विश्व की छह शक्तियों तथा ईरान के बीच इसके परमाणु कार्यक्रम को नियंत्रित करने के लिए सहमत हुआ और 20 जनवरी, 2014 को प्रवृत्त हुआ परमाणु सौदा ठीक प्रकार से कार्य कर रहा है। नवीनतम घटनाक्रमों में शामिल है अपने अराक भारी जल रिएक्टर को पुर्ननिर्मित करने का इरान का प्रस्ताव जो सौदे में शामिल अनेक विवादास्पद मुद्दों में से एक का समाधान करने के प्रति ईरान द्वारा उठाया गया सकारात्मक कदम था। ईरान ने भी यह घोषणा की कि वह अपने पूर्व परमाणु क्रियाकलापों का विस्तृत लेखा-जोखा तैयार कर रहा है। यह ईरान द्वारा उठाए जाने के लिए अपेक्षित पारदर्शिता के उपायों का भाग था। आईएईए, जिसे ईरान के अनुपालन का सत्यापन करने का उत्तरदायित्व सौंपा गया है, ने भी सकारात्मक रिपोर्ट दी है और कहा है कि अब तक ईरान अपने परमाणु कार्यक्रमों को नियंत्रित करने के लिए सहमत किए गए कदम उठा रहा है। ईरान के सकारात्मक कदमों पर प्रतिक्रिया करते हुए अमेरिका ने ईरान की जब्त की आस्तियों का निर्गम प्रारंभ कर दिया है। सर्वाधिक महत्वपूर्ण बात यह है कि न्यूयार्क को 5-9 मई 2014 को आयोजित की जाने वाली विशेषज्ञ-स्तर वार्ताओं के आगामी चक्र के आयोजन स्थल के रूप में चुना गया है। तथ्य यह है कि यह अनेक दशकों में ऐसा पहली बार होगा कि ऐसी वार्ताएं अमेरिकी जमीन पर होंगी जो इस प्रत्याशित समझौते के महत्व को उजागर करता है।
जहां तक ईरान का संबंध है, निरंतर समाप्त होते आर्थिक प्रतिबंध तथा तुलनात्मक दृष्टि से उदारवादी हसन रूहानी का राष्ट्रपति के पद पर निरंतर पुन: निर्वाचन इस सौदे को स्वीकार करने की इसकी तैयारी का वर्णन करते हैं। एक दशक पुरानी ईरानी परमाणु समस्याओं का एक सावधानीपूर्वक किया गया विश्लेषण यह दर्शाता है कि गतिरोध मुख्य रूप से अमेरिका की ईरान को शामिल न करने की नीति के कारण विद्यमान था। अब ओबामा ने ईरान को अपने साथ रखने का निर्णय लिया है तथा यह इस गतिरोध को दूर करने के लिए तर्काधार ढूंढने के लिए उपयोगी होगा।
हम यह तर्क दे सकते हैं कि ईरान को शामिल करने वाली अमेरिकी नीति ओबामा द्वारा उसके नोबल शांति पुरस्कार को औचित्यपूर्ण ठहराने के प्रयास का ही परिणाम है। अन्यथा वह अपने ही कांग्रेस सहयोगियों का विरोध करते हुए इतना आगे नहीं बढ़ा होता जब उन्होंने ईरान के विरुद्ध एक नया प्रतिबंध विधेयक पारित करने की धमकी दी थी। कांग्रेस में ऐसे विरोध भरे स्वरों का सामना करना के लिए व्हाइट हाउस ने परमाणु सौदे की तकनीकी विवरणों का एक सार्वजनिक सारांश तैयार किया जिसमें उसकी क्रियान्वयन योजना के कुछ भाग को प्रकट किया गया। अन्य कारण एक कमजोर होती हुई शक्ति के रूप में अमेरिका की लोकप्रिय होती छवि को सौम्य बनाने से संबंधित हो सकता है, जिसे ईरान-अमेरिकी अलगाव ने और भी जटिल बना दिया था। किसी प्राचीन समस्या का समाधान करना, यहां तक कि अपने दीर्घकालिक मित्र-राष्ट्रों जैसे इजराइल और सउदी अरब की नाराजगी की कीमत पर अति-आवश्यक छवि-निर्माण के लिए सहायक सिद्ध हो सकता है।
फिर भी एक अन्य कारण यह हो सकता है कि ओबामा अब इस बात से आश्वस्त है कि ईरान परमाणु बम का निर्माण करने के प्रति गंभीर नहीं है, जैसी कि यह पहले प्राय: घोषणा किया करता था। अन्यथा परमाणु सौदा ईरान की रेड लाइन अर्थात् यूरेनियम समृद्ध होने के अधिकार का कभी भी सम्मान नहीं करता। जबकि इनमें से, किसी भी कारण को सिरे से इंकार नहीं किया जा सकता है, एक तुलनात्मक रूप से अधिक युक्तियुक्त स्पष्टीकरण मध्य-पूर्व में विद्यमान परिस्थिति से संबधित हो सकता है जहां अमेरिका वर्तमान में अनेक चुनौतियों का सामना कर रहा है। पिछले कुछ वर्षों से मध्य-पर्व निरंतर अस्त-व्यवस्तता की स्थिति में है तथा इसके साथ अनेक ऐसे मुद्दे जुड़े हुए हैं जिन्हें ईरान को पृथक करने की अमेरिकी पूर्व-नीति के माध्यम से प्रभावशाली रूप से हल किया जा सकता है। यह बात संयोग नहीं है कि ईरान का परमाणु सौदा एक ऐसे समय पर आया है जब पश्चिमी शक्तियां सीरियाई समस्या का समाधान तलाशने के लिए वार्तालाप के कड़े प्रयास कर रही है। यह सौदा ऐसे समय पर भी आया है जब नाटो सेनाएं अफगानिस्तान से हटने वाली हैं तथा अमेरिका ईराक में अपने लाभ का विचार कर रहा है, यदि कोई होता है। इसी प्रकार, यह निश्चित तौर पर संयोग नहीं हो सकता है कि यह सौदा एक ऐसे समय पर किया गया है जब ओबामा को अपनी वर्णित 'एशिया का केन्द्र-बिंदु' नीति पर ध्यान देने की अत्यधिक आवश्यकता है, जिसमें वह तब तक प्रगति नहीं कर सकता है, जब तक मध्य-पूर्व की समस्याएं समाप्त न हो जाएं।
फिर भी, वार्ताकार पक्षकारों के अलावा कोई भी वास्तव में यह नहीं जानता है कि बंद कमरों के पीछे क्या बातचीत हुई है। जहां तक सीरिया का संबंध है रूस ने कथित रूप से किसी भी गुप्त करार से इंकार किया है। इसी प्रकार अमेरिका ने भी किसी गुप्त करार में शामिल होने से इंकार किया है। इन इंकारों के बावजूद, वार्तालापों के दौरान परमाणु सौदे को अन्य मध्य-पूर्व मुद्दों के साथ जोड़ने की संभावना से पूरी तरह से इंकार नहीं किया जा सकता है। जिस तरीके से ईरान सौदे के लिए जोर दे रहा है तथा इसका वर्णन अपने घरेलू क्षेत्रों में कर रहा है, यह दर्शाता है कि इसे अब आत्मविश्वास प्राप्त हो गया है। क्या इससे यह पता चलता है कि इस सौदे में कुछ तो ऐसा है जो पलड़े को ईरान के पक्ष में झुकाता है? यदि ऐसा है तो यह खाड़ी क्षेत्र में ईरान की निर्दिष्ट भूमिका की स्वीकरोक्ति हो सकती है।
यह वर्णन करना कठिन नहीं होगा कि किस प्रकार ईरान सीरियाई समस्या के लिए कोई समाधान ढूंढने में निर्माणात्मक भूमिका निभा सकता है। इसी प्रकार, यह अफगानिस्तान और ईराक में स्थायित्व लाने के लिए भी निर्माणात्मक भूमिका का निर्वहन कर सकता है। यदि अमेरिका आश्वस्त है कि इन समस्याओं का हल ईरान की सहायता से आसानी के साथ किया जा सकता है, तो किसी भी धड़े से आने वाला विरोध, चाहे वह आंतरिक हो जैसे कांग्रेस से अथवा बाह्य हो जैसे सउदी अरब और इजराइल, महत्व नहीं रखता है। और यदि ऐसा है, तो ईरान का परमाणु सौदा अमेरिका की वर्तमान मध्य-पूर्व उलझन को हल करने के लिए एक उपकरण साबित हो सकता है। और कम-से-म यह एक ऐसा कदम तो है जिसका ईरान के साथ परमाणु सौदा करने से पूर्व ओबामा ने आकलन तो अवश्य किया होगा।
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*डॉ. आसिफ शूजा, भारतीय विश्व मामले परिषद, नई दिल्ली में अध्येता हैं
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