नौ माह पूर्व मिश्र के लोकतांत्रिक निर्वाचित राष्ट्रपति मोहम्मद मोर्सी को हटाए जाने के बाद से, सेना-समर्थित सरकार ने मुस्लिम भ्रातृत्व (एमबीएच) के विरुद्ध अपने नृशंस अभियान को और भी गहन कर दिया। सरकार के तथाकथित 'आतंकवाद के विरुद्ध युद्ध' का आशय मुबारक-उपरांत युग में देश के सर्वाधिक सुदृढ़ इस्लाम-राजनीतिक संगठन की आवाज को दबाना था जिसने अरब विश्व में एक नई दोषपूर्ण व्यवस्था का सृजन कर दिया।
इस्लाम समर्थकों के चारों ओर घेराबंदी कड़ी होने के बाद प्रतिबंधित एमबीएच के हजारों सदस्यों को जेलों में ठूस दिया गया अथवा उन पर अनेक आरोप मढ़ दिए गए और उनके विरुद्ध मुकदमे चलाए जाने लगे जिसमें जासूसी करने राज्य के विरुद्ध आतंकवादी हमलों की योजना बनाने के आरोप शामिल थे। मिश्र के सबसे बड़े इस्लामी समूह के 1200 से अधिक समर्थकों और सदस्यों को पिछले माह मौत की सजा सुनाई गई।
इस्लाम समर्थकों के विरुद्ध राज्य द्वारा निर्बाध रूप से की गई आक्रामक कार्यवाही ने अन्य अरब देशों के लिए भी एक खराब उदाहरण निर्धारित किया जहां इस्लाम समर्थकों पर राज्य द्वारा अत्याचार किए जा रहे थे जबकि अन्य इस्लाम समूह काली सूची में डाले गए थे अथवा उन्हें आतंकवादी संगठनों के रूप में अभिहित किया गया था।
इस्लाम समर्थकों के विरुद्ध ऐसे घृणाप्रद अभियान ने क्षेत्र में एक नई दोषपूर्ण व्यवस्था का सृजन कर दिया जिसने उसे इस्लाम-समर्थक और इस्माल-विरोधी धड़ों में विभाजित कर दिया। इसने यह भी प्रतिबिंबित किया कि किस प्रकार क्षेत्र में उठती हुई इस्लाम ताकतों के विरुद्ध नए गठबंधनों का उदय हो रहा है। उदाहरण के लिए, सउदी अरब और यूएई ने अपने-अपने संबंधित देशों में अन्य इस्लाम समूहों के साथ-साथ एबीएच पर भी प्रतिबंध लगा दिया था।
एक सउदी शाही डिक्री ने एमबीएच को एक आतंकवादी संगठन घोषित किया, जिनमें लेवेंट क्षेत्र में सउदी अरब के हिजबुल्ला, 'इराक और सीरिया में इस्लामिक स्टेट', यमन में हौथी आंदोलन' तथा 'नुरश आंदोलन' को भी शामिल कर लिया गया। संयुक्त अरब अमीरात ने सउदी कदम का समर्थन किया तथा इन संगठनों पर समान प्रतिबंध लगाए। कदम ने न केवल सउदी अरब और यूएई के भागों पर इस इस्लाम सेनाओं और इस्लाम-विरोधी शासनों के बीच विरोध के नए मार्ग खोल दिए बल्कि साथ-ही-साथ क्षेत्र में एक नए रणनीतिक संघर्ष का सृजन भी किया।
सउदी डिग्री प्रतिबंधित समूहों के क्रियाकलापों और विचारधाराओं के साथ किसी भी प्रकार के सहयोजन अथवा सहयोग को प्रतिबंधित करती है। नए कानून के अंतर्गत इस्लाम-समर्थक साहित्य को अपने पास रखना आपराधिक कृत्य माना जाएगा तथा इस्लामी कार्यकर्ताओं के प्रति एकजुटता प्रदर्शित करने मात्र से ही कारागार में डाल दिया जाएगा। इसके अलावा, प्रतिबंधित समूहों के साथ किसी भी प्रकार के सहयोग का अर्थ राष्ट्र के प्रति व्यक्ति की निष्ठा का उल्लंघन माना जाएगा।
यह मुद्दा इन समूहों पर प्रतिबंध लगाने मात्र के बारे में ही नहीं है बल्कि जो बात अधिक चौंकाने वाली है, वह इन कार्यवाहियों के लिए निर्दिष्ट दंड की मात्रा और परिमाण है। इस्लाम सक्रियवाद के अनेक रूपों के मध्य विभेद निर्धारित करने के स्थान पर, सउदी अरब ने न्यूनीकरण दृष्टिकोण का चयन किया और सभी इस्लाम समूहों को एक साथ मिला दिया।
देश में न्यूनीकरण दृष्टिकोण का क्रियान्वयन करते हुए सउदी अरब ने प्रादेशिक दृष्टि से अत्यंत चयनकारी प्रवृत्ति के साथ कार्यवाही की और उसने लेबनान और सीरिया के हिजुबल्ला को भी पीछे छोड़ दिया जिसने ईरान की विदेश नीति के एक प्रमुख मोर्चे के रूप में कार्य किया था। ऐसा करते हुए सउदी अरब स्पष्ट रूप से क्षेत्र में नए गठबंधन और भावी मार्ग को तैयार करने का प्रयास कर रहा था जहां तेहरान और रियाद अपने संबंधित प्रभावों में विस्तार करने के लिए संयुक्त उद्यम स्थापित करेंगे।
सउदी शाही डिक्री ने न केवल इस्लामवाद को प्रतिबंधित किया बल्कि एमबीएच तथा क्षेत्र में अन्य समान ताकतों को समर्थन प्रदान करने के लिए कतर की भी भर्त्सना की। कतर पर यमन में हौथी आंदोलन को सहायता प्रदान करने का आरोप लगाया गया है जो सउदी रणनीतिक हित के उपयुक्त नहीं पाया गया। एक आश्चर्यजनक राजनयिक कदम में, सउदी अरब ने यूएई और बहरीन के साथ मार्च के आरंभ में कतर से अपने राजदूतों को वापस बुला लिया और उस पर 'एकीकृत भाग्य' के सिद्धांतों का उल्लंघन करने का आरोप लगाया।
इसी प्रकार, सउदी अरब कतर के विरुद्ध अनेक कदम उठाने की श्रृंखला पर विचार कर रहा है जैसे हवाई प्रतिबंध, सउदी अरब में कतर एयरवेज के लाइसेंस को रोकना, कतरवासियों को अपने भू-भाग में प्रवेश करने से वर्जित करना, सभी वाणिज्यिक व्यापारों को समाप्त करना जिसमें 2006 के बाद से सभी व्यापार करारों को रोकना भी शामिल है।
सउदी अरब और कुवैत के साथ नवम्बर, 2013 में हस्तांतरित त्रिपक्षीय करार का उल्लंघन करने के लिए कतर की निंदा की गई है। इस करार में निर्धारित किया गया था कि समस्त खाड़ी सहयोग परिषद (जीसीसी) सदस्य एक-दूसरे के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप नहीं करेंगे, अस्थिर बनाने वाली ताकतों का समर्थन नहीं करेंगे तथा भड़काऊ मीडिया को काबू में रखेंगे। अस्थिरकारी ताकतों तथा भड़काऊ मीडिया को क्रमश: एमबीएच और अल-जजीरा माना गया जो कतर से सहायता प्राप्त कर रहे हैं। सउदी सरकार की मुख्य समस्या सउदी अबर में कतर द्वारा किया जा रहा प्रत्यक्ष हस्तक्षेप है। कतर को भी अल-जजीरा उपग्रह चैनल को सहयोग करने के लिए पृथक कर दिया गया है क्योंकि यह क्षेत्र में एमबीएच के दृष्टिकोण का समर्थन करने वाले विचार प्रसारित करता रहा है।
दोहा द्वारा एमबीएच को दिए जा रहे निरंतर सहयोग की चर्चा अत्यंत तेजी से फैल गई जिसके फलस्वरूप द्विपक्षीय संबंधों में पर्याप्त गिरावट आई। यह स्मरणीय है कि कतर ने सउदी अरब के नेतृत्व वाले धड़े के दृष्टिकोण के विरुद्ध मिश्र की सेना के प्रति एक अपवादस्वरूप रुख अपनाया था जब इसने मिश्र में जुलाई में हुए विद्रोह में एमबीएच सरकार को अपदस्थ कर दिया था। कतर ने मोर्सी को छद्म सहयोग की पेशकश की और लाखों डॉलर देने का वचन दिया। कतर की सहायता का प्रतिरोध करने के लिए सउदी अरब, कुवैत और यूएई ने मिश्र को 15 बिलियन यूएस डॉलर देने का वायदा किया और सेना-समर्थित मिश्र की सरकार को कतर को 2 बिलियन यूएस डॉलर लौटाने के लिए विवश किया। सउदी-समर्थक धड़े और कतर के बीच तनाव कतर की धरती पर प्रख्यात इस्लाम धर्मानुयायी यूसुफ कर्जावी की उपस्थिति से और भी उग्र हो गया जिसने एमबीचएच को सहायता प्रदान करने का कोई मौका नहीं छोड़ा था। मिश्र में हाल ही में आयोजित उच्च स्तरीय इस्लाम शिखर-सम्मेलन में कतर और तुर्की की अनुपस्थिति को क्षेत्र में इस्लाम-समर्थक और इस्लाम-विरोधी धड़ों के बीच बढ़ते हुए वैमनस्य के परिप्रेक्ष्य में भी देखा जा सकता है।
क्षेत्र में प्रमुख देशों के मध्य प्रतिद्वंद्विता का इतिहास रहा है परंतु इस समय अरब अभ्युदय-उपरांत अवस्था में इस्लाम का उदय नवीन प्रतिद्वंद्वी देशों के लिए काफी आक्रामक बन गया था। प्रतिद्वंद्विता की बदलती और विस्तारित होते स्वरुप को ध्यान में रखते हुए, यह प्रतीत होता था कि एमबीएच प्रधानता के साथ आगे आएगा और प्रादेशिक देशों की विदेश नीति को तैयार करने में उल्लेखनीय रूप से कार्य करेगा।
कतर और सउदी नेतृत्व वाले धड़े के बीच चल रहे राजनयिक विरोध के तत्काल परिणाम का पूर्वानुमान लगाना कठिन है परंतु इससे क्षेत्र में अरब-विरोधी देशों को शामिल करते हुए एक तिर्यक गठबंधन की संभावना भी है, जैसे तुर्की और ईरान। इस्लाम-समर्थकों का निष्कासन से सभी ओर प्रभावित करने वाली कठोर प्रतिक्रिया के उत्पन्न होने की संभावना है। इसके अलावा, क्षेत्र के इस सौम्य विभाजन की लोकतंत्र की वर्तमान राजनीतिक प्रगति को प्रभावित करने की भी संभावना है तथा यह लोगों की लोकतांत्रिक आकांक्षाओं की पूर्ति भी नहीं करेगा।
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*फ़ज़्ज़ूर रहमान सिद्दीकी, भारतीय विश्व मामले परिषद, नई दिल्ली में अध्येता हैं
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