राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प, चीन से आयात पर शुल्क की दर को उच्च स्तर पर बढ़ाकर चीन के खिलाफ एक आर्थिक शीत युद्ध में शामिल हो गए थे, जिसके बाद चीन ने भी इसी तरह के जवाबी कदम उठाए। इस पृष्ठभूमि में चीन एक नई उभरती महाशक्ति के रूप में महत्वपूर्ण हो गया।
दूसरे शब्दों में, इससे पहले कि कोविड19 महामारी ने वैश्विक स्वास्थ्य संकट पैदा किया, इस समय की रणनीतिक गतिशीलता में एक घटती हुई शक्ति के रूप में अमेरिका, एक सशक्त दबंग रूस और एक उभरते हुए चीन अपनी पहचान स्थापित कर रहे थे।
इसके साथ ही, भारत एक नए आर्थिक महाशक्ति और प्रमुख वैश्विक शक्तियों के साथ अपनी बढ़ती बातचीत के साथ एक वैश्विक भागीदार के रूप में तेजी से बढ़ रहा था। भारत-अमेरिका रणनीतिक साझेदारी के विकास-पथ ने बीजिंग में चिंता पैदा कर दी है। भूटानी सीमा के पास देपसांग में चीन-भारतीय सैन्य गतिरोध और वास्तविक नियंत्रण रेखा (एलएसी) के साथ गलवान घाटी के पास हिंसक झड़प ने चीन-भारत के बीच अमन-शांति में कमी और दोनों देशों के बीच रणनीतिक प्रतिस्पर्धा के बढ़ने का संकेत दिया। यह प्रतिस्पर्धा भारत-चीन सीमा क्षेत्रों तक ही सीमित नहीं थी बल्कि पूरे भारत-प्रशांत क्षेत्र में फैल गई है।
चीन ने दक्षिण चीन सागर में द्वीपों पर पुनः दावा करते हुए और वहाँ सैन्य सुविधाओं का निर्माण करते हुए; जापान और फिलीपींस के स्थान पर अपनी संप्रभुता का दावा करने के लिए क्रमशः सेनकाकू द्वीप और मिसचीफ रीफ को अपने नौसैनिक जहाज भेजते हुए, चीन के उदय को रोकने की माँग के लिए अमेरिका की निंदा करना शुरू कर दिया। वियतनाम और भारत के खिलाफ बीजिंग के आक्रामक रुख ने भी इस क्षेत्र में व्यापक चिंता पैदा कर दी है। शी जिनपिंग के नेतृत्व में चीनी सरकार, जापान और फिलीपींस जैसे अमेरिकी सहयोगियों और भारत और वियतनाम जैसे अमेरिकी रणनीतिक भागीदारों के साथ दबंग तेवर अपनाए हुई है। ऐसा लगता है कि रणनीतिक लक्ष्य, हिंद-प्रशांत क्षेत्र में अमेरिकी प्रभुत्व को चुनौती देना और चीनी आधिपत्य को बढ़ावा देना है। दूसरे, चीन अपनी विदेशी मुद्रा धारण का सर्वोत्तम उपयोग करके अपनी शक्ति और प्रभाव का विस्तार करना चाहता है। इस लिए इसने बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव (बीआरआई) और मैरीटाइम सिल्क रोड (एमएसआर) की अवधारणा तैयार की। प्रस्ताव को बढ़ावा देने के लिए बीजिंग में बीआरआई के उद्घाटन सत्र में बड़ी संख्या में देशों ने भाग लिया। इस पहल में भारत की अनुपस्थिति विशिष्ट थी।
चीन की धारणा थी कि भारत तेजी से अमेरिका का एक रणनीतिक भागीदार बन गया है, जो चीन के उदय को रोकना चाहता था। प्रधान मंत्री मोदी की सरकार के तहत भारत के स्थिर राजनीतिक माहौल और चीन के नंबर एक दक्षिण एशियाई सहयोगी पाकिस्तान की राजनीतिक और आर्थिक कमजोरियों के बीच भारत की निश्चयात्मक विदेश नीति ने चीन को चीन-भारतीय सीमा पर सैनिकों की बड़ी टुकड़ी को तैनात करके भारत पर दबाव बढ़ाने के लिए प्रेरित किया हो सकता है। एलएसी पर संघर्ष को चीन द्वारा, चीनी चुनौती का सामना करने के लिए भारत की इच्छाशक्ति और ताकत की जाँच के एक परीक्षण प्रयास के रूप में देखा जा रहा है। . यदि भारत एलएसी पर चीन की बढ़ती सैन्य उपस्थिति का सामना करने के लिए दृढ़ नहीं होता, तो चीन शायद अमेरिकी भागीदारों को कमजोर कर देने और क्षेत्र में अमेरिकी प्रभाव को कम करने के अपने प्रयासों की जीत की घोषणा कर देता।
यूक्रेनी संघर्ष: वैश्विक व्यवस्था पर बढ़ता दबाव
जब रूस ने यूक्रेन पर आक्रमण किया, तो ऊपर वर्णित भू-राजनीतिक मंथन चल रहा था। यूक्रेनी संघर्ष पहले से ही चल रहे बड़े वैश्विक शक्ति संघर्ष का अनुपूरक मात्र था। अप्रैल 2021 से, रूस ने यूक्रेन के साथ अपनी सीमाओं पर सैनिकों को जमा किया। राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन ने कहा था कि रूसी सेना सैन्य अभ्यास में लगी हुई थी और यूक्रेन पर सैन्य हमले का आदेश नहीं देगी। पश्च-दृष्टया रूस यूक्रेन पर एक बड़े हमले की तैयारी कर रहा था। इस अवधि के दौरान, बाइडेन प्रशासन ने आसन्न सैन्य हमले के बारे में चेतावनी देते हुए कई बयान जारी किए, लेकिन यूक्रेन पर रूसी हमले को रोकने के लिए उसने कुछ नहीं किया।
जॉन मियरशाइमर जैसे विद्वानों और सीआईए के निदेशक विलियम बर्न्स जैसे अधिकारियों ने चेतावनी दी थी कि यूक्रेन की नाटो की संभावित सदस्यता रूस को कड़ी कार्रवाई करने के लिए उकसा सकती है। बाइडेन प्रशासन ने भी जॉर्जिया में रूसी क्षेत्रीय शोषण और क्रीमिया के कब्जे से सबक नहीं सीखा।
जब रूस ने यूक्रेन में अपना "प्रमुख सैन्य अभियान" शुरू किया, जो यूक्रेनी राजधानी कीव में और उसके आसपास फैलने वाले एक पूर्ण पैमाने पर संघर्ष के रूप में सामने आया, तब ऐसा लगता है कि बाइडेन प्रशासन ने इस संकट को, दुनिया में अमेरिकी नेतृत्व को बहाल करने और रूस को राजनीतिक, कूटनीतिक और यहाँ तक कि आर्थिक रूप से भी कमजोर करने के लिए भुनाने का फैसला किया है।
नतीजतन, अमेरिका के नेतृत्व वाले गठबंधनों और रूस के बीच एक नए तरह का शीत युद्ध जड़ पकड़ता दिख रहा है। यह शीत युद्ध कई मायनों में यूएस-यूएसएसआर शीत युद्ध से अलग है। सबसे पहला यह कि, नाटो अब कई पूर्व अमेरिकी सहयोगियों के संगठन में शामिल होने के कारण पहले की तुलना में बड़ा और मजबूत हो गया है। दूसरा, यूरोपीय संघ (ईयू) जिसमें पश्चिम और पूर्वी यूरोप दोनों के सदस्य देश शामिल हैं, रूसी आक्रमण के खिलाफ है। तीसरा, आज कोई गुटनिरपेक्ष आंदोलन नहीं है और विकासशील देशों का यूक्रेन के मुद्दे पर कोई एकीकृत संयुक्त रुख नहीं है। चौथा, अधिक मजबूत चीन रूस का भागीदार है जिसकी "सहयोग की कोई सीमा नहीं है"। पाँचवाँ, एक नए वैश्विक भागीदार भारत का अमेरिका और रूस को विभाजित करने वाले मुद्दों पर एक अनूठा स्टैंड है। अमेरिका के साथ अपनी मजबूत रणनीतिक साझेदारी के बावजूद, नई दिल्ली यूक्रेन संघर्ष पर रूस के लिए वाशिंगटन की प्रतिक्रियाओं के साथ नहीं है। इसने अपने राष्ट्रीय हितों और सुरक्षा की रक्षा के लिए रियायती दरों पर पेश किए गए रूसी तेल को खरीदने का फैसला किया है। दूसरी ओर, रूस के साथ सौहार्दपूर्ण राजनीतिक संबंधों और रक्षा सहयोग के बावजूद, भारत ने संयुक्त राष्ट्र में रूसी-प्रायोजित प्रस्ताव का समर्थन नहीं किया है। भारत ने मानवीय सहायता भेजकर यूक्रेन की मदद की है।
ऐसे में सवाल उठता है कि नए तरह का शीत युद्ध किस रूप में सामने आएगा? स्थिति में कई परिवर्तनशील तत्वों के कारण इसकी भविष्यवाणी करना मुश्किल है। i) क्या यूरोपीय संघ अपने प्रस्ताव के अनुसार रूसी गैस और तेल के आयात पर पूरी तरह प्रतिबंध लगा देगा? ii) क्या यूरोपीय संघ के सभी सदस्य देशों में आम लोग और कंपनियाँ इसकी भारी कीमत वहन करने के लिए तैयार होंगी? iii) चीन रूस पर पश्चिमी प्रतिबंधों की आलोचना करता रहा है, फिर भी, क्या वह अपनी अर्थव्यवस्था की कीमत पर पश्चिमी दबाव का सामना करने में रूस की मदद करेगा? iv) कई विकासशील देश खाद्यान्न और उर्वरक की कमी से बुरी तरह प्रभावित हुए हैं। क्या वे, जब तक कि उनकी समस्याओं का समाधान नहीं हो जाता, अमेरिका और उसके सहयोगियों का समर्थन करना जारी रखेंगे? v) रूसी सैन्य कार्रवाई और पश्चिमी प्रतिबंधों के अभूतपूर्व स्तर, दोनों ने आपूर्ति श्रृंखला को बाधित किया है, ऊर्जा की कीमतों को बढ़ा दिया है और वस्तुओं की उपलब्धता और कीमतों को प्रभावित किया है। आने वाले समय में प्रतिकूल रूप से प्रभावित देशों की क्या प्रतिक्रिया होगी? उनके सहनशीलता के स्तर को अभी नहीं आँका जा सकता है।
अमेरिका-चीन संबंधों का भविष्य: अराजकता में इजाफा
एक और विकास-क्रम जो बड़े शक्ति संबंधों और वैश्विक स्थिरता को प्रभावित करेगा, वह है अमेरिका-चीन संबंधों का भविष्य। कई चीनी विश्लेषक, जो यह मानते थे कि ट्रम्प युग के दौरान अमेरिका अत्यधिक गिरावट के अधीन था, वे आश्चर्यचकित हैं कि बाइडेन प्रशासन ने राष्ट्रपति ट्रम्प द्वारा लगाए गए प्रतिबंधों में पर्याप्त रूप से ढील नहीं दी, जिससे दोनों देशों के बीच सुचारू व्यापार और निवेश संबंधों में बाधा उत्पन्न हुई। अमेरिका के अत्यधिक पतन के बारे में चीनी अवधारणा को, ट्रम्प प्रशासन के दौरान अमेरिका और उसके यूरोपीय और एशियाई सहयोगियों के बीच रणनीतिक अविश्वास, अमेरिकी समाज में सामाजिक और राजनीतिक ध्रुवीकरण, अमेरिकी आर्थिक प्रतिस्पर्धा की सापेक्ष कमजोरियों और व्यापार और निवेश के मुद्दों को छोड़कर विश्व मामलों में ट्रम्प प्रशासन की सामान्य उदासीनता ने आकार दिया । गौरतलब है कि राष्ट्रपति ट्रम्प एशिया-प्रशांत देशों के साथ टीटीपी वार्ता से हट गए, यूरोपीय संघ के साथ टीटीआईपी वार्ता रुक गई और अमेरिका ने उत्तरी अमेरिका में नाफ्टा को बदलने के लिए एक नई व्यवस्था पर जोर दिया। राष्ट्रपति जो बाइडेन को विरासत में मिली कमजोर अर्थव्यवस्था और अफगानिस्तान से अमेरिकी और नाटो सैनिकों के जल्दबाजी में बाहर निकलने से चीनी विश्लेषण में यह सिंचित किया कि वैश्विक मामलों में अमेरिकी आधिपत्य तेजी से कम हो रहा था।
जैसा कि बाइडेन प्रशासन के तहत अमेरिका और चीन के बीच आर्थिक शीत युद्ध जारी है, राष्ट्रपति बाइडेन ने इंडो-पैसिफिक में क्वाड या चतुर्भुज सुरक्षा पहल को अमेरिका, भारत, जापान और ऑस्ट्रेलिया के शीर्ष नेताओं के बीच बातचीत और संवाद को शिखर स्तर तक बढ़ाकर सक्रिय रूप से बढ़ावा दिया, राष्ट्रपति शी जिनपिंग और उनके सलाहकार अमेरिकी पतन को लेकर अनिश्चित हो गए हैं। अमेरिका ने स्पष्ट कर दिया था कि अमेरिकी और नाटो सेना यूक्रेन में रूसी सेना से नहीं लड़ेंगी, फिर भी, रूस के खिलाफ संयुक्त पश्चिमी रुख और विभिन्न तरीकों से रूसी अर्थव्यवस्था को कमजोर करने के लिए गंभीर प्रतिबंध चीनी नेतृत्व के लिए विचार के विषय थे। ताइवान के हवाई क्षेत्र का उल्लंघन करते हुए चीनी पीएलए वायु सेना द्वारा उड़ानों की संख्या में, और साथ ही ताइवान को मुख्य भूमि में अधिगृहीत करने के चीनी संकल्प को दोहराते हुए टिप्पणियों में, रूसी-यूक्रेनी संघर्ष के बाद, कमी आई है। जबकि राष्ट्रपति बाइडेन ने ताइवान पर कब्जा करने के लिए बल के उपयोग के खिलाफ एक से अधिक बार चेतावनी दी थी और यहाँ तक कि यूरोपीय नेताओं ने भी ताइवान को राजनयिक समर्थन दिया था, रूसी-यूक्रेनी संघर्ष के मद्देनजर रूस के खिलाफ बड़े पैमाने पर प्रतिबंधों ने, ताइवान पर बलपूर्वक, यदि आवश्यक हो, कब्जा करने की अपनी रणनीति पर फिर से विचार करने के लिए चीनी नेतृत्व को प्रोत्साहित किया है। ट्रम्प प्रशासन द्वारा शुरू किए गए टैरिफ युद्ध ने पहले ही चीनी अर्थव्यवस्था को धीमा कर दिया है क्योंकि चीन की आर्थिक गतिविधियों से अलग होना अमेरिकी नीतियों में अधिक प्रमुख हो गया है। वास्तव में, कुछ जापानी, दक्षिण कोरियाई और यहाँ तक कि अमेरिकी कंपनियों ने अपने कुछ औद्योगिक और निवेश अड्डों को चीन से बाहर स्थानांतरित करने की प्रक्रिया शुरू कर दी है।
चीनी अर्थव्यवस्था पर महामारी का असर दिख रहा है । चीन में रियल एस्टेट व्यवसायों की मंदी ने एवर ग्रांडे जैसी अपनी सबसे बड़ी कंपनियों को अरबों डॉलर के ऋण पर डिफ़ॉल्ट का सामना करने की धमकी दी है और बिजली संकट कारखानों को कम क्षमता से चलने के लिए मजबूर कर रहा है जिससे चीनी अर्थव्यवस्था में मंदी में इजाफा हो रहा है। श्रीलंका जैसे कुछ विकासशील देशों के चीनी कर्ज के जाल में फँस जाने और कई अन्य देशों द्वारा मूल रूप से प्रस्तावित चीनी परियोजनाओं पर पुनर्विचार करने के बाद बीआरआई को भी विपरीत परिस्थितियों का सामना करना पड़ रहा है।
यदि ताइवान पर कब्जा करने के लिए बल के प्रयोग के जवाब में चीन को पश्चिमी प्रतिबंधों का सामना करना पड़ेगा, तो चीनी अर्थव्यवस्था पर क्या असर होगा? इसमें कोई संदेह नहीं है कि ऐसी स्थिति से वैश्विक अर्थव्यवस्था पर भी प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा, तथापि, क्या चीन ऐसी स्थिति का सामना कर पाएगा? इसका मतलब यह नहीं है कि चीन हिंद-प्रशांत में चीनी आधिपत्य स्थापित करने के अपने सपने को छोड़ देगा। दरअसल चीन पश्चिमी दबाव का विरोध करने और अपनी अर्थव्यवस्था को लचीला बनाने की तैयारी कर रहा है। यदि आधिपत्य प्राप्त करने का इसका दृढ़ संकल्प न होता, तो चीन सेनकाकू द्वीप पर विमानवाहक पोत नहीं भेज रहा होता और सोलोमन द्वीप के साथ सौदों पर हस्ताक्षर नहीं करता या ऑस्ट्रेलिया के साथ कोविड 19 वायरस की उत्पत्ति की जाँच के लिए उसके आह्वान पर राजनयिक संघर्ष में शामिल नहीं होता। इस बात की बहुत संभावना है कि आने वाले वर्षों और दशकों में अमेरिका और चीन के बीच भयंकर प्रतिस्पर्धा और यहाँ तक कि प्रतिद्वंद्विता भी होगी।
अमेरिका और चीन के बीच सकारात्मक जुड़ाव के दिन अब बीते दिनों की बात लगते हैं। यह मौजूदा महाशक्ति और महत्वाकांक्षी शक्ति का युग होगा जो दुनिया भर में अपना प्रभाव फैलाने और दुनिया के विभिन्न हिस्सों में विभिन्न मोर्चों पर एक-दूसरे को मात देने के लिए एक-दूसरे से होड़ कर रही होंगी । यह उस तरह की दुश्मनी नहीं हो सकती, जैसी दुनिया ने यूएस-यूएसएसआर शीत युद्ध के दौरान देखी थी। चीन एक अलग तरह का साम्यवादी देश है। यह अमेरिका के नेतृत्व वाली वैश्विक आर्थिक व्यवस्था के तहत समृद्ध हुआ है। इसका 'पूंजीवादी' पश्चिम के साथ गहरा व्यापार और निवेश संबंध है। इसकी अर्थव्यवस्था, शीत युद्ध के दौरान सोवियत अर्थव्यवस्था के बारे में जितना सोचा जा सकता था, उसकी तुलना में अधिक वैश्वीकृत है। साथ ही, यह कुछ क्षेत्रों में तकनीकी उत्कृष्टता हासिल करने में सक्षम रहा है और उसके साथ इसने महत्वपूर्ण सैन्य क्षमताओं को भी हासिल किया है। बदले में, अमेरिका अपने रणनीतिक लक्ष्यों के बारे में स्पष्ट है, जैसा कि आधिकारिक दस्तावेजों में स्पष्ट किया गया है, प्रतिद्वंद्वी शक्ति के उदय को रोकने की दिशा में काम करना । चीनियों का मानना है कि एक जंगल में दो शेर नहीं हो सकते। इस प्रकार, एक ही समय में साथ-साथ संघर्ष, प्रतिद्वंद्विता, सहयोग और प्रतिस्पर्धा साथ चीन-अमेरिका संबंधों की प्रकृति को चिह्नित करेगी।
रूस के साथ दुश्मनी अमेरिका के लिए चीन के साथ अपने संबंधों को संतुलित करना मुश्किल बना देगी। तथापि, पूर्व सोवियत संघ द्वारा स्थापित किए जा सकने वाले गठजोड़ के अभाव में रूस चीन पर निर्भर करेगा। अमेरिका और उसके सहयोगियों द्वारा पेश की गई किसी भी बड़ी रणनीतिक चुनौती से निपटने के लिए चीन भी रूसी कार्ड खेलेगा। लेकिन चीन-रूसी सहयोग की सीमाएँ होंगी और रूस निश्चित रूप से अपने प्रभाव क्षेत्र में चीनी घुसपैठ का विरोध करेगा, विशेष रूप से पूर्व सोवियत विस्तार में।
क्या परमाणु जिन्न बोतल से बाहर है?
भले ही बड़ी शक्तियाँ वैश्विक व्यवस्था को प्रवाह में रखती हैं, भविष्य परमाणु स्थिरता के लिए आशावादी नहीं दिख रहा है। सबसे पहले, यूक्रेन में और दुनिया के अन्य हिस्सों में सवाल उठाए गए हैं कि क्या रूस ने यूक्रेन पर हमला किया होता, अगर यूक्रेन ने सोवियत विघटन के बाद अपने परमाणु शस्त्रागार को नहीं छोड़ा होता। दूसरे, संभावित परमाणु शक्तियों ने देखा है कि कैसे अमेरिका और अन्य शक्तियाँ परमाणु उत्तर कोरिया और एक गैर-परमाणु ईरान के साथ अलग व्यवहार करती हैं। तीसरा, संभावित परमाणु क्षमता वाले छोटे राज्य और साथ ही मजबूत पड़ोसियों द्वारा संभावित आक्रमण के डर से परमाणु की राह की तलाश करने के लिए लुभाया जा सकता है।
यूक्रेनी संघर्ष के परिणामस्वरूप, परमाणु अप्रसार व्यवस्था गंभीर तनाव में आ सकती है। वैश्विक व्यवस्था में परमाणु स्थिरता अमेरिका और रूस द्वारा हथियारों पर नियंत्रण पर आधारित थी। यूक्रेन के संघर्ष के बीच रूस द्वारा परमाणु के इस्तेमाल का झुकाव, मॉस्को द्वारा वाशिंगटन को जमीन पर स्थिति को बढ़ाने से बचने के लिए एक रणनीतिक संकेत हो सकता है, लेकिन इसने परमाणु जिन्न को बोतल से बाहर निकलने का रास्ता तलाशने की अनुमति दी है। यह माँग लगातार बढ़ रही है कि चीन को परमाणु हथियार नियंत्रण पहल में शामिल होना चाहिए, लेकिन बीजिंग ने ऐसा करने की कोई इच्छा नहीं दिखाई है। जापान, दक्षिण कोरिया और यहाँ तक कि ऑस्ट्रेलिया में विश्लेषकों का एक वर्ग है जो अपने-अपने देशों में परमाणु हथियार कार्यक्रमों का समर्थन करता है। एक समय था जब सऊदी अरब खरीद कर भी परमाणु हथियार की तलाश में था। पाकिस्तान के संभावित विक्रेता होने का संदेह था। अब, आर्थिक रूप से परेशान पाकिस्तान ने रियाद से अरबों डॉलर की सहायता माँगी है और उसे 8 बिलियन अमेरिकी डॉलर से अधिक की सहायता का वादा मिला है। इससे अप्रसार के समर्थकों और पश्चिम एशिया में परमाणु हथियारों के प्रसार को लेकर चिंतित देशों के बीच चिंता पैदा होती है।
समापन टिप्पणियाँ
आने वाले महीनों और वर्षों में वैश्विक व्यवस्था कैसी दिखेगी? हालाँकि यह भविष्यवाणी करना मुश्किल है कि कोविड 19 महामारी कब खत्म होगी और यूक्रेन में संघर्ष कब समाप्त होगा, महामारी और संघर्ष दोनों के परिणाम लगभग दिखाई दे रहे हैं। सबसे पहले, भविष्य एक मजबूत और संभवतः अधिक विस्तारित नाटो को देखेगा । दूसरे, यूरोपीय संघ, जो अभी तक ब्रेक्सिट के नकारात्मक परिणामों से पूरी तरह से उबर नहीं पाया है, ने भी महामारी के दौरान असमानता का अनुभव किया है और वैक्सीन राष्ट्रवाद की स्थिति से गुजरा है। जर्मनी की नई रक्षा नीति पर सामने आने वाले नए सवालों के साथ यूरोपीय संघ खुद को और अधिक चुनौतियों में उलझा हुआ पा सकता है। तीसरा, नई रूसी दबंगता के कारण अविश्वास का सामना कर रहे ट्रांस-अटलांटिक संबंध अधिक मजबूत होंगे। यूरोप में अमेरिकी सेना की मौजूदगी और मजबूत होगी। चौथा, यह देखना होगा कि अमेरिका किस तरह अपना ध्यान यूरोप और हिंद-प्रशांत पर समानुपात रूप से बाँटेगा। जब वाशिंगटन ट्रांस-अटलांटिक संबंधों पर अधिक ध्यान देता है, तो अमेरिका के इंडो-पैसिफिक सहयोगी हाशिए पर महसूस करते हैं और ऐसा ही इसके विपरीततः होता है। पाँचवाँ, भारत शक्ति के एक अद्वितीय केंद्र के रूप में उभरेगा जो विदेश नीति और अंतर्राष्ट्रीय संबंधों में रणनीतिक स्वायत्तता की तलाश करेगा और उसका प्रयोग करेगा। यूक्रेन के संकट और भारत की अद्वितीय स्थिति ने दिखाया है कि कैसे अधिकांश प्रमुख शक्तियाँ राजनयिक मतभेदों के बावजूद भारत को शामिल करने की इच्छुक हैं। भारत किसी एक शक्ति का गठबंधन-भागीदार नहीं होगा, बल्कि अधिकांश प्रमुख शक्तियों के साथ रणनीतिक साझेदारी की तलाश करेगा। प्रमुख शक्तियों के साथ भारत की कूटनीति सभी से मित्रता और किसी के प्रति शत्रुता नहीं के इर्द-गिर्द घूमेगी। चीन और पाकिस्तान जैसे क्षेत्रीय विरोधियों या प्रतिद्वंद्वियों से चुनौतियों का सामना करते समय, भारत स्वदेशी ताकत और प्रौद्योगिकी की तलाश करेगा। लचीला लोकतंत्र, आर्थिक विकास, तकनीकी उपलब्धियाँ और सैन्य कौशल भारत को सत्ता का एक स्वतंत्र केंद्र बनाएगा न कि किसी सैन्य समूह का सदस्य। बेशक, भारत बहुपक्षवाद और क्षेत्रवाद को अपनाएगा, जहाँ वे भारतीय हितों के अनुकूल होंगे और क्षेत्रीय शांति और स्थिरता को बढ़ावा देंगे।
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चिंतामणि महापात्र, स्कूल ऑफ इंटरनेशनल स्टडीज, जेएनयू में प्रोफेसर और संस्थापक और (मानद) अध्यक्ष कलिंग इंस्टीट्यूट ऑफ इंडो-पैसिफिक स्टडीज
अस्वीकरण: व्यक्त विचार लेखकों के अपने हैं।