"भारत की विदेश नीति: डिप्लोमैटिक ब्रेकथ्रूज़ एंड क्रिटिकल गैप्स "
तीन दिवसीय वार्ता
पर
इवेंट रिपोर्ट
सप्रू हाउस, नई दिल्ली
7 - 9 अक्टूबर 2013
स्कूल ऑफ इंटरनेशनल स्टडीज (एसआईएस), जेएनयू के सहयोग से विश्व मामलों की भारतीय परिषद (आईसीडब्ल्यूए) ने 7 से 9 अक्टूबर 2013 तक "भारत की विदेश नीति: डिप्लोमैटिक ब्रेकथ्रूज़ एंड क्रिटिकल गैप्स" नामक तीन दिवसीय वार्ता का आयोजन किया। जिसके अन्तर्गत 7 अक्टूबर को सप्रू हाउस में व्याख्यान का उद्घाटन किया गया था और 8 से 9 अक्टूबर 2013 के दौरान जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में शैक्षिक सत्र आयोजित किए गए।
उद्घाटन सत्र
(क) संस्थागत स्तर पर आईसीडब्ल्यूए और जेएनयू पहली बार एकत्र हुए थे।
(ख) यह कार्यक्रम आईसीडब्ल्यूए के पुनर्निर्मित सभागार में हो रहा थाजो भारत के माननीय उपराष्ट्रपति श्री एम. हामिद अंसारी के सहयोग से संभव हुआ था।
(ग) उद्घाटन सत्र में भारत के तीन सेवानिवृत्त विदेश सचिव शामिल थेजो '100 से अधिक वर्षों के राजनयिक अनुभव के साथ खड़े थे'।
(क) सार्वजनिक नीति और अकादमिक पहुंच की प्रासंगिकता सहित विदेश नीति में संघवाद को शामिल करना
(ख) राष्ट्रीय हित को परिभाषित करने में कठिनाई
(ग) देश में विदेश नीति के तंत्र का संकुचित आकार।
उन्होंने कहा कि विदेश मंत्रालय द्वारा बाहर के विशेषज्ञों से मदद लेकरऊर्जा सुरक्षा पर अधिक जोर देकर और विदेश नीति बनाने में घरेलू अनिवार्यताओं को शामिल करके विदेश नीति को बनाने में मदद करने के लिए कई पहल की गईं। उन्होंने उम्मीद जताई कि सम्मेलन भारत की विदेश नीति के निर्माण में महत्वपूर्ण कमियों को पूरा करने में मदद करेगा।
श्री जीएस पटनायक ने भारत के माननीय उपराष्ट्रपति को शुभकामनाएं दीं और कहा कि 'दो महान संस्थानों' अर्थात आईसीडब्ल्यूए और जेएनयू के बीच नया तालमेल स्वागत योग्य है। उन्होंने अपने महानिदेशक, राजदूत राजीव के. भाटिया के कुशल नेतृत्व में आईसीडब्ल्यूएकी अत्यधिक कार्यक्षमता के संबंध में माननीय उपराष्ट्रपति की सराहना की।
प्रोफेसर गिरिजेश पंत ने उपस्थित सभी लोगों की उपस्थिति हेतु आभार व्यक्त किया।
सत्र I - भारत का वैश्विक नजरिया
9.प्रोफेसर मनोज पंत ने बताया कि वैश्विक अर्थव्यवस्थाओं में बदलाव का विदेश नीति पर क्या प्रभाव पड़ता है। उनके द्वारा तैयार की गई रूपरेखा में 20वीं शताब्दी में आर्थिक विकास के तीन चरण थे। पहले चरण की शुरुआत 1930 के दशक की मंदी से हुई जिसके दौरान दुनियाके पास कोई वैश्विक संस्था नहीं थी जो इस स्थिति को संभाल पाती। द्वितीय चरण यानी 1980 के दशक के बाद तेल संकट के लिए विकसित देशों द्वारा प्रतिक्रिया की गईजिसके कारण ऊर्जा दक्षता का विचार सामने आया। अंतरराष्ट्रीय संगठन और निकाय नए खिलाड़ी के रूप में शामिल हुए जो एक महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे थे। तीसरा चरण अर्थात 2007 के बाद का काल दक्षिण के दक्षिण से व्यापार का गवाह बना। उन्होंने इस वकतव्य के साथ समापन किया कि कूटनीति केवल अंतर्राष्ट्रीय राजनीति के बारे में नहीं हैअंतर्राष्ट्रीय अर्थशास्त्र भी विदेश नीति का एक महत्वपूर्ण घटक बन रहा है।
सत्र II - प्रमुख शक्तियों का जुड़ाव: भारत के लिए आशय
प्रोफेसर चिंतामणि महापात्रा ने अपने व्याख्यान में कहा कि एशिया में 'मौजूदा महाशक्ति' (अमेरिका) और 'उभरती महाशक्ति' (चीन) दोनों ही अपने लिए एक ठोस पृष्ठभूमि बनाने की कोशिश कर रहे हैं। उनके बीच मजबूत आर्थिक संबंधों ने जी -2 के विकास को बढ़ावा दिया है, जो अमेरिका-चीन संबंधों का 'सहस्वामित्व' है।
12.प्रोफेसर श्रीकांत कोंडापल्ली ने कहा कि अमेरिका और चीन के बीच ‘शीत युद्ध' भारत के लिए लाभदायक नहीं है और नई दिल्ली को अमेरिका के प्रति अपने दृष्टिकोण को चतुराई के साथ प्रबंधन करने की जरूरत है और चीन के साथ इसे "स्मार्ट नॉन-अलाइन्मेंट" की राष्ट्रीय सामंजस्य पर आधारित विदेश नीति को अपनाना चाहिए।
13.प्रोफेसर अनुराधा चेनॉय ने अपने व्याख्यान में कहा कि रूस ने अंतरराष्ट्रीय स्तर पर स्वयं को 'फिर से उभरती हुई शक्ति' के रूप में साबित किया है जो सीरियाई संकट पर उसकी उपस्थिति से परिलक्षित हुई थी। रूस के प्रति भारत की विदेश नीति सक्रिय और स्पष्ट होनी चाहिए। भागीदारी राजनीतिक-सामाजिक और आर्थिक क्षेत्र में तथा वैश्विक एवं क्षेत्रीय मामलों में भी सुदृढ़ की जानी चाहिए।
14.प्रोफेसर गुलशन सचदेवा ने भारत-यूरोपीय संघ की भागीदारी पर अपने विचार साझा किए और कहा कि भागीदारी अभी भी विकसित हो रही है। भारत-यूरोपीय संघ स्ट्रेटजिक पार्टनरशिप (2004) और संयुक्त कार्य योजना (2005) ने दोनों संघ के बीच द्विपक्षीय व्यापार को मजबूत किया है। हालांकि, इस भागीदारी को बढ़ाने के लिए दोनों पक्षों की बातचीत की प्रक्रियाओं में जटिलता के कारण और विचारों की कमी के कारण द्विपक्षीय व्यापार में मंदी आई है । यूरोज़ोन के संकट ने भारत और यूरोपीय संघ के बीच व्यापार को धीमा कर दिया है। हालांकि, भारत और यूरोपीय संघ को व्यापार में आगे बढ़ना चाहिए और ऊर्जा सुरक्षा और विकास के क्षेत्र में भागीदारी और सहयोग करना चाहिए।
सत्र III - दक्षिण एशिया: भारतीय परिप्रेक्ष्य
15.प्रोफेसरएस.डी. मुनि ने सत्र की अध्यक्षता की और उल्लेख किया कि क्षेत्र में यथास्थिति बनाए रखने में भारत ने एक बड़ी उपलब्धि हांसिल की है। उन्होंने भारत की विदेश नीति में कई सफलताओं का उल्लेख किया जैसे कि बांग्लादेश का निर्माण, श्रीलंका में संवैधानिक व्यवस्थालागू करना आदि। उन्होंने कहा कि कई मामलों में सफलता बाद में असफलता में परिवर्तित हो गई। इसके कई कारण थे:-
(क) भारत के पास कभी भी दीर्घकालिक नीति परिप्रेक्ष्य नहीं था
(ख) भारत की विदेश नीति व्यक्तित्व आधारित दृष्टिकोण द्वारा तैयार की गई
(ग) विदेश नीति के संबंध में भारत में बहुत अधिक हितधारक हैं
(घ) क्षेत्र में एक प्रखर ध्रुवीकरण है
(ड़) क्षेत्र में अन्य क्षेत्रीय शक्तियों द्वारा निभाई गई भूमिका।
16 .प्रोफेसर उमा सिंह ने 'पाकिस्तान की अफगानिस्तान नीति' के बारे में अपना दृष्टिकोण साझा किया और कहा कि अफगानिस्तान में पाकिस्तान की मंशा काफी हद तक रणनीतिक है। पाकिस्तान अफगानिस्तान पर नियंत्रण चाहता है और अफगान सरकार को आश्वस्त कर रहा है कि उन्हें विदेशी शक्तियों पर निर्भरता कम करनी चाहिए। उन्होंने कहा कि पाकिस्तान एक सुदृढ़ अफगानिस्तान से भयभीत हैइस कारण वह पश्तून विद्रोह को भड़का सकता है। पाकिस्तान नहीं चाहता है कि कोई भी पड़ोसी देशविशेषकर भारत, अफगानिस्तान के संबंध में हस्तक्षेप करे।
प्रोफेसर संगीता थपलियाल ने नेपाल के प्रति भारत की विदेश नीति की सफलताओं पर बात की। भारत के लिएनेपाल सुरक्षा की दृष्टि से चिंता का विषय है और भारत चाहता है कि कोई बाहरी शक्ति इस क्षेत्र में हस्तक्षेप न करे। उन्होंने नेपाल के बारे में भारत की दुविधा के संबंध में बात कीजहां भारत नेपाल को सही सलाह देता हैलेकिन यह नहीं समझ पाता है कि सलाह कब हस्तक्षेप में बदल जाती है।
डॉ. राजेश खरात ने कहा कि भूटान में भारत की भूमिका महत्वपूर्ण है और नई दिल्ली ने भूटान में विकास से संबंधित परियोजनाओं का समर्थन किया है। भारत ने दक्षिण एशियाई क्षेत्रीय सहयोग संगठन (सार्क) की सदस्यता प्राप्त करने में भी भूटान की मदद की है। डॉ.एन.मनोहरन ने श्रीलंका और मालदीव जैसे छोटे राज्यों की जैसी स्थिति दिख रही है हकीकत में वैसी स्थिति न होने के बारे में बात की। उन्होंने कहा कि छोटे-छोटे राज्य एक बड़े राज्य का मुकाबला करने के लिए खुद को एक साथ लाने की कोशिश करते हैं। कभी-कभीये देश (श्रीलंका और मालदीव) भारतीय प्रबलता का मुकाबला करने के लिए चीन कार्ड खेलते हैं। लेकिन उन्होंने कहा कि बाहरी संबंधों की अपनी सीमाएं हैं और भारत को इन देशों का विश्वास जीतने के लिए कड़ी मेहनत करनी चाहिए।
सत्र IV-भारत और दक्षिण पूर्व एशिया
"भारत-इंडोनेशिया संबंध" पर अपनी प्रस्तुति में प्रोफेसर जी.वी.सी. नायडू ने कहा कि दोनों देश भौगोलिक रूप से करीब हैं और सांस्कृतिक और ऐतिहासिक संबंधों का आनंद लेते हैं। उन्होंने कहा कि भारतीय इतिहासकारों ने स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान इंडोनेशिया की खोज की और भारत के 'एशियाईवाद' के विचार ने इंडोनेशिया को भारत के करीब ला दिया।हालांकि, गुटनिरपेक्ष आंदोलन के दौरान एक अच्छी शुरुआत के बादद्विपक्षीय संबंधों में कुछ मनमुटाव देखे गए। शीत युद्ध की समाप्ति के बाददोनों देशों ने संबंधों को सुधारने के लिए ‘पूर्व की ओर देखो नीति’ जैसी कई पहल कीजिसके तहत उन्होंने राजनीतिक, आर्थिक और सांस्कृतिक संबंधों को पुनर्जीवित करने के लिए एक नया कूटनीतिक खाका तैयार कियाजिसमें इंडोनेशिया 'केंद्रबिन्दु' में था। इंडोनेशियाने भारत के साथ रणनीतिक और आर्थिक संबंध बढ़ाए इंडोनेशिया की क्षेत्र में मुख्य भूमिका निभाने की महत्वाकांक्षा थी। उन्होंने कहा कि इंडोनेशिया पूर्वी एशिया की आर्थिक एवं सुरक्षा व्यवस्था के परिवर्तन के दौर में एक केंद्र बिंदु के रूप में उभरेगा । इस संदर्भ में उन्होंने भारतीय विदेश नीति निर्माताओं को आसियान ढांचे जैसे हिंद महासागर और हिन्द-प्रशांत से अलग हटकर सोचने का सुझाव भारत को दिया।
5वां सत्र - पश्चिम एशिया की पुनः कल्पना
सत्र VI - सनशाइन क्षेत्र, मध्य एशिया, अफ्रीका और लैटिन अमेरिका
प्रोफेसर अजय दुबे और डॉ. विधान पाठक ने अपने व्याख्यान में अफ्रीका में भारत द्वारा अपनी क्षमता बढ़ाने के प्रयासों का आकलन किया। उन्होंने कहा कि भारत द्वारा छमता बढ़ाने के प्रयासों में अफ्रीका के साथ भारत का जुड़ाव रहा हैलेकिन नई दिल्ली (2008) और अदीस अबाबा (2011) में आयोजित इंडिया-अफ्रीका फोरम समिट्स के बाद इसमें तेजी आई। दो शिखर सम्मेलनों में भारत ने अफ्रीका में सामर्थ्य बढ़ाने के लिए 1.2 बिलियन डॉलर का भुगतान किया। इस योगदान से प्राप्तकर्ता देशों के बीच भारत की ख्याति बढ़ी। हालांकि, उन्होंने कहा कि भारतीय विदेश कार्यालय के पास सहायता संवितरण की निगरानी करने के लिए कोई तंत्र नहीं हैऔर चूंकि यह सहायता अफ्रीकी संघ द्वारा स्थापित एजेंसी के माध्यम से मिलती हैइसलिए भारत व्यक्तिगत देशों से प्रतिफल की उम्मीद नहीं कर सकता।
सत्र VII - भारत में संघवाद और विदेश नीति पर पैनल की चर्चा
तीस्ता जल और तीन बीघा गलियारे के मुद्दों के विशेष संदर्भ मेंउन्होंने कहा कि पश्चिम बंगाल सरकार ने भारत और बांग्लादेश के बीच द्विपक्षीय वार्ताओं पर प्रभाव डालने वाले केंद्र के नजरिये के विपरीत एक अलग दृष्टिकोण प्रस्तुत किया।
भारत और श्रीलंका के बीच कच्चतीवु और मत्स्य मुद्दे अन्य उदाहरण हैं जहां राज्य सरकारऔर केंद्र सरकार का नजरिया भिन्न है। उन्होंने इस बात पर भी प्रकाश डाला कि राज्य सरकारें वोट बैंक की राजनीति के लिए राजनीति में अपनी स्थिति को मज़बूत करने के लिए कई बार इस मुद्दे को उठाती रहती हैं। उनका विचार था कि विदेश नीति के मुद्दों का राजनीतिकरण नहीं किया जाना चाहिए। हालांकि, उन्होंने सुझाव दिया कि केंद्र को विशेष रूप से ट्रांस-बॉर्डर और ट्रांस-नेशनल मुद्दों पर निर्णय लेते समय क्षेत्रीय महत्वकांक्षाओं को ध्यान में रखना होगा ।
कुछ विदेश नीति के मुद्दों पर राज्यों और केंद्र के बीच चल रहे गतिरोध के मद्देनजरसमस्या को दूर करने के लिए श्रोताओं से कई सुझाव आए थे। एक सुझाव राष्ट्रीय एकता परिषद और राष्ट्रीय विकास परिषद की तर्ज पर एक केंद्र-राज्य परिषद का गठन करना था जिसमें उन राज्यों को शामिल किया गया था जो भारत के पड़ोसी देशों के साथ सीमाएँ साझा करते थे। एक अन्य सुझाव राज्य सरकारों द्वारा विशेष प्रकोष्ठ स्थापित करना था जो विदेश मंत्रालय के साथ समन्वय कर सकता है और उन मुद्दों पर अपने सुझाव और विचार प्रस्तुत कर सकता है जो चिंता के विषय हैं। यह भी सुझाव दिया गया था कि चूंकि संघवाद और विदेश नीति एक विकसित मुद्दा हैइसलिए इस मुद्दे को समर्पित एक अलग संगोष्ठी आयोजित की जानी चाहिएजिसमें आई.सी.डब्ल्यू.ए. प्रमुख रूप से भाग ले सके।
समापन भाषाण एवं अनुशंसाएं
28.सम्मेलन के अंत में डॉ. विजय सखुजा, निदेशक (अनुसंधान), आईसीडब्ल्यूए और प्रोफेसरचिंतामणि महापात्र, जेएनयू ने उनके समापन भाषण में दर्शकों और आयोजकों को धन्यवाद दिया। उन्होंने यह भी जानकारी दी कि अगला आईसीडब्ल्यूएएवं एसआईएस (जेएनयू) संवाद 2014 में आयोजित किया जाएगा। प्रतिभागियों ने सुझाव दिया कि सम्मेलन में पीएचडी विद्वानों को शामिल करने के लिए एसआईएस (जेएनयू) के विशिष्ट केंद्रों में आयोजित होने वाले इसी तरह के सेमिनारों का भी पता लगाया जा सकता है।
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