“21वीं सदी में शांतिस्थापना”
पर
इवेंट रिपोर्ट
सप्रू हाउस, नई दिल्ली
20, नवंबर, 2015
सामंथा पावर, राजदूत
संयुक्त राष्ट्र के लिए अमेरिकी स्थायी प्रतिनिधि
सभी का अभिवादन। इस परिचय के लिए आपका धन्यवाद अनिल सूरी जी। आज आयोजित होने वाली वाद-विवाद के लिए आप निश्चित रूप से गहरा ज्ञान रखते हैं।
15 अगस्त 1947 को स्वतंत्रता प्राप्ति से कुछ ही समय पहले नेहरू ने वह भाषण दिया था जिसे आप और पूरा विश्व आज “भाग्य के साथ प्रयास” के नाम से जानता है। अधिकतर स्वतंत्रता भाषण अपना अंतरावलोकन करते हैं और उन लोगों के लिए जिन्होंने पहली बार अपने आप को परिभाषित करने का कि वे कौन हैं और क्या बनना चाहते है, अधिकार हासिल किया है उन लोगों के लिए विजन निर्धारित करती है। लेकिन इस भाषण ने, और नेहरू ने जिस वाक्पटुता से जिस राष्ट्रीय उत्पाद को स्थापित कर दिया, वह यह था कि भारत ने आंतरिक अवलोकन के साथ-साथ बाह्य अवलोकन भी किया जिसमें वे अपनी जिम्मेदारियों को अपनी सीमाओं के परे भी निर्धारित कर रहा था।
नेहरू ने घोषणा की कि“इस पवित्र क्षण में”, “हम भारत व उसके लोगों और अभी भी उससे भी बढ़कर मानवता की सेवा के समपर्पण के लिए शपथ लेते हैं”।गांधी का स्मरण करते हुए उन्होंने आगे कहा कि “हमारे महानतम व्यक्ति की इच्छा प्रत्येक आँख से आंसू पोछने की रही है”। ये हमारी पहुँच से बाहर हो सकता है लेकिन जब तक यहाँ आंसू और दुःख मौजूद हैं, तब तक हमारा कार्य पूर्ण नहीं होगा”। नेहरू की अवधारणा में, “भारत की सेवा से तात्पर्य लाखों दुःखी लोगों की सेवा से है”। दूसरे शब्दों में, भारत की सेवा से तात्पर्य विश्व के अतिसंवेदनशील लोगों की सेवा से है।
और, नेहरू की दृष्टि में, सेवा से तात्पर्य शांति के कृत्य को प्रोत्साहन देना है। उसका भाषण, जैसा कि आप सब जानते हैं, एक प्रतिज्ञा के साथ समाप्त हुआ था कि “विश्व शांति और मानव जाति के कल्याण को बढ़ावा देने के लिए भारत अपना पूर्ण और इच्छुक योगदान करेगा”।यहां तक कि यह विचार भी इसमें समाविष्ट किया गया कि जैसा कि आप सब जानते हैं कि, भारत का संविधान जो स्पष्ट रूप से “अंतरराष्ट्रीय शांति और सुरक्षा को बढ़ावा देने” के उद्देश्य को समाहित करता है यह दुनिया एकमात्र राष्ट्र है जिसके मूलभूत दस्तावेज इस महत्वाकांक्षा को अपनाते हैं।
ये मूलभूत प्रतिबद्धताएँ - नए संयुक्त राष्ट्र में मूल 50 राष्ट्रीय दलों में से एक के रूप में भारत की भूमिका - यह स्पष्ट करने में मदद करती है कि संयुक्त राष्ट्र शांति स्थापना में भारत का नेतृत्व इतना महत्वपूर्ण और दीर्घकालिक क्यों रहा है।
भारत ने पहले कोरिया में संयुक्त राष्ट्र की कमान में सैन्य अस्पतालों और फील्ड एम्बुलेंस का योगदान दिया और फिर 1956 में मिस्र के स्वेज़ में संयुक्त राष्ट्र के शांति मिशन में तैनाती दी। वहां,भारतीय शांति सैनिकों ने फ्रांसीसी, इजरायल और ब्रिटिश सेना की वापसी का पर्यवेक्षण करने में मदद कीऔर फिर मिस्र और इजरायल सैन्यबलों के बीच एक प्रतिरोधक के रूप में कार्य किया। यहां तक कि नेहरू ने 1960 में स्वेज में भारतीय सैनिकों द्वारा दौरा करने के लिए, स्वंय एक अवलोकन पोस्ट का दौरा किया था।
संयुक्त राष्ट्र के शांति व्यवस्था का उद्देश्य शांति बनाए रखना और उन संघर्षों में आने से बचना है,जिसने दुनिया को बहुत कष्ट दिए हैं। अपनी शुरुआती अभिव्यक्तियों में,यह पार्टियों के बीच दृढ़ता से निष्पक्ष था और केवल उनकी सहमति से तैनात किया गया था। शांति सैनिकों ने संघर्ष को कम करने के लिए लगभग पूरी तरह से अपनी उपस्थिति के माध्यम से शांति बनाए रखने में मदद कीजिसमें कि स्वंय के संघर्षों में शामिल होने का थोड़ा जोखिम मौजूद था।
भारत की राष्ट्रीय महत्वाकांक्षा और शांति स्थापना के शुरुआती लक्ष्यों के बीच यह बराबरी - यह समझाने में मदद करती है कि, पिछले 50 वर्षों में किसी भी देश ने ऐसा क्यों नहीं किया - जैसा कि पहले कहा गया था - संयुक्त राष्ट्र शांति स्थापना में अधिक योगदान दिया गया। भारत ने संयुक्त राष्ट्र के 69 शांति अभियानों में से 48 में भाग लिया है - जो कि किसी भी अन्य देश की तुलना में अधिक अनुपात में है। 1,80,000 से अधिक भारतीय सैनिकों ने शांति सैनिकों के रूप में काम किया है - फिर से यह आकडाँकिसी भी अन्य देश की तुलना में अधिक है। खासतौर से तब, जब भारत अपने ही क्षेत्र में आने वाली सुरक्षा चुनौतियों के मद्देनजर इन संख्याओं पर विचार विमर्श करते हुए अचरज में है।
हालांकि,संयुक्त राष्ट्र के प्रारंभिक मिशनों के बाद के दशकों में,शांति व्यवस्था काफी विकसित हुई है। संयुक्त राष्ट्र शांति सैनिकों को अधिक से अधिक अस्थिर स्थितियों में जहां विद्रोही समूह और सैनिक लड़ाई जारी रखते थे,अक्सर नागरिकों पर हमला करते थे,और कुछ उदाहरणों में शांति सैनिकों को निशाना बनाते थे, तैनात किया गया था। आज,दो-तिहाई शांतिकर्मी सक्रिय संघर्षों में काम करते हैं जो कि अब तक का उच्चतम प्रतिशत है।
इन संघर्षों की भयावहता का जायजा लेते हुए जहाँ, दक्षिणी सूडान में कक्षाओं से अपहरण करके किशोरों को युवा सैनिक बनने पर मजबूर किया गया, युद्ध की एक रणनीति के तौर पर कांगो लोकतांत्रिक गणराज्य में किशोरियों का व्यवस्थित रूप से बलात्कार किया गया, से यह महसूस होने लगता है और इसलिए मै समझ सकता हू कि कितने लोग इसे कमजोरी मान रहे हैं- जैसा कि शेक्सपियर ने टेम्पेस्ट में लिखा है, “नर्क खाली है और सभी शैतान यहाँ हैं”। ऐसी नारकीय स्थितियों में, यह बिना यह कहे आगे नहीं बढ़ा जाता है कि शांतिकर्मी अत्याचारों को सामान्य रूप से खड़े होकर अपने सामने होता नहीं देख सकते हैं।
इसके अलावा, शांति सैनिकों को आज,प्रारंभिक शांति सैनिकों की अपेक्षाओं से बहुत आगे, नई जिम्मेदारियों को लेने के लिए कहा गया है।प्रारंभिक नीले हेलमेट आज उनके उत्तराधिकारियों को दिए गए जनादेश को मान्यता नहीं देंगे, जिसमें सशस्त्र समूहों को शांत करना,मानवीय सहायता की सुरक्षित सेवा प्रदान करने की सुविधा,युद्ध अपराधों और अत्याचारों के अपराधियों को पकड़ने के प्रयासों का समर्थन करना और स्वयं उन अपराधों से नागरिकों की रक्षा करना शामिल है। इसी बीचबढ़ते हुए संकटों के कारण शांति की मांग बढ़ी है। वर्दीयुक्त कर्मियों की संख्या पंद्रह साल पहले कम से कम 20,000 से, दस साल पहले 50,000 और आज 100000 हो गई है। और इस संख्या में सोमालिया में अफ्रीकी संघ के संचालन में सेवारत 20,000 से अधिक शांति सैनिकों की गिनती शामिल भी नहीं है।
फिर भी शांति सैनिकों की बढ़ती मांग के बावजूद, उपलब्ध सैनिकों की आपूर्ति कम हो गई है। 1990 के दशक में बोस्निया और रवांडा में हुई एक-के-बाद एक तबाही ने शत्रुतापूर्ण स्थितियों में शांतिदूतों को तैनात करने के गंभीर परिणामों को उजागर किया,जो अस्पष्ट जनादेश के साथ न तो अधिकृत थे और न ही बल प्रयोग के लिए तैयार थे। इराक और अफगानिस्तान में हुए युद्धों और अन्य मिशनों द्वारा पश्चिमी देशों पर बढ़ती सैन्य मांगों ने समय के साथ एकत्रित किए गए इन अनुभवों ने कई पश्चिमी सेनाओं को संयुक्त राष्ट्र शांति व्यवस्था से बाहर निकलने के लिए कदम उठाने में मदद की। यूरोप और उत्तरी अमेरिका 20 साल पहले 50 प्रतिशत शांति सैनिकों के योगदान से इसमें शामिल हुए थे, जो आज 7 प्रतिशत रह गयाहै।
इसके परिणामस्वरूप,यहां तक कि उन परिस्थितियों के रूप में जहां शांतिरक्षकों ने काम किया, वे अधिक खतरनाक हो गईं और उन पर आरोपित मांगे अधिक जटिल हो गईं, जिससे निपटने के लिएसंयुक्त राष्ट्र के पास कम संसाधन उपलब्ध थे। एक आपूर्ति-संचालित बाजार में, संयुक्त राष्ट्र ने उन ताकतों का इस्तेमाल किया जो कई बहादुर और सक्षम थे, लेकिन कुछ ऐसे थे जो मिशनों के लिए सबसे उपयुक्त नहीं थे, उन्हें भी इस कार्य में लगाया गया। संयुक्त राष्ट्र ने अस्वस्थ के के ऊपर अपूर्ण स्वस्थ को चुना।
और शांति स्थापना में इस बदलाव के दौरान,भारत एक प्रमुख भूमिका अदारकर्ता बना रहा। जब 2000 के दशक के प्रारंभ में,संयुक्त राष्ट्र ने कांगो लोकतांत्रिक गणराज्य को एक नागरिक युद्ध में पुनःवापस जाने से रोकने के लिए यहांशांति सैनिकों को तैनात करने के लिए एक निवेदन जारी किया,तो भारत ने इसके प्रत्युत्तर में एक बड़ी तादात में मजबूत सैन्यबल भेजा और फिर पूर्वी कांगो की स्थिति को स्थिर करने के लिए इटुरी ब्रिगेड में योगदान दिया। भारत ने फिर पिछले साल 2005 में दारफुर, सूडान और 2007 मेंलाइबेरिया में फिर से इस प्रकार के निवेदनों के प्रति प्रत्युत्तर दिया। पिछले ही साल,जब इबोला का प्रकोप फैल गया था तो कुछ देशों ने अपने शांति सैनिकों को लाइबेरिया से बाहर निकाल दिया वहीं भारत ने महिला पुलिस गश्त के साथ अपनी पुलिस को वहीं पर तैनात रखा।
फिर भी भारी अस्थिरता के क्षेत्रों में शांति स्थापना के लिए समग्र बदलाव ने भारत के लिए और शांति स्थापना के लिए कई पारंपरिक योगदानों के लिए एक भविष्यवाणी की है। शांति सैनिकों को उन वातावरणों में जहां मेजबान सरकारें कमजोर थीं या जहां उन्होंने नीले हेलमेट के साथ केवल संयम से सहयोग किया था जहां कुछ दलों ने अपने हथियार नहीं डाले थे और जहां शांति सैनिकों के तेजी से संघर्ष में खींचे जाने के खतरे का जोखिम था, वहां सेना के योगदान का एक बड़ा हिस्सा देने के लिए कहा जा रहा था। इन परिवेशों में, “मानवता के बड़े कारण” की सेवा करने के लिए नेहरू का आह्वान जो उन्होंने कभी किया था, पर जीने की भारत की लंबे समय से चली आ रही प्रतिबद्धता, गैर-हस्तक्षेप की परंपरा के साथ तनाव में थी।
यह भविष्यवाणी - यह दुविधा, यह तनाव - वर्तमान संघर्षों में जमीन पर समकालीन शांति सैनिकों के लिए हर दिन बड़ी हो रही है। आजमैं उन तीन विधियों पर विचार साझा करना चाहता हूं जो हमे तनाव का सामना करने और शांति व्यवस्था को उस संस्था के करीब ला सकते हैं जिसकी भारत,संयुक्त राज्य अमेरिका और दुनिया को आवश्यकता है।
पहला, हम सब साथ मिलकर इन चुनौतियों की नई परिस्थितियों से अच्छी तरह से लड़ सकते हैं। और ऐसा करते हुए, मेरा मतलब है कि यह सुनिश्चित करने के लिए कि संयुक्त राष्ट्र शांति सेना में योगदान करने के लिए अधिक से अधिक देश अपना योगदान करें, बजाय कि इसे एक सीमित दायरे की सेनाओं के योगदानकर्ताओं पर छोड़कर। राष्ट्रपति ओबामा ने इसे अपनी शीर्ष प्राथमिकताओं में से एक बना दिया है, न केवल शांति में अमेरिका के योगदान को बढ़ाने के लिए - जिस पर मैं दुबारा बात करूंगी - बल्कि अन्य देशों को इस दिशा में काम करने के लिए अथक परिश्रम करने के लिए भी प्रेरित किया।
यह राष्ट्रपति ओबामा की गहरी सोच में निहित है कि अमेरिका संघर्षों और दूरस्थ स्थानों पर पीड़ित होने वाले लोगों से अपनी पीठ नहीं मोड़ सकता है। हमने बार-बार देखा है कि,कैसे इस तरह के टकराव लाखों लोगों को विस्थापित कर सकते हैं,बाजारों को समाप्त कर सकते हैंऔर सभी क्षेत्रों को अस्थिर कर सकते हैं। और हमने देखा है कि इन संघर्षों द्वारा पैदा हुई अस्थिरता अक्सर हिंसक चरमपंथी समूहों को कैसे आकर्षित करती है,जो नागरिकों को आतंकित करने, नए सदस्यों की भर्ती करने और हमलों की योजना बनाने और उनको कार्यान्वित करने के लिए प्राधिकरण की कमियों का दोहन करते हैं। यह ऐसा कुछ है जिसे भारत अच्छी तरह से अपने अनुभव भी जानता है। वास्तव में,पेरिस में पिछले सप्ताह हुए हमलों को देखते हुए,मुंबई में 2008 के हमलों की याद दिलाया जाना असंभव नहीं था। इसके अलावा,राष्ट्रपति ओबामा हमारी सीमाओं से परे दुख और अत्याचार को समाप्त करने में अमेरिका की गहन नैतिक हिस्सेदारी को मान्यता देते हैं, जैसा कि वे दक्षिण सूडान में सामूहिक बलात्कार या मध्य अफ्रीकी गणराज्य में नरसंहार के प्रति करते हैं।
यही कारण है कि संयुक्त राज्य अमेरिका अंतर्राष्ट्रीय शांति और सुरक्षा को आगे बढ़ाने के कार्य को स्वीकार करता है। संयुक्त राष्ट्र के शांति स्थापना में अमेरिका के मामूली सैन्य योगदान को भारत जैसे राष्ट्रों की तुलना में तटस्थ रखा जा सकता है जिसने साझा वैश्विक खतरों और अस्थिरता को दूर करने के हमारे व्यापक प्रयासों में बहुत कुछ दिया है, यह अफगानिस्तान राष्ट्रीय सरकार और लोगों की सहायता के लिए अफगानिस्तान के राष्ट्रीय सुरक्षा बलों के साथ काम करने वाले 10,000 अमेरिकी सैनिकों की तुलना में कहीं अधिक है।; अमेरिकी पुरूष और महिला सैनिकों के साथखतरनाक हिंसक चरमपंथी समूह आईएसआईएल को नष्ट करने के लिए गठबंधन करने में अग्रणी रहने से लेकर; अंतरराष्ट्रीय शांति और सुरक्षा के लिए हमारी प्रतिबद्धता के कुछ ही उदाहरणों को उजागर करने के लिए - लगभग 3,000 सैनिकों को हमने पिछले साल पश्चिमी अफ्रीका में तैनात किया था, जिन्होंने वहा इबोला के घातक प्रकोप को समाप्त करने में मदद की थी।
फिर भी,यह मानते हुए कि शांति सैनिकों - पारंपरिक शांति सैनिकों कानीले हेलमेट कोपहनना - अत्याचारों को रोकने और संघर्ष को कम करने में एक महत्वपूर्ण भूमिका है, राष्ट्रपति ओबामा ने शांति स्थापना के दौरान ही अमेरिका ने अपनी संलिप्तता से इन प्रयासों को पूरा किया है।
उन्होंने अफ्रीकी शांति सेना रैपिड रिस्पांस पार्टनरशिप के लिए तीन से पांच साल के लिए 110 अमेरिकी डॉलर प्रति वर्ष का प्रदान किये हैं, जो कि कुछ अग्रणी अफ्रीकी सेना टुकड़ियों को और गहरा करेंगे और पुलिस योगदानकर्ताओं को तैनात करेगें और उन्हें संकटों के लिए और अधिक तेज़ी से प्रतिक्रिया करने की सुविधा की स्थिति देगा। राष्ट्रपति ने संयुक्त राष्ट्र में शांति स्थापना के लिए अमेरिकी कर्मचारियों की तैनाती की संख्या को दोगुना कर दिया है जो संयुक्त राष्ट्र को हमारी हवाई और समुद्र-आधारित समर्थन के बेजोड़ नेटवर्क के लिएऔर इंजीनियरिंग परियोजनाओं को शुरू करने के लिए आमंत्रित करता है जहां इसकी तत्काल आवश्यकता है और हम मदद करने के लिए विशिष्ट रूप से तैयार हैं, में सहयोग प्रदान करने की राष्ट्रपति ने शपथ ली है। और उन्होंने आने वाले वर्षों के लिए संयुक्त राष्ट्र शांति कार्यों में हमारे समर्थन को विस्तारित व गहरा करने के लिए राष्ट्रपति के नये दिशानिर्देश जारी किए हैं - जो कि लगभग 20 वर्षों में पहला है। ये सब किसी भी अन्य देश की अपेक्षा शांति स्थापना में सबसे अधिक निवेश को जारी रखना है।
राष्ट्रपति ओबामा ने भी शांति के लिए नई प्रतिबद्धताओं को आगे ले जाने के लिए पिछले सितंबर में न्यूयॉर्क में संयुक्त राष्ट्र में विश्व नेताओं को आमंत्रित करते हुए शांति स्थापना में अपने योगदान को बढ़ाने के लिए दबाव डाला है। इस शिखर सम्मेलन ने अफ्रीका, एशिया, यूरोप और लैटिन अमेरिका में बैठकों के साथ एक वर्ष के लंबे वैश्विक प्रयास की परिणति को चिह्नित किया जिसका प्रारंभ पिछले संयुक्त राष्ट्र महासभा में उपराष्ट्रपति बिडेन द्वारा अंतर्राष्ट्रीय शांति और सुरक्षा में योगदान करने के लिए और देशों को योगदान देने के उद्देश्य से किया गया एक प्रयास था। संदेश यह था कि यदि अंतर्राष्ट्रीय समुदाय शांति स्थापित करना चाहता है,तो विश्व के नेताओं को इस बारे में केवल बात करने से भी अधिक कुछ करना था कि यह क्यों मायने रखता है, और बजाय इसके शांति व्यवस्था के स्थायी अंतराल को भरने के लिए ठोस प्रतिबद्धताओं का निर्माण करें।
इस सम्मेलन में सभी 50 देशों नें भाग लिया था। इन देशों में
इस शिखर सम्मेलन में कुल मिलाकर 50 देशों ने भाग लिया। उन देशों में प्रधान मंत्री मोदी के प्रतिनिधित्व में भारत शामिल था,साथ ही साथ बांग्लादेश,इथियोपिया,नेपाल,पाकिस्तान,और रवांडा जैसे अन्य शांति स्थापनाकर्ताओं नें भी अपनी ओर से पूर्व में किये जा रहे शीर्षतम व महत्वपूर्ण योगदान को आगे भी जारी रखने की घोषणा की थी।लेकिन,दशकों में पहली बार,ये प्रमुख शांति व्यवस्था वाले देश अकेले नहीं थे। मलेशिया ने महत्वपूर्ण पैदल सेना,पुलिस और इंजीनियरिंग क्षमताओं के योगदान की घोषणा की। फिनलैंड ने विशेष बलों सहित कई सैन्य इकाइयों को इस हेतु आरक्षित रखा। चिली ने हेलीकॉप्टर,अस्पताल और इंजीनियरिंग इकाइयों का योगदान देने की घोषणा की। कोलंबिया ने अगले कुछ वर्षों में कई पैदल सेना बटालियनों को तैनात करने की अपने इरादे की घोषणा की। और संकटों के समय तुरंत तैनाती के लिए तैयार रहने के लिए चीन ने घोषणा की कि वह एक महत्वपूर्ण आपातोपयोगी बल की स्थापना करेगा।
सभी ने बताया, दुनिया के हर हिस्से के नेताओं ने लगभग 12 अस्पतालों,15 इंजीनियरिंग कंपनियों,और 40 हेलीकॉप्टरों केसाथ ही 15 पुलिस इकाइयों और दो दर्जन से अधिक पैदल सेना बटालियनों को आरक्षित रखा। कुल मिलाकर, उन्होंने संयुक्त राष्ट्र शांति स्थापना के लिए लगभग 50,000 अतिरिक्त सैनिकों और पुलिस को उपलब्ध कराने के लिए प्रतिबद्धता प्रदर्शित की।
यदि देश इन योगदानों पर कार्य पूरा करते हैं - और हम संयुक्त राष्ट्र के साथ इस पर जोर देने के लिए शामिल होंगे कि ये देश ऐसा करें - तो शांति स्थापना को इसके प्रदर्शन को बेहतर करने के लिए तैनात किया जाएगा। संयुक्त राष्ट्र के पास हेलीकॉप्टरों से लेकर खुफिया, निगरानी और सैन्य इकाइयों तक - लंबे समय तक चलने वाले अंतराल को भरने की क्षमता होगी। यदि एक नया मिशन बनाया जाता है या मौजूदा का विस्तार किया जाता है,जैसा कि कभी-कभी होता है,तो संयुक्त राष्ट्र, सैनिकों और पुलिस को तेजी से कार्यक्षेत्र में लाने में सक्षम होगा। और भारत जैसे आढ़तियों के साथ जो शांति स्थापित करने के साथ तब बने हुए थे जब अन्य देश पीछे हट गए थे, शिखर सम्मेलन ने स्पष्ट संदेश भेजा कि दुनिया इस अपरिहार्य उद्यम में आपके साथ है।
अब,अगर पहली चुनौती शांति स्थापना में अधिक देशों के द्वारा अधिक योगदान किया जाना है तो दूसरी शांति स्थापनाकर्ताओं को यह सुनिश्चित करना है जो वे कर सकते हैं। हमे यह उम्मीद करनी चाहिए कि किसी विशेष मिशन में तैनात शांतिदूत उनको दी गई जिम्मेदारियों के प्रति पूर्णरूपेण समर्पित हैं और वे उन्हें सौंपे गए नियमों का पालन करते हुए संयुक्त राष्ट्र के नियमों का पालन करें।
मैं शुरू से कहता हूं कि जनादेश तैयार करने और नए सिरे से बनाने में,सुरक्षा परिषद,जैसा कि नलिन ने शुरुआत में कहा था,उन देशों के द्वारा वहन करने में बेहतर करना चाहिए जो शांति सैनिकों को अपने विचार प्रदान करने और अपनी कर्मियों के जमीनी अनुभव को साझा करने का एक सार्थक अवसर प्रदान करते हैं। उस दृष्टि से,मेरी टीम ने पहले से ही कुछ शांति अभियानों के जनादेश नवीकरण से पहले प्रमुख सैन्य-योगदान वाले देशों के साथ अनौपचारिक बैठकें करना प्रारंभ कर दी हैं। लेकिन,मैं मानता हूं कि सुरक्षा परिषद और योगदान करने वाले देशों के बीचपरामर्श के लिए ऐसा कोई बेहतर विकल्प नहीं हो सकता है,जिसका संयुक्त राज्य अमेरिका उत्साहपूर्वक स्वागत करेगा। और,निश्चित रूप से,मैं पुनः पुष्टि करता हूं कि हम संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में सुधार का समर्थन करते हैं जिसमें भारत एक स्थायी सदस्य के रूप में शामिल है।
एक बार शांति सैनिकों को मैदान में आने के बादउन्हें जारी किए गए जनादेश को पूरा करना होगा। हालांकि वे कभी-कभी संसाधनों की कमी या अपर्याप्त उपकरणों का सामना कर सकते हैं जो उनकी, अपने कर्तव्यों को पूरा करने की क्षमता में बाधा उत्पन्न करते हैं, वे संयुक्त राष्ट्र के जनादेश से पहले, अपनी स्वयं की वरीयताओं को नहीं रख सकते हैं। हमें यह भी उम्मीद करनी चाहिए कि अस्थिर स्थितियों में शांति रक्षक सुरक्षा परिषद द्वारा अधिकृत रूप में अपने जनादेश को आगे बढ़ाने के लिए स्वंय एवं नागरिकों की रक्षा करने के लिए बल का उपयोग करते हैं। यह आधुनिक विकास नहीं है। यहां तक कि शांति स्थापना के पारंपरिक सिद्धांत शांतिदूतों के विषय में कहते हैं कि वे आत्मरक्षा और “जनादेश की रक्षा हेतु”, जो कि, अपने कर्तव्यों के निर्वहन के लिए आवश्यक हो तो वे बल का उपयोग कर सकते हैं। तथा आज यह शांति बनाये रखने के मिशनों के लिए अनिवार्यताओं के लिए आवश्यक है।
इसे 1960 में नए स्वतंत्र हुए राष्ट्र कांगो में घटित हुई किसी घटना पर उदाहरण के तौर पर लिया जा सकता है। यह संयुक्त राष्ट्र के पहले शांति अभियानों में से एक था। और देश में बेल्जियम की स्थायी उपस्थिति पर विवाद,जैसा कि आप सभी जानते हैं, नेकुछ के द्वारा हथियार उठाने जाने का नेतृत्व किया था। इसके प्रत्युत्तर में संयुक्त राष्ट्र ने 20,000 से अधिक शांति सैनिकों को तैनात किया, जिनमें से हजारों भारत से थे।
हालांकि, यह पांच दशक से भी अधिक समय पहले की बात है,भारत के स्थायी प्रतिनिधि,कृष्ण मेनन की स्थिति,अपने सैनिकों की भूमिका पर असमान थी। जिन लोगों ने तर्क दिया कि शांति रक्षक केवल अपने बचाव के लिए बल का उपयोग कर सकते हैं,मेनन ने कहा किउन पर सीधा हमला होने की स्थिति में “आत्मरक्षा” का उद्देश्य शांति सैनिकों को केवल बल का उपयोग करने के लिए सीमित करना नहीं था।
इसके बजाय,उन्होंने कहा, “आत्मरक्षा से तात्पर्य किसी द्वारा की गई वह कार्रवाईजो संयुक्त राष्ट्र मिशन के उद्देश्यों और एक आदेशित सरकार की साधारण अवधारणा के खिलाफ है”। अपने टेढेपन के साथ,मेनन ने कहा, “अगर यहां पर बल प्रयोग का कोई प्रश्न नहीं था, तो....सुरक्षा परिषद ने 20,000 सशस्त्र सैनिक कांगो क्यों भेजे? वे कोई एक प्रतियोगिता खेलने नहीं जा रहे थे। यदि बल का उपयोग करने का विचार नहीं था,तो इंजीनियर,वैज्ञानिक,पादरी और प्रचारक चले गए होते ... संयुक्त राष्ट्र ने स्वंय को शायद सैन्य शक्ति के माध्यम से प्रस्तुत किया था”।
अब मुझे यह स्पष्ट करने दीजिए, क्योंकि चारों तरफ इससे जुड़ी कुछ भ्रांति हैः इस बात पर जोरदार बहस है कि क्या संयुक्त राष्ट्र शांति सैनिकों को शांति के लिए खतरों को कम करने के लिए कभी-कभी आक्रामक सैन्य अभियान करना चाहिए।
यह वही है जो नागरिकों के खिलाफ व्यापक अत्याचार करने वाले सशस्त्र समूहों से संघर्ष के लिए कांगो लोकतांत्रिक गणराज्य में, फोर्स इंटरवेंशन ब्रिगेड करने के लिए अनिवार्य है। लेकिन संयुक्त राष्ट्र शांति स्थापना में आक्रामक अभियानों के लिए बल का उपयोग बहुत ही कम रहा है, लेकिन आम नागरिकों की सुरक्षा जैसे प्रमुख कार्यों को करने के दौरान बल का उपयोग नहीं किया जा सकता है।
और यह भारत एवं बांग्लादेश के विशेषज्ञों से मिलकर शांति संचालन पर बने 16 विशेषज्ञों से समाहित उच्च-स्तरीय संयुक्त राष्ट्र महासचिव के स्तर के पैनल का निष्कर्ष था। उन्होंने इसके साथ समाप्त किया कि “ जब निशस्त्रीकरण की रणनीतियां असफल हो जाती हैं तो......और नागरिक अवश्यमंभावी जोखिम के नीचे होते हैं तो, बल का प्रयोग करने की क्षमता व दिशा-निर्देश के साथ शांति स्थापना आपरेशनों को वे जहां भी तैनात हो वहाँ पर शस्त्रों के हमले से नागरिकों की रक्षा करना उनका दायित्व है”। उन्होंने इसके साथ कहा कि, “वास्तव में बल का प्रयोग आवश्यक नहीं होगा यदि संभावित हमलावर ये मान लें और जान लें कि संयुक्त राष्ट्र सेनाओं के पास हमले की स्थिति में बल के साथ स्थिति से निपटने की क्षमता और निश्चय है”। दूसरे शब्दों में,यदि, शांति रक्षक लगातार बल का उपयोग करते हैं जब परिस्थितियां मांग करती हैं तो उनको इसका प्रायः कृतज्ञता से नहीं, अधिक नहीं, संभवतः कम उपयोग करना होगा। और प्रतिलोम भी सत्य है। जब शांतिरक्षक स्वयं का बचाव करने या नागरिकों की रक्षा करने के लिए बल का उपयोग करने में विफल होते हैं, तो वे तुरंत न केवल आसपास के शांति सैनिकों और समुदायों को खतरे में डालते हैं बल्कि वे शांति मिशनों की विश्वसनीयता और वैधता को भी हर जगह कमज़ोर करते हैं औरयह संदेश प्रसारित भी करते हैं कि शांति रक्षक तथाजिसअंतर्राष्ट्रीय समुदाय का वे प्रतिनिधित्व करते हैं, उन्हें धमकाया जा सकता है या उन्हें अनदेखा किया जा सकता है।
संयुक्त राष्ट्र के शांति सैनिकों को अपने जनादेश को पूरा करने के लिए रक्षात्मक रूप से बल का उपयोग करते हुए कभी-कभी “मजबूत” शांति सेना के रूप में जाना जाता है, लेकिन यह एक मिथ्या नाम है। इसके बजाय, इसे केवल “शांति व्यवस्था” कहा जाना चाहिए, क्योंकि जरूरत पड़ने पर बल के बिना शांतिरक्षकों के लिए अस्थिर वातावरण में अपनी मुख्य जिम्मेदारियों को पूरा करना असंभव है।
जब शांति सैनिक संयुक्त राष्ट्र शांति मिशन को फिर से शुरू करने के लिए महत्वपूर्ण खाद्य सामग्री के काफिले के लिए सुरक्षा प्रदान कर रहे हैं,और उन पर सशस्त्र आतंकवादियों का हमला हो जाता है - जैसा कि पिछले साल अप्रैल में दक्षिण सूडान में नील नदी के एक भाग में हुआ था तो हमे यह उम्मीद करनी चाहिए कि वे हमले का प्रतिरोध करेंगे। और ठीक वैसा ही नेपाली शांति सैनिकों ने किया था - घायलों को कवर करने के लिए नौकाओं में सवार कर नागरिकों को ले गये, घायलों के लिए जीवन रक्षक सहायता का समन्वय किया और उनके पीछे आने वाले हमलावरों को पीछे हटाने के लिए जवाबी कार्रवाई शुरू की।
जब सशस्त्र विद्रोही एक ऐसे शहर की ओर आगे बढ़ते हैं जहां संयुक्त राष्ट्र के शांति सैनिक मौजूद होते हैं - जैसा कि गोमा में अक्टूबर 2008 में हुआ था तो उस स्थिति में हमें शांति सैनिकों से अपने मोर्चे पर डटे रहने और वहां रहने वाले नागरिकों की रक्षा करने की उम्मीद करनी चाहिए। और ठीक ऐसा ही भारतीय शांति सैनिकों ने किया – जिन्होंने विद्रोहियों को तोपखाने और हमलावर हेलीकाप्टरों से उलझायाऔर उन्हें पीछे हटने के लिए मजबूर किया।
दुर्भाग्यवश, ये उदाहरण नियम की अपेक्षा अपवाद अधिक हैं। पिछले साल मार्च में संयुक्त राष्ट्र के आंतरिक निरीक्षण कार्यालय की एक रिपोर्ट में पाया गया कि 2010 से 2013 के दौरान नागरिकों के खिलाफ हुए 507 हमलों में, शांति सैनिकों ने वास्तव में कभी भी हमले के अंतर्गत आने वाले लोगों की सुरक्षा के लिए कभी भी बल का उपयोग नहीं किया। इसके परिणामस्वरूप हजारों नागरिकों की जान चली गई। और वास्तव में उदाहरण के तौर पर शांति रक्षकों की अपनी अशिष्ट जिम्मेदारियों को पूरा नहीं करने के उदाहरण, जैसे कि जब उनके डेरे से केवल पांच मील दूर के नागरिक जोखिम के नीचे आते हैं और मदद के लिए पुकारते हैं,जिनमें से दर्जनों, उस घटना में जिनकी हत्या हो गई थीः या एक ऐसे शहर से पीछे हटना जिसमें आतंकवादियों से संपर्क करने की बजाय उनका सामना करने के लिए बल का उपयोग करना आधारित हैं।
यह जारी नहीं रह सकता है, विशेषरूप से शांति स्थापना के संस्थान के लिए और निसंदेहात्मक रूप से उन लोगों के लिए भी नहीं जिन्हें नीले हैलमेट सुरक्षा के लिए प्रदान किए गए हैं। और यह सुखद समाचार है कि इस ओर सहमति बढ रही है कि आधुनिक शांतिस्थापना किस प्रकार की दिखती है।
रवांडा नें मई में न केवल अपने अनुभव पर निश्चित रूप से एक अग्रणी सैन्य-योगदानकर्ता देश के रूप में ध्यान आकर्षित किया, लेकिन जैसा कि देश ने यह भी देखा कि जब संयुक्त राष्ट्र के शांति सैनिक नागरिकों की रक्षा नहीं करते हैं तो उस स्थिति में उदाहरण के लिए,नरसंहार की इस घटना मेंरवांडा ने इस बढ़ती आम सहमति और मिशन में नागरिकों की सुरक्षा के लिए सर्वोत्तम प्रथाओं के एक क्षेत्र में सीखे गए सबक को देखा।
उदाहरण के लिए,ये “किगली सिद्धांत” जो एक सैन्य टुकड़ी के सैन्य कमांडर को बल का उपयोग करने के लिए एक पूर्व-सैनिक अधिकार देने के लिए सैनिक-योगदान करने वाले देशों के लिए कॉल करते हैं - क्योंकि अगर किसी कमांडर को अनुमति लेने के लिए वापस राजधानी जाना पड़ता है, तो इसका मतलब यह नहीं हो सकता है कि वे किसी निकटवर्ती गाँव पर तेज़-तर्रार हमला कर मार भगाने के लिए समय पर प्रतिक्रिया करने में सक्षम नहीं है।
कुछ ही महीनों के अंतराल में,सैन्य योगदान करने वाले देशों के एक विविध समूह ने “किगली सिद्धांत” का समर्थन किया है,जिसमें बांग्लादेश,इथियोपिया,श्रीलंका,युगांडा और उरुग्वे शामिल हैं। पहले से ही,संयुक्त राष्ट्र और एयू के शांति अभियानों में वर्तमान में सेवारत सभी सैनिकों में से एक-तिहाई ऐसे देशों से आते हैं जो “किगली सिद्धांत” के अनुरूप हैं - और यह अनुपात बढ़ रहा है। हमें इन सिद्धांतों को बेंचमार्क के एक ब्लूप्रिंट के रूप में नहीं देखना चाहिए, बल्कि शांति के लिए नए खाके के रूप में और विशेष रूप से पैदल सेनाको अस्थिर स्थितियों में तैनात करना चाहिए।
यह बढ़ती सर्वसम्मति,सितंबर शिखर सम्मेलन में घोषित नए योगदानों के साथ,शांति प्रभाव को बदल सकती है जो क्षेत्र में शांति स्थापित करने वालों के पास उपलब्ध हैं। अतीत में, सैनिकों और पुलिस की कम आपूर्ति का मतलब था कि न तो संयुक्त राष्ट्र और न ही शांति के लिए बडे भाग में योगदान करने वाले देश मिशनों में महत्वपूर्ण अंतर को छोड़े बिना चयनात्मक हो सकते थे। हालांकि,50,000 अतिरिक्त सैनिकों और पुलिस को हमें यह सुनिश्चित करने की अनुमति देनी चाहिए कि मिशन क्या मांग करते हैं और कौन से सैनिक और पुलिस तैयार हैं और करने में सक्षम हैं। सेना- और पुलिस का योगदान करने वाले देश जिनके पास आदेशों के साथ योग्यता है, या उनकी क्षमता के बारे में संदेह है कि उनसे क्या पूछा जाता है, उन्हें अब केवल मिशनों के लिए तैनात करने में दबाव महसूस नहीं करना चाहिए, क्योंकि कोई और नहीं होगा।
देशों को किसी विशेष मिशन पर तैनात करने का निर्णय लेने में उनके तुलनात्मक लाभ पर विचार करना चाहिए। चिकित्सा,इंजीनियरिंग,इंटेलिजेंस और विमानन क्षमताओं सहित सक्षम करने वाली इकाइयाँ - पैदल बटालियनों की तरह प्रत्येक पक्ष महत्वपूर्ण हो सकती हैं।
इस संबंध में,हम सितंबर के शिखर सम्मेलन में प्रधान मंत्री मोदी की घोषणा से विशेष रूप से प्रोत्साहित हुए हैं,जिसमें उन्होंने घोषणा की कि अपने अन्य सभी योगदानों के अलावासंचार की मजबूती के लिए भारत एक अतिरिक्त अस्पताल,इंजीनियरिंग कंपनी तथा एक और कंपनी प्रदान करेगा।
अपने भाग के लिए,संयुक्त राष्ट्र को क्षेत्र में मौजूद सैनिकों और पुलिस की निगरानी और मूल्यांकन को मजबूत करने के लिए नेतृत्व का प्रदर्शन करना चाहिए। और हम इकाइयों के आवधिक आकलन की एक प्रणाली स्थापित करने के लिए संयुक्त राष्ट्र के प्रयासों का पुरजोर समर्थन करते हैं। जब खराब प्रदर्शन उचित प्रशिक्षण और सुसज्जित होने की कमी से परिणत होता है तो हमें समय के साथ उन क्षमताओं का निर्माण करने में मदद करनी चाहिए। जब यह कदाचार का मामला हो तो,आदेशों का पालन करने से मना करना,या अनिवार्य कार्यों को लागू करने में विफलता की स्थिति मेंसंयुक्त राष्ट्र को जिम्मेदार पक्षों को वापस लेने के लिए तैयार रहना चाहिए।
अब,नए वातावरण को चुनौती देने में शांति सैनिकों की सफलता की तीसरी कुंजी उनकी वैधता और विश्वास,और स्थानीय आबादी का भरोसे और विश्वास बनाए रखना है। इसलिए, मै स्पष्ट तौर पर बताती हूं कि: शांति सैनिकों को नागरिकों का दुरुपयोग नहीं करना चाहिए। शांतिवादियों द्वारा यौन शोषण और दुर्व्यवहार के एक के बाद एक आरोपों से दुनिया पूरी तरह से बीमार और नाराज हो गई है।
यहां विडंबना यह है कि यह बहुत दुखद है क्योंकि यह उन लोगों के लिए भरोसेमंद है जो रक्षक बनने के अपराधी हैं। इस साल अगस्त में एक कथित घटना में, एक 12 वर्षीय लड़की ने कहा कि वह मध्य अफ्रीकी गणराज्य की राजधानी बानगुई में अपने घर के बाथरूम में छिपी हुई थी – जब प्रत्येक घर की तलाशी का संचालन करते हुए संयुक्त राष्ट्र के पुलिस अधिकारी वहां आए थे। लड़की के अनुसार - जिसके मामले को यूनिसेफ द्वारा प्रलेखित और निरूपित किया गया है - एक नीली हेलमेट पहने एक व्यक्ति और संयुक्त राष्ट्र शांति रक्षक ने उसे खोजा और उसे बाथरूम से बाहर खींच लिया।“जब मैं रोयी”,लड़की ने कहा, “उसने मुझे जोरदार थप्पड़ मारा और अपना हाथ मेरे मुंह पर रख दिया”।
उसने कहा, वह आदमी उसे बाहर आँगन में ले गया, उसे टटोला और उसके कपड़े फाड़ दिए। उसने कहा, फिर “उसने मुझे जमीन पर फेंक दिया और मेरे ऊपर लेट गया”।
यह एक अलग-थलग आरोप नहीं है। अगस्त में यह बताया गया कि मेडेकिन्स सेन्स फ्रंटियरेस ने मध्य अफ्रीकी में चार नाबालिगों का इलाज किया था,जिसमें एक 12वर्षीय लड़की भी शामिल थी,जिसने संयुक्त राष्ट्र शांति सेना द्वारा यौन शोषण की सूचना दी थी। जून में, 16साल से कम उम्र की दो लड़कियों ने कहा कि उन्हें संयुक्त राष्ट्र के एक सैनिक के साथ सेक्स के बदले में भोजन और अन्य जरूरी सामान मिले हैं। और अभी पिछले सप्ताह,मध्य अफ्रीकी गणराज्य में नए आरोप सामने आए है,जहां 14और 17साल की उम्र के बीच की तीन लड़कियों - जो कि सहमति की न्यूनतम आयु से कम है - ने एक रिपोर्टर को बताया कि उन्होंने महीनों पहले संयुक्त राष्ट्र शांति सैनिकों के साथ सेक्स किया था।
यौन शोषण और प्रताडना का किसी भी समाज में कोई स्थान नहीं है। लेकिन यह विशेष रूप से तब घृणित है जब यह लोगों द्वारा संयुक्त राष्ट्र में समुदायों के भरोसे और विश्वास का लाभ उठाते हैं।
संयुक्त राष्ट्र के आंतरिक निरीक्षण निकाय द्वारा इस साल जारी की गई एक रिपोर्ट के अनुसार,2008 से 2013 के दौरान शांति सैनिकों द्वारा कथित यौन शोषण के एक तिहाई से अधिक मामलों मेंपीड़ित बच्चे थे। और ये केवल वे आरोप हैं जिनके बारे में हम जानते हैं। इसे रोकना होगा।
हम इस संबंध में ऐसे अपराधों के संबंध में शून्य-सहिष्णुता नीति के कार्यान्वयन को मजबूत करने के लिए संयुक्त राष्ट्र महासचिव बान की मून के प्रयासों की सराहना करते हैं कि - रिपोर्टिंग और जवाबदेही उपायों से,कुछ मामलों की जांच के लिए एक तत्काल प्रतिक्रिया टीम स्थापित करने का वादा किया गया है।
लेकिन हम सदस्य देशों को भी अपनी भूमिका अदा करनी चाहिए। हम जानते हैं कि हम शांति स्थापनाकर्ताओं और अपने समाजों में, उस मामले के लिए यौन शोषण और दुर्व्यवहार को पूरी तरह से समाप्त नहीं कर पाएंगे। और हम जानते हैं कि यौन शोषण और दुर्व्यवहार करने वालों को दंडित करना - चाहे दोषी नागरिक हों या सुरक्षा बलों के सदस्य - एक जटिल कार्य हो सकता हैं। अमेरिकी सेना ने समस्या का समाधान करने और पीड़ितों की सहायता करने के लिए महत्वपूर्ण प्रयासों के बावजूद, खुद ही लंबे समय तक इन मुद्दों को लेकर चुनौतियों का सामना किया है। एक बहुपक्षीय बल में हाइब्रिड श्रृंखला की कमान के साथ काम करना - जैसा कि शांतिरक्षक करते हैं - इस प्रक्रिया को बहुत अधिक चुनौतीपूर्ण बनाता है। और हम यह पूरी तरह से समझते हैं।
लेकिन उसी प्रतीक के द्वारा,हम इन अपराधों को अशुद्धता के साथ जारी नहीं रहने देंगे - जवाबदेही आवश्यक है। पुलिस और सैनिकों सरकारों ने कथित तौर पर कहा कि यौन शोषण और दुर्व्यवहार से जुड़े अपराधों की इन आरोपों के बारे में पता चलते ही त्वरित,गहन और निष्पक्ष आपराधिक जांच करनी चाहिए। और ऐसे अपराध करने वालों को उचित रूप से दंडित किया जाना चाहिए। यदि सेना-योगदान देने वाले देश में इस प्रकार की व्यावसायिक जांच और अभियोग चलाने की क्षमता का अभाव है - जैसा कि कुछ लोग कहते हैं तो संयुक्त राज्य अमेरिका उस क्षमता का निर्माण करने के लिए आवश्यक समर्थन ढूंढने में मदद करने के लिए तैयार है।
सरकारों को यौन शोषण और दुर्व्यवहार की अपनी जाँच पर संयुक्त राष्ट्र को वापस रिपोर्ट करना होगा। संयुक्त राष्ट्र और उसके सदस्य देशों को यह जानने की जरूरत है कि नीले हेलमेट पहनने के विशेषाधिकार का हनन करने के आरोपी सैनिकों और पुलिस की उपयुक्त जांच की जाती है और जहां उचित हो, दंडित किया जाता है। पीड़ितों और उनके समुदायों को यह जानना होगा कि न्याय दिया जा रहा है।
दुर्भाग्यवश, वर्तमान प्रणाली की अपारदर्शिता इस बात की सटीक जानकारी प्राप्त करना असंभव बना देती है कि क्या जांच को इन आरोपों में भी उजागर किया गया है। यह अशुद्धता की एक विधि है: यदि हम नहीं जानते हैं कि क्या दुर्व्यवहार की जांच की जा रही है, तो हम एक पूर्ण-सहिष्णुता नीति को लागू नहीं कर सकते हैं। दूसरे पहलू के अनुसार,यदि यौन शोषण और दुर्व्यवहार करने वाले शांति सैनिकों को दृढ़ता से दंडित किया जाता है, तो अन्य लोग इस तरह के अपराध करने के बारे में दो बार सोचते हैं। और अगर पीड़ित देखते हैं कि भयानक दुर्व्यवहार करने वाले शांति सैनिकों को जवाबदेह ठहराया जाता है,तो उनके आगे आने की संभावना शायद ही हो सकती है।
सितंबर में शिखर सम्मेलन में घोषित नए योगदान संयुक्त राष्ट्र को इस जवाबदेही के प्रयास के लिए अधिक से अधिक आग्रह लाने की अनुमति देते हैं। संयुक्त राष्ट्र को अनुपालन का आकलन करने की जरूरत है। और यह किसी भी देश को जो यौन शोषण और दुर्व्यवहार के आरोपों की जाँच करने और मुकदमा चलाने को गंभीरता से नहीं लेता है तो उस देश को शांति व्यवस्था से निलंबित करने की आवश्यकता है।
शांति अभियानों में 91,000 सैनिकों और 13,000 पुलिस का विशाल बहुमत सम्मानजनक रूप से काम करता है। वे यौन दुर्व्यवहार नहीं करते हैं औरन ही वे इससे आंखें मूंदतें हैं। और अधिकांश योगदानकर्ता देश इन अपराधों को अंजाम देने वाले अपनी सेनाओं के सैनिकों और पुलिस पर मुकदमा चलाने के प्रति गंभीर हैं। लेकिन यौन शोषण और दुर्व्यवहार के ये आरोप सभी शांति सैनिकों को कलंकित करते हैं। और यही कारण है कि सभी सदस्य देशों की इस गंभीर समस्या को दूर करने में हिस्सेदारी है।
अब मुझे समाप्त करने दीजिए
इससे पहले मैंने संयुक्त राष्ट्र में भारत के स्थायी प्रतिनिधि,राजदूत मेनन द्वारा अमिट हस्तक्षेप की बात की थी,जिसमें हाल ही में कांगो के लिए शांति स्थापित करने वाले मिशन की तैनाती के बारे में संयुक्त राष्ट्र महासभा की 1960की बैठक हुई थी। जैसा कि आप याद करेंगे, मेनन ने तर्क दिया कि शांति सैनिकों की जिम्मेदारी थी कि वे न केवल खुद का बचाव करें, बल्कि “मिशन के उद्देश्यों” के लिए जोखिमों से बचाव करें।
मेनन के उन शब्दों को बोलने के लगभग एक साल बाद,कैप्टन गुरबचन सिंह सलारिया - उस मिशन में सेवा करने वाले हजारों भारतीयों में से एक - ने सशस्त्र विद्रोहियों द्वारा संचालित एक सड़क अवरोध को हटाने के लिए एक ऑपरेशन की योजना बनाई। अपना हमला शुरू करने के कुछ ही समय बाद,सलारिया और उनके लोगों ने घात लगाकर भारी गोलाबारी की। सलारिया ने महसूस किया कि अगर वह नर्मी से काम नहीं करता है,तो उसकी कमान के अंतर्गत हर व्यक्ति - साथ ही स्वीडिश और भारतीय शांति सैनिकों को दूसरी दिशा से हमला कर - संभवतः घेर लिया जाएगा और मार दिया जाएगा। हालांकि, बहुत अधिक संख्या में मौजूद,सलारिया ने अपने लोगों को दुश्मन की बेहतर स्थिति के लिए चार्ज किया।
स्वचालित फायर से गर्दन में चोट लगने के बाद भी उन्होंने सशस्त्र विद्रोहियों को मारते हुए लड़ना जारी रखा। भारतीयों की बहादुरी के कारण,विद्रोही संख्या में अधिक होने के बावजूद अपने स्थान से भाग गए। उनके भाग जाने के कुछ समय बाद ही सलारिया की उनकी घावों के कारण मृत्यु हो गई। उन्हें मरणोपरांत भारत के सर्वोच्च सैन्य सम्मान से सम्मानित किया गया,जो परमवीर चक्र प्राप्त करने वाले देश के इतिहास में केवल 21 में से एकप्राप्तकर्ता थे। और सलारिया सिर्फ उन 161भारतीयों में से एक हैं जिन्होंने दुनिया भर के शांति अभियानों में अपना जीवन दिया है।
सलारिया की कहानी उन जोखिमों की कड़वी याद दिलाती है जो हम शांति सैनिकों को उठाने के लिए कहते हैं। और यह स्पष्ट करता है कि,जैसा कि हम शांति सैनिकों को और अधिक खतरनाक स्थानों में करने के लिए कहते हैं, हमें उनके समर्थन के लिए और अधिक करना चाहिए।
हमें त्वरित रूप से चिकित्सा निकासी से लेकर आपातकालीन देखभाल के उच्च मानकों तक वर्दीयुक्त कर्मियों के लिए चिकित्सा सहायता में तत्काल सुधार करना चाहिए। हमें वर्दीयुक्त कर्मियों की सुरक्षा और संरक्षा में अधिक निवेश करना चाहिए,जिसमें यह सुनिश्चित करना भी शामिल है कि उनके पास अमानवीय वातावरण में सेवा करने के लिए आवश्यक उपकरण और प्रशिक्षण हो। और हमें उन लोगों को पकड़ने में और अच्छा करना चाहिए जो अपने अपराधों के लिए शांति सैनिकों पर हमला करते हैं।
लेकिन सलारिया की कहानी हमें इस तथ्य की भी याद दिलाती है कि, जब दुनिया भर में लोग खुद को अस्थिरता या हिंसा की हताश परिस्थितियों में पाते हैं तो वे अभी भी उनकी सुरक्षा के लिए नीले हेलमेट की तलाश करते हैं। यही कारण है कि,पिछले सप्ताह ही, जैसा कि बुरूंडी में हिंसा के आसन्न विस्फोट के संकेत मिले तो शांतिदूतों को तैनात करने के लिए बुस्र्ंदियों की एक बड़ी संख्या आगे बढ़ी ताकि इस तरह के किसी भी प्रकोप को रोकने में मदद मिल सके।
कारण बहुत आसान है: लोग अभी भी शांति व्यवस्था में विश्वास करते हैं। और वे बड़े हिस्से में शांति स्थापित करने में विश्वास करते हैं,क्योंकि कई वर्षों में और कई मिशनों में,कैप्टन सलारिया जैसे पुरुषों और महिलाओं ने जोखिम उठाया है और कुछ उदाहरणों में अनेक कमजोर लोगों की रक्षा के लिए अपने जीवन का बलिदान किया है। यह विश्वास कुछ ऐसा है जिसे हमें संरक्षित करने के लिए लड़ना चाहिए।
शांति के सामने आने वाली चुनौतियाँ इस प्रकार हैं,“नर्क खाली है, और सभी शैतान यहीं हैं”,फिर से, यह ऐसा लगता है कि ये चुनौतियाँ अचूक नहीं हैं। अगर हम इस प्रयास को, एक साथ साझेदारी में समझते हैं तो, यह हमारीक्षमताओं का निर्माण करते हैं, जो हमें संयुक्त राष्ट्र शांति व्यवस्था और अंतर्राष्ट्रीय शांति और सुरक्षा को बढ़ावा देने के लिए अन्य साझा प्रयासों को मजबूत करने की अनुमति देगा;यदि हम जोर देते हैं कि हमारे द्वारा तैनात शांति सैनिक तैयार हैं और उन्हें सौंपे गए जनादेश को पूरा करने में सक्षम हैं;और अगर हम शांति स्थापित करने वाले उन लोगों के खिलाफ अपमानजनक गालियां देते हैं,जिनकी मदद के लिए हमें भेजा गया है तो हम संस्था की वैधता की रक्षा करते हैं और पारदर्शिता की कमी को दूर करते हैं, हम उस उद्यम में शांति स्थापित कर सकते हैं जिसकी मांग आज का संघर्ष करता है, और दुनिया के लोग इसके लिए तरस रहे हैं। यह हासिल करना हमारी पहुंच के भीतर से कहीं ज्यादा नजदीक है। अवसर को पकड़ना हम पर है।
धन्यवाद।
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