भारत-यूरोपीय संगोष्ठी
की
चौथी बैठक
पर इवेंट रिपोर्ट
ब्रसेल्स
23 - 24 अक्तूबर, 2012
पिछले एक दशक में यूरोपीय संघ एवं भारत का सहयोग काफी बढ़ा है। यह साझेदारी विभिन्न नई एवं दूरगामी पहल करने के कारण भी विकसित हुई है। लेकिन पर्याप्त प्रगति के बावजूद2004 में घोषित की गई रणनीतिक साझेदारी के कारण मौजूदा समय में संबंध कमजोर होते नजर आ रहे हैं। द्विपक्षीय स्तर परसहयोग को बढ़ाने एवं सुदृढ़ करने की आवश्यकता है। क्षेत्रीय और बहुपक्षीय स्तरों परयूरोपीय संघ और भारत समानांतर चलते दिखाई देते हैं दोनों वैश्विक परिणामों और चुनौतियों को सामान दृष्टि से देखते हैं। लेकिन सामान मूल्यों, मतों और हितों के बावजूदविभिन्न प्रमुख मुद्दों पर उनके दृष्टिकोण में विभिन्नताएं हैं। इसके बावजूदभारत एवं यूरोपीय संघ अनन्य रणनीतिक भागीदार नहीं हैं। दोनों उन देशों के साथ जिनके साथ इनके अच्छे संबंध हैं कई द्विपक्षीय और बहुपक्षीय सभाओं में भाग लेते हैं और 'अन्य महत्वपूर्ण’ मुद्दों पर अलग-अलग मूल्यों और धारणाओं के बावजूद संबंधों को साझा करते हैं।
2004 में यूरोपीय संघ और भारत की रणनीतिक साझेदारी की घोषणा के बाद सेअंतर्राष्ट्रीय स्तर पर बड़े बदलाव हुए हैं।एक नई, बहुध्रुवीय, बहुलवादी विश्व व्यवस्था के लिए परिवर्तन का दौर शुरू हो गया है और भूराजनीतिक वातावरण जिसमें यूरोपीय संघ और भारत आज भी काम कर रहे हैंउनके लिएरणनीतिक मुद्दों पर बहुत सुदृढ़ समन्वय की आवश्यकता है। वैश्विक स्तर पर महत्वपूर्ण परिवर्तन के लिए अब वास्तव में रणनीतिक साझेदारी को घनिष्ठ करने की आवश्यकता है।
साझेदारी को व्यापक स्तर पर बढ़ाने और घनिष्ठ करने की आवश्यकता है। समुद्री सुरक्षा, साइबर सुरक्षा और आतंकवाद रोकने पर सहयोग,एक विकसित विदेश नीति वार्ता, अक्षय ऊर्जा के क्षेत्र में सहयोग,उन्नत अनुसंधान सहयोग एवं आदान-प्रदान,परमाणु ऊर्जा और अंतरिक्ष अनुसंधान पर सहयोगइत्यादि संयुक्त उद्यमों के लक्ष्य समय से प्राप्त करने के लिए सही दिशा की आवश्यकता है जिसे एक दूरगामी सोच के साथ मुक्त व्यापार समझौते पर बातचीत से प्राप्त किया जा सकता है। आर्थिक सहयोग एवं और मुक्त व्यापार समझौता (एफटीए) अभी भी संबंधों के लिए महत्वपूर्ण है।हाल के रुझानों से संकेत मिला है कि भारत और यूरोपीय संघ पूरी तरह से मुक्त व्यापार समझौते के बजाय आंशिक मुक्त व्यापार समझौते पर हस्ताक्षर कर सकते हैं। साझेदारी (विशेषकर आर्थिक दृष्टि से) को संतुलित करने के लिए प्रयासों की आवश्यकता है। यह समय यूरोपीय संघ द्वारा भारत को एक विकासशील देश के रूप में देखनेका नजरिया बदलने और दोनों पक्षों के लिए बराबरी की साझेदारी की ओर बढ़ने का समय है। संबंधों के मूल तत्वों की समीक्षा करना बुद्धिमानी होगी विशेष रूप सेविकास के लिए सहयोग को बढ़ाया जाना, व्यापार और व्यापारिक संबंधों सहित सहायता के बजाय कौशल हस्तांतरण पर ध्यान केंद्रित करना, साथ ही कृषि के क्षेत्र में अधिक से अधिक सहयोग। संयुक्त कार्य योजना को अपनाने के छह साल बादभले ही यूरोपीय संघ की वित्तीय और आर्थिक समस्याओं ने इसे और अधिक कठिन बना दिया हैलेकिन संभवतया यह समय है कि वह संयुक्त कार्य योजना को पुन: तैयार करें और साझेदारी के लिए एक नयाअधिक सुव्यवस्थित एजेंडा तय करेंजो विभिन्न कार्यों को संपन्न करने की तय समयसीमा को परिभाषित करे। सभी भागीदारों की लाभ एवं कार्यों पर स्पष्टता आवश्यक है। भारत के लिए संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषदमें स्थायी पद सर्वोपरि उद्देश्य है और नई दिल्ली इसके लिए अपनेसंबंध में यूरोपीय संघ का समर्थन चाहती है। दूसरी ओरजलवायु परिवर्तन के बारे मेंअनिवार्य लक्ष्य निर्धारित करना और अंतर्राष्ट्रीय निगरानी सुनिश्चित करना यूरोपीय संघ के लिए स्पष्ट तौर पर प्राथमिकता है और इस संदर्भ में ब्रुसेल्स भारत से करीबी संरेखण की इच्छा रखता है। भारत अरब स्प्रिंग द्वारा लाए गए लोकतंत्र में परिवर्तन का समर्थन करता है लेकिन यूरोपीय संघ के कुछ सदस्य देशों द्वारा पोषित किए गए क्षेत्र में प्रत्यक्ष हस्तक्षेप की रणनीति पर सवाल उठाता है। भारत और यूरोपीय संघ दोनों को अफगानिस्तान के शांतिपूर्ण परिवर्तन में रुचि हैलेकिन इस क्षेत्र में अधिक से अधिक सहयोग कैसे प्राप्त किया जाएइस पर नजर नहीं रखते हैं।धारणा,मानसिकता और वैश्विक नजरिये में अंतर को आपसी समझ और अधिक व्यापक संवाद की आवश्यकता है। हितधारकों, आधिकारिक प्रणाली के साथ-साथ विश्लेषकों, विशेषज्ञ दल, सभ्य समाज और राजनेताओं की अधिक विविधता को शामिल करके इसे हासिल किया जा सकता है।
अंतर्राष्ट्रीय रणनीतिक मुद्दे और द्विपक्षीय सुरक्षा सहयोग
(आर 2 पी) की सुरक्षा की जिम्मेदारी का प्रश्न अभी भी यूरोपीय संघ और भारत के लिए विरोध का मुद्दा बना हुआ है।भारत R2P की धारणा से असहमत नहीं हैभारत इसके क्रियान्वयन केतौर-तरीकों से असहमत है विशेष रूप से बाहरी हस्तक्षेप के माध्यम से शासन परिवर्तन केआशय से। भारत के दृष्टिकोण में नाटो द्वारा लीबिया में आर 2 पी का कार्यान्वयन एक मुख्यमुद्दा है। लीबिया के बारे में चर्चा ने सीरिया में स्थिति पर स्पष्ट प्रतिक्रिया व्यक्त की है। फिर भीभारत और यूरोपीय संघ दोनों पूरी तरह से आर 2 पी को खारिज नहीं करने पर सहमत हैं। इसलिए इस सिद्धांत को लागू करने के लिए पारस्परिक रूप से स्वीकार करने योग्य तरीके खोजने पर ध्यान केंद्रित करने की जरूरत है।यूरोपीय संघ और भारत दोनों का मानना है कि अरब स्प्रिंग मूल रूप से इस क्षेत्र को बदल देगा। लेकिन जबकि लोकतंत्र में परिवर्तन वांछनीय थाइसके बावजूद बहुत अधिक रक्तपात हुआ है। यूरोपीय संघ और भारत को लोकतांत्रिकरण की ओर बढ़ने की दिशा में और तानाशाही शासन के समय में इन देशों की सहायता करने की आवश्यकता है। क्षेत्र की कठिनाईयों को देखते हुएयूरोपीय संघ और भारत के लिए यह महत्वपूर्ण होगा कि वे प्रत्येक देश की विशिष्ट स्थिति को ध्यान में रखें और अरब स्प्रिंग देशों के साथ सहयोग की दिशा में उठाए जाने वाले कदमों को सामान्य तौर पर न लें। हालांकि, अरब स्प्रिंग की घटना अभी भी एक प्रारंभिक चरण में है और हिंसा अभी भी कुछ देशों में बनी हुई है जिस पर निगरानी रखने की आवश्यकता है। सीरिया एक विशेष मामला है और भारत अंतर्राष्ट्रीय कानून की कीमत पर भी एकतरफा कार्रवाई की आवश्यकता पर यूरोपीय संघ के आग्रह से सहमत नहीं है।
इन देशों को लोकतांत्रिक शासन की नींव रखने में मदद करने पर ध्यान देना चाहिए। संभवत: भारत के पास यूरोपीय संघ के साथ साझा करने के लिए व्यापक क्षमताएं और अनुभव हैं। उदाहरण के लिएभारत का चुनाव आयोग विशेष रूप से मध्य पूर्व क्षेत्र में चुनावों की लहर के साथ यूरोपीय संघ के समीक्षकों के साथ मिलकर एक महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है।
ईरान एक महत्वपूर्ण मुद्दा बना हुआ है लेकिन वर्तमान स्थिति से निपटने के तरीकों के बारे में मतभेद बने हुए हैं। भारत और यूरोपीय संघ दोनों ही ईरान को बिना परमाणु हथियारों के देखना चाहेंगे। पारस्परिक रूप से स्वीकार करने योग्य दृष्टिकोण की खोज के लिए अभी भी और विचार-विमर्श करने की आवश्यकता है। यूरोपीय संघ और भारत तनाव को कम करने और असुरक्षा पर चर्चा करने और विश्वास पैदा करने के उपायों को प्रोत्साहित करने के लिए इज़राइल और ईरान दोनों की संधि करवाकर क्षेत्र में शांति को बढ़ावा देने के लिए काम कर सकतेहैं। खाड़ी क्षेत्र में भारतकी बढ़ती मौजूदगी और निर्भरता क्षेत्र में यूरोपीय संघ और भारत के सहयोग की आवश्यकता को भी प्रदर्शित करती है।
भारत का पड़ोस राजनीतिक रूप से अस्थिर हैऔर 2014 के पतन के बाद से अफगानिस्तानका भविष्य अनिश्चित है। हालांकि, यह भारत और यूरोपीय संघ जैसे दो असैनिक कर्ताओं (संयुक्त राष्ट्र से अलग) के बीच सहयोग के मामले को मजबूती प्रदान करता है। भारत, यूरोपीय संघ के साथ एक स्थिरआधुनिक एवं लोकतांत्रिक देश के दृष्टिकोण को साझा करता हैजो दक्षिण एशिया को मध्य एशिया के साथ जोड़ने में एक बड़ी भूमिका निभा सकता है। यूरोपीय संघ और भारत अफगानिस्तान में पुनर्निर्माण और विकास के लिए सबसे अधिक दान देने वाले देश हैं। अफगानिस्तान में यूरोपीय संघ का मिशन समय, अवसर और प्रतिबद्धता के संदर्भ में एक सकारात्मक कदम है। हालांकि, अफगानिस्तान में यूरोपीय संघ और भारत के सहयोग से उठने वाले अगले चरणों में उन तरीकों को खोजना शामिल होगा जिनमें वे वास्तव में एक साथ बुनियादी स्थिति को बदल सकते हैं। संबंधित परियोजनाओं के बेहतर कार्यान्वयन पर संवाद बढ़ाया जाना चाहिए। यूरोपीय संघ और भारत को देश में संयुक्त परियोजनाएं स्थापित करने पर भी ध्यान देने की आवश्यकता है। लीबिया के विकास जैसी स्थिति से बचने के लिए अफगानिस्तान पर भारत की स्थिति व्यावहारिक कारणों और जरूरतों के अनुसार तय होती रहेगी।अन्य क्षेत्रीय देशों को शामिल करना महत्वपूर्ण होगा, विशेष रूप सेअफगानिस्तान के संबंध में ईरान को शामिल करने से परमाणु मुद्दे पर ध्यान हटाते हुए बेहतर विचारों और तालमेल के लिए महौल बनाया जा सकता है।
जैसे कि महासागर और समुद्री क्षेत्र अंतरराष्ट्रीय संबंधों के लिए प्रमुख स्थान रखते हैं वैसे ही हिंद महासागर और हिन्द-प्रशांत क्षेत्र यूरोपीय संघ और भारत के संबंधों के लिए एक विशेष स्थान रखते हैं। चीन और भारत के उदय ने भूराजनीतिक हितों को फिर से परिभाषित किया है। सी लैंस ऑफ़ कम्युनिकेशन (एसएलओसी) को खुला और संघर्ष से मुक्त रखना अत्यावश्यक हो गया है। ये जलमार्ग यूरोपीय संघ और भारत दोनों को सीधे प्रभावित करते हैं क्योंकि दोनों दलों के पास इन जलमार्गों में महत्वपूर्ण आर्थिक हित छिपे हैं। इन महासागरों में सहयोग करने के कई अन्य कारण भीहैंजैसे चोरी और आतंकवाद का खतरा, एसएलओसी की सुरक्षा बनाए रखना, विभिन्न समुद्री क्षेत्रों में परस्पर विरोधी क्षेत्रीय दावों वाले राज्यों के बीच शांति कोसुनिश्चित करना, और समुद्री किनारे वाले राज्यों की क्षमता निर्माण को मजबूत करने की आवश्यकता है। हिन्द–प्रशांत के प्रति अमेरिका के रणनीतिक असंतुलन का यूरोप और भारत दोनों के लिए महत्वपूर्ण प्रभाव है। इसने यूरोपीय संघ की राजधानियों में तर्क-वितर्क को जन्म दिया है और कुछ मामलों में सदस्य राज्यविशेष रूप से फ्रांस और यूके क्षेत्र में अपने कार्य और उपस्थिति को बढ़ा रहे हैंजिनके पास इस क्षेत्र में नौसेना के ठिकाने भी हैं। यूरोपीय संघ इस क्षेत्र में आगे बढ़ने के लिए नए अवसरों की खोज करने के प्रति प्रतिबद्ध है। इस संबंध मेंयूरोपीय संघ अन्य संभावनाओं के बावजूद पूर्वी एशिया में संघर्ष की मध्यस्थता के लिए भूमिका निभा सकता है।
अमेरिकी सैन्य रणनीति भी अमेरिका को भारत के साथ दीर्घकालिक रणनीतिक साझेदारी करने के लिए मजबूर करती है। भारत के लिए यह रणनीति विशेष रूप से क्षमता को बढ़ाने और अपने सशस्त्र बलों के आधुनिकीकरण के संबंध में अमेरिका के साथ अधिक से अधिक सहयोग के अवसर खोलता है। हालांकि, कुछ भारतीय विश्लेषकों को डर है कि अमेरिका के साथ गहरा सहयोग चीन के साथ बढ़ते तनाव जैसी समस्याओं को जन्म दे सकता है। बहरहाल, हिन्द-प्रशांत नई चुनौतियों की पेशकश करता है जिससे भारत और यूरोपीय संघ दोनों को न केवल चीन और अमेरिका के बल्कि जापान के रणनीतिक हितों को भी ध्यान में रखते हुए व्यावहारिक रूप से निपटना चाहिए। क्षेत्र में शक्ति के संतुलन पर यूरोपीय संघ और भारत के बीच संवाद द्विपक्षीय और बहुपक्षीय साझा कार्यवाही को बढ़ावा देने में प्रभावी हो सकता है। इस संबंध में दक्षिण पूर्व एशियाई देशों को शामिल करना महत्वपूर्ण होगा। यूरोपीय संघ और भारत इस क्षेत्र में शांति सुनिश्चित करने की एक सामान महत्वाकांक्षा रखते हैं जो आर्थिक समृद्धि और आधुनिकीकरण के लिए महत्वपूर्ण है। एक अंतरराष्ट्रीय संगठन इंडियन ऑशियन रिम एसोसिएशन फॉर रीजनल कोऑपरेशन (IOR-ARC) जो आर्थिक सहयोग पर ध्यान केंद्रित करता हैरणनीतिक मुद्दों पर चर्चा के लिए एक मंच बन सकता है। इस संबंध में, जैसा कि कुछ प्रतिभागियों ने सुझाव दिया हैयूरोपीय संघ,आईओआर-एआरसी में स्वयं को संवाद के भागीदार के तौर पर शामिल करने की कोशिश कर सकता है। यूरोपीय संघ के नजरिये से उसे प्रशांत में किसी भी दीर्घकालिक रणनीति में भूमिका निभाने के लिए सन्निहित किया जाना चाहिए। अदन की खाड़ी में समुद्री चोरी को रोकने के प्रयासों पर मौजूदा सहयोग भी बढ़ाया जा सकता है।हालांकि, भारत के पास सोमालिया या अन्य पूर्वी अफ्रीकी देशों में किसी भी संयुक्त जमीनी कार्यवाई के संबंध में पर्याप्त अधिकार हैजबकि यूरोपीय संघ ऐसे हस्तक्षेपों केपक्ष में है और नि:संदेह इस संबंध में कार्रवाई शुरू कर चुका है। आतंकवाद रोकने और साइबर आतंकवाद के खिलाफ कार्यदल के गठन एवं घनिष्ठ सहयोग की संयुक्त घोषणा के बाद बहुत संभावनाएं हैं।
अपरंपरागत / सुरक्षा एवं विकास के नए मुद्दे
भारत के दृष्टिकोण, वैश्विक नजरिये एवं यूरोपीय संघ के लोगों के बीच आंतरिक मतभेदों को देखते हुए सुरक्षा की पारंपरिक धारणाओं पर एकमत होना कई बार मुश्किल साबित हो सकता है। गैर-पारंपरिक सुरक्षा मुद्दे जैसे कि जलवायु सुरक्षा, संसाधन सुरक्षा, या आपदा की रोकथाम और जोखिम में कमी सहयोग के लिए मार्ग दर्शन प्रदान करते हैं जिन्हें नई दिल्ली द्वारा कम विवादास्पद मुद्दों के रूप में देखा जाता है और जहां यूरोपीय संघ की वास्तविक एवं स्पष्ट क्षमता देखने को मिलती है। जबकि यूरोपीय संघ ने जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए खुद के लिये उच्च लक्ष्य निर्धारित किये हैं एवं भारत ने भी इस मुद्दे को हल करने के लिए कई कदम उठाए हैं। भारत अपने सौर ऊर्जा उद्योग को सक्रिय रूप से बढ़ावा दे रहा है और दुनिया में चौथी सबसे बड़ी पवन ऊर्जा क्षमता के साथ इस क्षेत्र में उच्चतम विकास दर के साथ आगे बढ़ रहा है, जिसे यूरोपीय संघ के नीति-निर्माताओं ने भी मंच संचालन के दौरान एक ऐसे क्षेत्र के रूप में चयनित किया था जिसमें वास्तव में सहयोग को बढ़ाया जा सकता है। यूरोपीय संघ और भारत के बीच निवेश और तकनीकी हस्तांतरण में सहयोग इस संबंध में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है। दोनों पक्षों के बीच जलवायु परिवर्तन के लिए सूचनाओं के अधिक आदान-प्रदान और आपसी चर्चा की आवश्यकता है। इस संबंध में, भारतऔर यूरोपीय संघ जलवायु परिवर्तन पर भारत की राष्ट्रीय कार्य योजना कीबाहरी रूपरेखा तैयार करने में सहयोग कर सकता है।
जलवायु परिवर्तन के तात्कालिक एवं अप्रत्यक्ष खतरों के संबंध में जागरूकता के साथ भारत में दृष्टिकोण बदल रहा है।जबकि भारत की दीर्घकालिक सोच यह रही है कि अधिक से अधिक धन का अर्जन और व्यय में कमी के उपाय विकसित देशों से आने चाहिए, भारत के योजना आयोग ने हाल ही में सरकार के लिए घरेलू और निजी वित्तपोषण मार्ग के माध्यम से धन अर्जन करने के लिए प्रभावशाली तरीके प्रस्तुत किये हैं। इसमें देश में एक कैप-एण्ड-ट्रेड उत्सर्जन प्रणाली खोलने और उत्सर्जन के एक वैश्विक चरम स्तर को स्वीकार करने की वकालत की गई है जिसका देश के अन्दर आधिकारिक अंतरराष्ट्रीय रवैया सख्ती के साथ विरोध का रहा है।
ऊर्जा आपूर्ति यूरोप के लिए भी विशेष चिंता का विषय है और यूरोपीय संघ की विदेश नीति तेजी से बढ़ती ऊर्जा की खपत के प्रति संवेदनशील है। यूरोपीय संघ को नीतिगत सामंजस्य बढ़ाने के लिए काफी प्रयास करने की आवश्यकता है। विशेष रूप से इसे ऊर्जा की एक नियमित और सुरक्षित आपूर्ति सुनिश्चित करने, ऊर्जा भागीदारी के संबंधों को सुदृढ़ करने, मार्गों और सेवाओं में विविधता लाने और ऊर्जा के क्षेत्र में सुशासन को बढ़ावा देने की आवश्यकता है।
जब जलवायु परिवर्तन और ऊर्जा संरक्षण भागीदारी की बात आती हैतो भागीदारों को सावधानीपूर्वक कार्य करने की जरूरत हैखासकर जब से यूरोपीय संघ और भारत की पृष्ठभूमि अलग-अलग हुई है और विकास के स्तरों में भारी अंतर देखने को मिले हैं। समस्याएं बनी रहती हैं। नई दिल्ली के दृष्टिकोण से, ऐसी उम्मीदें हैं कि यूरोप सहयोग को बढ़ाये जाने की शर्त को पूरा करने के अपने दायित्व को निभाने के लिए अपने उत्सर्जन को कम करेगा। जलवायु परिवर्तन पर मौजूदा समय में कोई प्रमुख सहभागिता नहीं है और बहुपक्षीय स्तर पर सहभागिता अभी भी बहुत महत्वपूर्ण मुद्दों तक ही सीमित है जो रियो और कोपेनहेगन शिखर पर दिखाई दे रहे थे (विशेष रूप से अति उत्कृष्ट राष्ट्रीय उपायों से संबंधित)।इसके अलावा यूरोपीय संघ आयोग ने सौर ऊर्जा पर भारत और यूरोपीय संघ के बीच एक प्रमुख सहभागिता योजना बंद कर दी।
इस संबंध में, ऊर्जा संबंधी मुद्दों पर बातचीत को बढ़ाने की जरूरत हैविशेष रूप से ऊर्जा पर संयुक्त यूरोपीय संघ एवं भारत की घोषणाओं के संदर्भ में। ऊर्जा और नवीकरणीय ऊर्जा पर यूरोप,भारत की सहभागिता की व्यापक संभावना हैखासकर यदि यूरोपीय संघ के सदस्य देशों के साथ जिनके अपने व्यापक कार्यक्रम हैं के साथ भारत की मौजूदा सहभागिता का दायरा। सामान्य तौर पर द्विपक्षीय स्तर पर सहभागिता का घना नेटवर्क है। भारत के नवीकरणीय ऊर्जा क्षेत्र में यूरोपीय निवेश के अवसरों में बढ़ोत्तरी हुई है। यूरोपीय तकनीक भारत के विकास और हरित ऊर्जा की दिशा में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकती है। लेकिन इसपर विशेष ध्यान दिया जाना चाहिए कि भारत और यूरोपीय संघ को प्रौद्योगिकियों के हस्तांतरण और जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए तालमेल विकसित करने की आवश्यकता है।जलवायु वित्तपोषण एक और महत्वपूर्ण मुद्दा है जो यूरोपीय नीति-निर्माताओं का ध्यान आकर्षित करता है। शिक्षा क्षेत्र में यूरोपीय संघ एवं भारत की सहभागिता एक सफल कहानी रही है। भारत औरयूरोपीय संघ लाखों निरक्षर श्रमिकों को व्यावसायिक प्रशिक्षण प्रदान करने में सहयोग करते हैं। उच्च शिक्षा में यूरोपीय संघ और भारत द्वारा संभव संयुक्त उद्यमों की खोज की जानी है। यूरोपीय संघ और भारत को भी छात्र एवं विशेषज्ञों के विनिमय के वर्तमान स्तर को बढ़ाने के लिए ठोस प्रयास करने होंगे। इस अर्थ में प्रवासन एवं वीजा की सुविधा भारत के लिए एक महत्वपूर्ण मुद्दा है और इसे यूरोपीय संघ और इसके सदस्य राज्यों द्वारा उठाया जा सकता है। यूरोपीय संघ और भारत के बीच पर्यटन को भी बढ़ावा दिया जा सकता है। लेकिन इसके सुधार की सबसे अधिक गुंजाइश शायद व्यापार-से-व्यापार संबंधों के क्षेत्र में है।
दान दाता देश के रूप में भारत की नई भूमिका महत्वपूर्ण विकास में योगदान करने की है, भले ही मौजूदा धन का अधिकतम भाग क्षेत्रीय देशों के लिए हो उसमें भी मुख्य रूप से अफगानिस्तान के लिए समर्पित हो। जबकि यूरोपीय संघ एवं भारत विकास सहभागिता 2013 में समाप्त हो जाएगीफिर भी अन्य क्षेत्र होंगे जहां दोनों साझेदार एक साथ काम कर सकते हैं €6.5 मिलियन का एक पायलट प्रोजेक्ट जो अभी भी क्रियाशील है नौकरियों, शिक्षा और प्रशिक्षण से संबंधित कई समस्याओं का समाधान कर सकता है। यूरोपीय संघ के साथ भविष्य में'साझेदारी तंत्र',हालांकि वित्त पोषण के मामले में सीमित हो सकती है परन्तु प्रौद्योगिकी, संयुक्त सम्मेलनों के आयोजन जैसी बेहतरीन कार्यप्रणालियों को साझा करनेके लिए मुख्य मंच बन सकता है।
वैश्विक आर्थिक शासन
जी-20 प्रक्रियाके अन्तर्गत पिछले कुछ सालों की तुलना में वर्तमान में उपलब्धियां बहुत कम हुई हैं। जी-20 का एजेंडा सतत विकास, जलवायु परिवर्तन नियंत्रण आदि मुद्दों को संबोधित करने के लिए विकसित हुआ है। जी -20 में महत्वपूर्ण कानूनी निर्णय लिए गए हैं। इस संदर्भ मेंभारत हाल के दिनों में यूरोपीय संघ की तुलना में अधिक सफल रहा है। जबकि यूरोप में वित्तीय संकट के कारण कार्य काफी हद तक बाधित हुआ हैविशेष रूप से मेक्सिको में एजेंडे पर हावी होने के कारण भारत ने निवेश के संबंध में अच्छे परिणाम प्राप्त किए हैंब्रिक्स एजेंडे का समर्थन किया है, और यूरोप को प्रभावकारी सलाह दी कि कैसे वित्तीय संकट से निपटने के लिएबजट के नियंत्रण से अधिक मुद्रास्फीति पर ध्यान देने की आवश्यकता हैऔर आईएमएफ केयूरोपीय बचाव के प्रयासों के लिए $10 बिलियन (€8 बिलियन) की मदद का वचन देना। यह एक दूसरे पर आश्रिता का एक और संकेत है, क्योंकि वैश्विक और विशेष रूप से यूरोपीय आर्थिक मंदी का प्रभाव भारत को भी बहुत प्रभावित करता है।
वैश्विक आर्थिक शासन के क्षेत्र में जी-20 का दबदबा सवालों के घेरे में रहता है 2008 से 2010 के बीच अपेक्षाकृत सफल अवधि के विपरीत यूरोपीय संघ और भारत में सुधार और बदलाव के लिए मिलकर काम करने की बहुत संभावनाएं हैं। जी-20 बैठकों से पूर्व समन्वय बैठकों की परिकल्पना की जानी चाहिए।
द्विपक्षीय स्तर पर, यूरोप के चल रहे आर्थिक संकट के परिणामस्वरूप, यूरोपीय संघ और भारत के निर्यात में 14 प्रतिशत की गिरावट आई है और यूरोपीय संघ से भारत का आयात भी गिर गया है। पिछले तीन वर्षों में आए संकट के कारण भारत में निजी निवेश भी संकुचित हो गया है। संकट ने भारत में मुद्रास्फीति को बढ़ावा देने में भी योगदान दिया है और भारत को चीन के साथ प्रतिस्पर्धा करने में भी कठिनाई होती है, खासकर लेनदेन की लागतों के मामलों में। इन कारकों ने प्रभावित और संबंधित क्षेत्रों में काम करने वाले लोगों पर महत्वपूर्ण प्रभाव डाला है। यूरोप को अपने वित्तीय संकट के समाधान के लिए तत्काल समाधान के साथ-साथ व्यापार और निवेश में अधिक से अधिक यूरोपीय संघ और भारत सहभागिता की आवश्यकता है। कृषि में सहभागिता को और बेहतर किया जा सकता है क्योंकि भारत दूसरी हरित क्रांति की शुरुआत करना चाहता है।
वित्तीय एवं आर्थिक अंतर बना रह सकता है लेकिन मुक्त व्यापार समझौते को आगे स्थगित करना खतरनाक होगा।मुक्त व्यापार समझौते के निष्कर्ष का रणनीतिक साझेदारी के भविष्य पर गहरा प्रभाव पड़ेगा। यह सुनिश्चित करने के लिए ठोस कदम उठाने की आवश्यकता है जिससे शीघ्र निष्कर्ष पर पहुंचा जाए। यूरोपीय संघ और भारत दोनों को एक लचीले दृष्टिकोण का समर्थन करना चाहिए जो यूरोपीय संघ और भारत के कई वित्तीय संकटों को दूर कर सकता है।
भारत एवं यूरोपीय संघ की सामरिक भागीदारी को बढ़ाना
सामरिक भागीदारी के अन्तर्गत अभी तक ठोस परिणाम प्राप्त नहीं हुए हैं। दो पक्षों का जुड़ाव चाहे द्विपक्षीय हो या बहुपक्षीय दोनों पक्ष हमेशा बेहतर तरीके से जुड़े हुए नहीं होते हैं। जबकि अर्थव्यवस्था अभी भी रिश्तों का मूल बनी हुई है। सुरक्षा मुद्दों पर सहयोग की पर्याप्त गुंजाइश है। हम कहां से आ रहे हैं और हम कहां जाना चाहते हैंइसका आकलन करने के लिए यूरोपीय संघ और भारत दोनों को मूल मुद्दों पर पुन: विचार करना चाहिए। दोनों पक्ष समान शब्दों का प्रयोग करते हैं लेकिन अलग-अलग अर्थों के साथ। बहुपक्षवाद, संप्रभुता और आर 2 पी केवल कुछ उदाहरण हैं।
रणनीतिक साझेदारी को बढ़ाने के लिएयूरोपीय संघ और भारत को राज्य एवं साझेदारी के पारस्परिक मूल्य के बारे में एक स्पष्ट संवाद के साथ शुरूआत करनी चाहिए। यह प्रतिबद्धता के बिना नहीं होगा,क्योंकि उभरती हुई पॉलीसेंट्रिक दुनिया कई विकल्पों की दुनिया होगीऔर वास्तव में कई नई प्रवृत्तियां हैंजिनमें आर्थिक प्रतिस्पर्धा बढ़ रही हैऔर ब्रिक्स जैसे शांत गठबंधनयूरोपीय संघ और भारत के बीच गहरी साझेदारी के लिए अनैतिक साबित हो सकते हैं।
यूरोपीय संघ और भारत को तालमेल खोजना होगा और कई हितधारकों (राजनेताओं, प्रबुद्ध मंडल, मीडिया आदि) के साथ एक अनूठा मंच बनाना होगा, जो गठबंधन में समस्याओं और विचारों के अंतर को उजागर कर सके। एक नई संयुक्त कार्य योजना बनाने की भी आवश्यकता है जो मौजूदा कार्रवाई की व्यवस्थित समीक्षा कर सकती है और साथ ही नए मुद्दों को भी शामिल कर सकती है।
प्रमुख बहुपक्षीय कार्यक्रमों में परामर्श शायद सुदृढ़ हो सकें। एक दूसरे की स्थिति को स्पष्ट रूप से समझने के लिए और अधिक प्रयास किये जा सकते हैं। यूरोपीय संघ और भारत को पार्टी-टू-पार्टी आयाम से हटकर सोचना चाहिए और साझेदारी के हितधारकों की गुणवत्ता को बढ़ाने और विशिष्ट कार्यक्रमों और परियोजनाओं पर चर्चा करने के लिए प्लेटफ़ॉर्म बनाने के लिए मुख्य भूमिका निभानी चाहिएजिससे उन्हें नीति निर्धारण प्रक्रिया से बेहतर तरीके से जोड़ा जा सके।
यूरोपीय संघ और भारत को समान हितों की पहचान करनी चाहिए। भारत और यूरोपीय संघ दोनों कई मामलों में नए उभरते हुए देशहैं। रणनीतिक साझेदारी की सफलता को मापने के लिए बेंचमार्क की आवश्यकता है। विकास संबंधी उत्पादोंकर उपलब्धता के लिए निर्धारित समयसीमा तय करने के साथ रिश्ते को नई गति की आवश्यकता है।
अनुशंसाएँ
राजनीतिक और रणनीतिक मुद्दे
अपरंपरागत / सुरक्षा एवं विकास के नए मुद्दे
भारत और यूरोपीय संघ को अपारंपरिक या गैर-पारंपरिक सुरक्षा मुद्दों के संबंध में सहयोग का विस्तार करना चाहिए।इन्हें भारत और यूरोपीय संघ के विकास की कार्यसूची में शामिल किया जाना चाहिए।
वैश्विक आर्थिक शासन
सांस्कृतिक एवं जनता का जनता से संपर्क
जनता का जनता से संपर्क और बढ़ाया जाना चाहिए।
संकलनकर्ता: विजय सखुजा और दिनोज कुमार उपाध्याय (विश्व मामलों की भारतीय परिषद (आईसीडब्ल्यूए)), लुइस पेरल (सुरक्षा अध्ययन के लिए यूरोपीय संघ संस्थान (EUISS)) और गौरी खांडेकर ( Fundación para las Relaciones Internacionales y el Diálogo Exterior (FRIDE))।