जापान और रूस एक ऐसी शांति संधि पर हस्ताक्षर करने के लिए जबरदस्त प्रयास कर रहे हैं जो दूसरे विश्व युद्ध के बाद से लेकर अब तक दोनों देशों के बीच रुकी हुई है । दोनों देशों ने 8 फरवरी 2014 को सोची, रूस में शीतकालीन ओलंपिक उदघाटन समारोह के दौरान इस लक्ष्य को प्राप्त करने का प्रयास किया जहां जापानी प्रधानमंत्री शिंजों आबे और रूसी राष्ट्रपति व्लादामीर पुतिन ने शांति संधि से संबंधित लंबित दीर्घकालिक मुद्दे सहित द्विपक्षीय विभिन्न मुद्दों की बाबत परिचर्चा की । अपने शासनकाल के दूसरे दौर में आबे रूस के साथ संबंध मजबूत करने के लिए और अधिक सक्रिय होने के साथ-साथ क्षेत्रीय समस्याओं को दूर करने के लिए दृढ़ संकल्प रहे । उन्होंने ओलंपिक समारोह में जापान का प्रतिनिधित्व किया । अमेरिका सहित जापान के पश्चिमी मित्रों ने रूस में ओलंपिक खेलों का इसलिए बहिष्कार किया था क्योंकि रूस में मानव अधिकारों का हनन होने के साथ-साथ समलैंगिक विरोधी कानून लागू किया गया था । जापानी विश्लेषकों का मानना है कि आबे ने अमेरिकी तर्ज पर चलने से इंकार कर दिया क्योंकि वह इस अवसर पर रूस के साथ अपने संबंधों को मजबूत करना चाहते थे । सोची में पुतिन के साथ आबे की बैठक 1 वर्ष के भीतर दोनों नेताओं के बीच होने वाली पांचवी बैठक थी ।
सोची में बैठक आयोजित होने के बाद दोनों देशों के बीच दीर्घकालिक लंबित क्षेत्रीय विवाद का मुद्दा सामने रखते हुए पुतिन ने बेहतर वातावरण उत्पन्न करने की आवश्यकता पर ज़ोर दिया ताकि द्विपक्षीय संबंधों में सर्वाधिक मुश्किल समस्या का समाधान करने में मदद मिल सके । आबे ने भी इस अनुक्रम में दुष्कर समस्याओं का हवाला देते हुए यथाशीघ्र शांति संधि करने की घोषणा की । उल्लेखनीय है कि जापान पिछले दशकों से रूस में कुरीले द्वीप समूह के नाम से विदित होकेडो के तट पर स्थित द्वीप समूह की बाबत रूस के साथ शांति संधि करने का प्रयास करता रहा है । सोची में बैठक के दौरान आबे ने अक्टूबर 2014 में पुतिन को जापान आने का निमंत्रण दिया । जापानी मीडिया के अनुसार दोनों देशों के द्वारा यह वक्तव्य दिया गया है कि जापान में रूसी नेता के दौरे के दौरान शांति संधि पर हस्ताक्षर हो सकते हैं तथापि यदि जापान क्षेत्रीय मामले को सुलझाए बिना शांति संधि पर हस्ताक्षर करना चाहता है तो यह उसके पूर्ववर्ती मंतव्य से हटना माना जाएगा ।
अतीत में दोनों देशों के पूर्ववर्ती नेताओं द्वारा निरंतर प्रयास किए जाने और क्षेत्रीय समस्या का समाधान करने के लिए पारस्परिक बातचीत करने के बावजूद कोई सार्थक परिणाम नहीं निकला क्योंकि जापान और रूस निरंतर अपने मंतव्य पर अडिग रहे । जापान का मानना है कि शिकोतोन, हाबोमई, ईटोरोफू और कुनाशीरी नाम के चार द्वीपों पर रूस ने गैरकानूनी कब्जा कर रखा है जबकि रूस का कहना है कि जापान अन्य देशों की भांति दूसरे विश्व युद्ध के नतीजों को स्वीकार कर ले । रूस के इस मंतव्य को मैडविडेव प्रशासन द्वारा पुनः दोहराया गया जिसका जापान ने यह अर्थ लिया कि मास्को इस मामले पर कोई बातचीत नहीं करना चाहता है तथापि पुतिन द्वारा दिए गए इशारे से यह पता चलता है कि रूस 1956 में किए गए प्रस्ताव के अनुसार जापान को दो द्वीप वापस कर देगा और अन्य दो अपने पास रखेगा ।
जापान राष्ट्रवादी क्षेत्रीय मुद्दे पर रूस के साथ कोई भी समझौता नहीं करना चाहता है । जापानी सरकार ने जापान के भीतर सशक्त राष्ट्रवादी भावनाओं को दृष्टिगत रखते हुए रूस द्वारा प्रस्तुत 1956 के प्रस्ताव पर विचार नहीं किया है । पिछले कुछ वर्षों के दौरान जापान में एक नई विचारधारा सामने आई है जिसके तहत जापानियों के एक वर्ग ने सरकार से कहा है कि वह दो द्वीप और उसके साथ कुछ और के आधार पर मामले को निपटा ले । इस विचारधारा का समर्थन पूर्व जापानी प्रधानमंत्री यूकियों हाथोयामा ने भी किया है । पूर्व जापानी प्रधानमंत्री यो शिरोमोरी जिन्हें पूर्ववर्ती सरकार ने रूस के साथ क्षेत्रीय मुद्दे पर बातचीत करने के लिए विशेष दूत के रूप में भेजा था, का भी मानना था कि जापान को रूस के साथ इस मामले को निपटा देना चाहिए यदि वह जापान के निकट वाले पहले तीन द्वीपों को वापस करने के लिए सहमत हो । जापान द्वारा 2+कुछ और पर मामले को इसलिए भी सामने रखा गया था कि रूस द्वारा वापस किए जाने वाले दो द्वीपों का कुल क्षेत्रफल कुल क्षेत्रफल का केवल 7% हिस्सा है । जैसे ही पुतिन दूसरी बार राष्ट्रपति बने वैसे ही उन्होंने जापान के साथ हिकीवाके पर अपनी सहमति व्यक्त की (हिकीवाके का अर्थ है जूडो में ड्रा करना) इसलिए रूस और जापान के साथ ड्रा ऐसा होना चाहिए जिससे जापान को कम से कम विवादास्पद क्षेत्र का आधा हिस्सा मिल जाए ।
कई ऐसे कारक हैं जिससे दोनों देश अपनी पूर्ववर्ती स्थितियों का जायजा लेने के लिए मजबूर हैं । रूस विदेशी निवेश के जरिए विवादास्पद क्षेत्र के साथ अपनी सुदूर पूर्व की नीति को मजबूत करना चाहता है । पूर्व में जापान में रूस द्वारा इस द्वीपसमूह के विकासार्थ अंतर्राष्ट्रीय बोली में हिस्सा लेने पर यह दावा करते हुए आपत्ति की थी कि इस बोली से क्षेत्र में जापान की संप्रभुता का उल्लंघन होगा । जापान ने कहा कि दोनों देशों के बीच परस्पर निर्धारित निपटान से ही रूस के ये प्रयास फलीभूत होंगे कि वह इस क्षेत्र का अवसंरचनात्मक विकास करे, दूसरे उसकी प्राकृतिक गैस की कम मांग होने तथा शाले गैस जैसे अपेक्षाकृत सस्ते ऊर्जा स्रोतों में प्रतिस्पर्द्धा से रूस यूरोप के बजाय अन्य मंडियों की खोज में है । फुकुशिया के बाद जापान में एलएनजी की मांग बहुत बढ़ गई है क्योंकि अधिकांश नाभिकीय रिएक्टर ऑफलाइन रहते हैं । रूस की नजरें जापान की ऊर्जा मंडी पर टिकी हुई हैं ताकि वह वहां से अपने एलएनजी की कम मांग की क्षतिपूर्ति कर सके । इस संबंध में आर्थिक मजबूरियों के अलावा मानवीय पक्ष भी एक मुद्दा है । इन द्वीपों के पूर्व निवासी जो दूसरे विश्व युद्ध के दौरान 1945 में इन चारों द्वीपों को छोडकर चले गए थे और रूस ने वहां पर अपना प्रशासनिक नियंत्रण स्थापित कर दिया था वे इन द्वीपों में वापस आने की मांग कर रहे हैं ताकि वे अपने घर आने के दीर्घकालिक सपने को साकार कर सकें । इस वर्ष भी पुतिन से आबे की बैठक होने से एक दिन पहले 7 फरवरी को उन्होंने होकेडो में रैली करके जापानी सरकार से मांग की कि वे इस समस्या का समाधान करने के लिए रूस से पुनः बातचीत करे ।
रूस में आबे ने कहा कि क्षेत्रीय विवाद का मामला अगली पीढ़ी पर नहीं छोड़ना चाहिए । क्षेत्रीय, राजनीतिक और रणनीतिक मजबूरियों ने भी राष्ट्रवादी नेता आबे को रूस से संबंध स्थापित करने के लिए प्रेरित किया । आबे मास्को के साथ कूटनीतिज्ञ मामलों में बंधना चाहते हैं क्योंकि उनके दो पड़ोसी दक्षिण कोरिया और चीन ने जापान के साथ अपनी राजनीतिक बातचीत को इसलिए स्थगित कर दिया है क्योंकि वह इतिहास पर आबे की गिद्ध दृष्टि से चिंतित हैं । जापान में आबे की इस वजह से भी आलोचना की गई क्योंकि वह चीन में यासूकुनी मठ पर गए थे । जापनी मीडिया के एक वर्ग ने चिंता व्यक्त करते हुए तर्क दिया कि इतिहास की बाबत उनका मंतव्य जापान की कूटनीति को प्रभावित कर सकता है जिसके कारण देश कूटनीतिक आधार पर अलग-थलग हो जाएगा । रूस के साथ सभी कूटनीतिक रास्ते खुले रखने के कारण आबे ने उन आलोचनाओं की अपेक्षा कर दी जो क्षेत्रीय देशों के अलग होने के कारण की गई है ।
हालांकि दोनों देशों में क्षेत्रीय मुद्दों पर समझौता करने की बाबत लोग समान्यतः झुकने के लिए तैयार नहीं हैं, इसलिए बेहतर होगा कि वे इस मंतव्य पर अपने रवैये को नरम करते हुए अपने-अपने नेताओं के निर्णय को मन लें । प्रधानमंत्री आबे को आशा थी कि जापानी उनके प्रयासों की सराहना करेंगे । उन्होंने रूस से वापस लौटने के बाद जापानी डाइट को बताया कि नेताओं के लिए यह बात बहुत महत्वपूर्ण होती है कि वे विचारों का आदान-प्रदान करते हुए एकजुटता दिखाने के साथ-साथ यह स्पष्ट करें कि क्षेत्रीय मुद्दों पर उनके द्वारा लिया गया निर्णय अंतिम है ।
जापानी और रूसी नेताओं के बीच बार-बार होने वाली बैठकों से यह आशा उत्पन्न हुई कि दोनों देशों के बीच लंबे समय से लंबित समस्या का समाधान हो जाएगा । यदि उन्होंने निरंतर बातचीत जारी रखी तो वे निश्चित ही इस समस्या का समाधान कर लेंगे । क्षेत्रीय विवाद का समाधान होने से वहां की शांति और सुरक्षा पर सकारात्मक प्रभाव पड़ेगा क्योंकि पूर्वोत्तर एशिया में क्षेत्रीय विवादों से संबंधित कई ऐसे मामले हैं जिनका अभी तक समाधान नहीं हुआ ।
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* डॉ. शमशाद ए. खान, भारतीय विश्व मामले परिषद, नई दिल्ली में अध्येता हैं
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