पाकिस्तान 1956 से 1971, 1977 से 1988 तक और फिर 1999 से 2008 तक सैन्य शासन के अधीन रहा है। एक प्रेइटोरियन (अर्थात सेनाशासित प्रिय) देश के रूप में,पाकिस्तान में सेना को राजनीतिक निर्णय लेने में प्रमुख आधार के रूप में देखा जाता है, जहां असैनिक राजनीतिक संरचना को अस्थिरता, भ्रष्टाचार और अनिर्णयन से जोड़ा जाता है।तथापि, पाकिस्तान की राजनीति में पहली बार एक लोकतांत्रिक सरकार बनी जिसने लगातार दो कार्यकाल पूरे किए, लेकिन तब भी सेना पीछे से राजनीतिक निर्णय लेने की भूमिका में रहती थी। पाकिस्तान सेना अभी भी विदेश नीति बनाने में निर्णय लेने के मामले में प्रमुख भूमिका निभाती है, जो उसे समर्थन देने वाले विभिन्न खुफिया तंत्रों के साथ काम करती है।
यद्यपि किसी भी सेना से एक अनुशासित संगठन और तटस्थता बनाएरखने की अपेक्षा की जातीहै, लेकिन पाकिस्तानी सेना इस्लाम के नाम पर और राजनीतिक रूप से प्रेरित है। पाकिस्तान की सेना की खुद की आर्थिक अर्जन कार्यपद्धतियां हैं जो अपने प्रशासनिक और नौकरशाही ढांचे के भीतर लोकतांत्रिक निर्णयकर्ताओंकी शक्तियों पर नजर बनाए रखती है और साथ ही उनकी नीतियों और कार्यों के अनुसार उनकी गतिविधियों में समन्वय करती है। इस प्रकार की स्थिति पाकिस्तानी सेनाध्यक्ष (सीओएएस) की भूमिका को विदेशी नीतियों के साथ-साथ घरेलू नीतियां बनाने में निर्णय लेने की प्रक्रिया में एक अत्यंत महत्वपूर्ण और प्रभावशाली स्थान उपलब्ध कराती है।
पाकिस्तान की सेना के इतिहास में, बहुत कम सेना जनरलों को उस प्रकार का भव्य सम्मान मिला जैसा कि 30 नवंबर, 2016 को सेनाध्यक्ष के पद से सेवानिवृत्त होने के दौरान जनरल राहील शरीफ को प्राप्त हुआ था। राहील शरीफ ने सभी अटकलों को विराम देते हुएसेवानिवृत्त होने का निर्णय लिया। उन्होंने मौजूदा असैनिक सरकार को हटाने, या क्षेत्रीय सुरक्षा गठबंधनों का नेतृत्व करने, जो उन्हें पेश किया गया था, में कोई दिलचस्पी नहीं ली। इस तरह की कार्रवाई ने पाकिस्तान सेना के प्रति आम जनता के बीच सम्मान की भावना को फिर से बढ़ाया, जो पिछले एक दशक में लगातार गिर रही थी।
इसके कारण उन्हें दसवें पाकिस्तानी सेनाध्यक्ष (सीओएसएस) की नियुक्ति प्राप्त हुई। इस पद को 1972 में जनरल टिक्का खान के कार्यकाल में जुल्फीकार अलीभुट्टो के प्रधानमंत्री कार्यकाल में सृजित किया गया था। इससे पहले इस पद को पाकिस्तान सेना में कमांडर इन चीफ के रूप में जाना जाता था। 1947-1951 तक इस पद पर दो ब्रिटिश जनरलों ने कार्य किया।बाद में, चार पाकिस्तानी सैन्य जनरलों ने इस पद पर कार्य किया। एक सैन्यशासन प्रिय राष्ट्र के रूप में, पाकिस्तानी सेना की भूमिका देश की घरेलू और बाहरी नीति बनाने में निर्णायक रहती है। अधिकांश पूर्व कमांडर इन चीफ या सीओएएस या तो मुख्यधारा की राजनीति में शामिल हो गए, या कुछ विभिन्न प्रांतों के गवर्नर बन गए और कुछ ने राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार और राजनयिक के रूप में कार्य किया। कुछ को तत्कालीन परिस्थितियों के कारण उनके पद से अनौपचारिक रूप से हटा दिया गया और कुछ पर भ्रष्टाचार का मुकदमा चलाया गया यादेश सेनिर्वासित किया गया या हत्या कर दी गई। केवल जनरल अब्दुल वहीदकाकर और जनरल कयानी ने अपनी सेवानिवृत्ति के बाद सार्वजनिक जीवन से दूर रहने का विकल्प चुना।
अगर पाकिस्तान सेना के अतीत पर दृष्टिपात करते हैं तो यह स्पष्ट होता है किजनरल अशफाक परवेज कयानी, जिन्होंने तत्कालीन राष्ट्रपति और देश के राष्ट्राध्यक्ष, जनरल परवेज मुशर्रफ से पदभार लेते हुए,6 अक्टूबर, 2007 को सेनाध्यक्ष (सीओएएस) का पद ग्रहण किया था, दो कार्यकालों के साथ छह साल तक पदासीन रहे, जो कि एकमात्र चार सितारा जनरल हैं जिनकी पूर्ण कार्यावधि बढ़़ाई गई थी। जनरल कयानी के बारे में प्रारंभ में ऐसी अटकलें लगाई जा रही थीं कि उन्हें सेना प्रमुख के रूप में पद छोड़ने के बाद एक नए टाइटल के साथ अधिक शक्तिशाली ज्वांइट चीफ ऑफ स्टाफ कमेटी (जेसीएससी) के प्रमुख के रूप में नवगठित पद पर सेना प्रमुख के रूप में बने रहने की पेशकश की जाएगी। पाकिस्तानी सुरक्षा विश्लेषकों द्वारा यह स्पष्ट किया गया था कि पीएम शरीफ जेसीएससी, जो एक बड़े रुतबे का कार्यालय है, को एक "केंद्रीय रक्षा निकाय" के रूप में बदलेंगे जिसका पूरे सैन्य प्रतिष्ठान पर पूरा नियंत्रण होगा तथा परमाणु शस्त्रागार के प्रभार सहित उसेअतिरिक्त शक्तियां दी जाएंगी।
जनरल राहील शरीफ का चयन उनके उत्तराधिकारी के रूप में असैनिक नेतृत्व के लिए एक चुनौतीपूर्ण कदम था,क्योंकि जनरल राशदमुहम्मद, जो कयानी गुट के करीब थे, को जनरल तारिक खान, जो अमेरिका में पाकिस्तानी लॉबी के करीबी थे, और जनरल कयानी के बाद तत्कालीन सबसे वरिष्ठ अधिकारी जनरल हारूनसलाम के साथ जनरल कयानी का संभावित उत्तराधिकारी माना जाता था। लेकिन जनरल कयानी ने सामान्य परंपरा को तोड़ते हुए बिना किसी विशेष नामित पदों को ग्रहण करने के बजाय सेवानिवृत्ति ली और यहां तक कि तत्कालीन मौजूदा अफवाहों की भी आलोचना की, जो उनके पावर में कुछ नए तरीके से बने रहने के कयास लगा रहे थे। बताया गया कि जनरल शरीफ को उपरोक्त नामों के आलोक में चुना जाना असैनिक नेतृत्व के लिए एक चुनौती भरा काम था, क्योंकि जनरल शरीफ को 'सेना प्रमुख की दौड़ में एक बाहरी रैंक अर्थात ‘करियर इन्फेंट्री ऑफिसर’ का व्यक्ति' माना जाता था। विश्लेषकों की मानें तो जनरल शरीफ के बारे में कहा जाता था कि उनमें राजनीतिक महत्वाकांक्षा नहीं है, इसलिए इस कारण ने उन्हें सेना के सर्वोष्ठ पद पर नियुक्त करने हेतु असैनिक नेतृत्व को प्रोत्साहित किया।अपनी सेवा के दौरान, जनरल शरीफ ने पहले से ही हिलाल-ए-इम्तियाज सैन्य पुरस्कार प्राप्त किया था, और वह स्वर्गीय मेजर शब्बीर शरीफ के छोटे भाई थे, जिन्हें 1971 के युद्ध में उनकी सेवाओं के लिए निशान-ए-हैदर प्राप्त हुआ था और जिन्हें सभी पाकिस्तानी सैनिकों द्वारा सम्मान दिया जाता है। पीएम शरीफ ने हालांकि जेसीएससी के रूप में जनरल रशद महमूद को मौजूदा निकाय में फेरबदल या पुनर्विचार के बिना युक्तिपूर्वक नियुक्त किया था, जिसने कयानी गुट को शांत किया और इस कारण तत्कालीन यथास्थिति में वहमनमुटाव नहीं हुआ जो असैनिक और सैन्य नेतृत्व के बीच मौजूद था। जनरल शरीफ सीओएएस के रूप में नियुक्त होने से पहले महानिरीक्षक प्रशिक्षण और मूल्यांकन के रूप में सेवारत थे, जबकि लेफ्टिनेंट जनरल महमूद जेसीएससी के रूप में नियुक्त होने से पहले चीफ ऑफ जनरल स्टाफ के रूप में सेवारत थे।
जनरल शरीफ सबसे कठिन समय में पाकिस्तान के सीओएएस के पद पर थे, जब आतंकवाद की नीति, जिसे पाकिस्तान ने पोषित किया था, ने पिछले कुछ वर्षों में महत्वपूर्ण जान-माल क्षति पहुंचाई। स्कूली बच्चों और विश्वविद्यालय के छात्रों की हत्याओं, सभी प्रांतों में संप्रदाय और धार्मिक अल्पसंख्यकों के खिलाफ बढ़ती हिंसा, महिलाओं और बच्चों की हत्या, वकीलों और पत्रकारों पर हमला, सेना के प्रशिक्षण स्कूलों और संस्थानों में हिंसा और असंख्य विस्फोटों से आतंकवाद ने पाकिस्तान पर हमला बोल दिया, जिससे जान-माल का नुकसान हुआ।
ऑप्रेशन ज़र्ब-ए-अज़ब को अंजाम देना और नेशनल एक्शन प्लान (एनएपी) को मज़बूत करने की कोशिश वज़ीरिस्तान के बड़े इलाकों को सामान्य स्थिति में बहाल करने में महत्वपूर्ण रही। इसने क्षेत्रीय और अंतर्राष्ट्रीय निवेशकों को पाकिस्तान को निवेश के लिए चुनने के लिए, विशेष रूप से चीन पाकिस्तान आर्थिक कोरिडोर (सीपीईसी) परियोजना शुरु करने के साथ (जिसके लिए सेना ने एक अलग सुरक्षा सुविधा के साथ-साथ मौजूदा सीमावर्ती वाहिनी, पाकिस्तानी रेंजर तथा पाकिस्तानी सेना की विभिन्न शाखाएँ आवंटित की हैं) के प्रति विश्वास दिलाने में भी सहायता की।
पाकिस्तानी सेना ने कराची में ताबड़तोड़ बरामदगी और गिरफ़्तारी की।सेना की कार्रवाई, उनकी रिपोर्ट के अनुसार, सेलक्ष्य-आधारित हत्या, जर्ब्दस्ती वसूली सहित अपराध और हिंसा की दर में तथा अपहरण गतिविधियों में उल्लेखनीय कमी आई। खुफिया एजेंसियों की सहायता से कराची को हथियारमुक्त बनाने में महत्वपूर्ण प्रयास किए गए।
जनरल शरीफ के मार्गदर्शन में, प्रांतों के भीतर भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाने तथा संघीय सरकार के खिलाफ भ्रष्टाचार के मामलों की जांच के लिए बनाए जा रही कार्यप्रणालियों को सुविधाजनक एवं मजबूत करने के प्रयास किए गए। 2015 में भ्रष्टाचार और भाई-भतीजावाद के आरोपों पर सिंध के उच्चतर आयोग के अध्यक्ष डॉ. असीम हुसैन की गिरफ्तारी एक ऐसा ही उदाहरण है। जनरल शरीफ ने आतंकवाद से संबंधित मामलों में तेजी से मुकदमा चलाने और सजा देने के लिए आंतरिक कार्य मंत्रालय के साथमहत्वपूर्ण भूमिका निभाई। उन्होंने पाकिस्तान में चुनिंदा आतंकवादी समूहों और व्यक्तियों को दिए जा रहे निरंतर समर्थन के कारण अंतर्राष्ट्रीय पटल पर पाकिस्तान को अलग-थलग करने के प्रयास को रोकने की कोशिश में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई और यह माना जाता है कि उन्होंनेआतंकवादी समूहों के खिलाफ त्वरित कार्रवाई का सुझाव दिया था ताकि राष्ट्र को अलग-थलग नहीं किया जा सके।
जनरल शरीफ ने अंतरराष्ट्रीय स्तर के साथ-साथ अपने पड़ोस में पाकिस्तान की स्थिति को मजबूत करने में काफी महत्वपूर्ण और रणनीतिक भूमिका निभाई, क्योंकि अपने कार्यकाल के दौरान उन्होंने सैन्य और सामरिक संबंधों को मजबूत करने के लिए कई दौरे किए, भिन्न देशों के रक्षा कर्मियों के साथ संयुक्त सैन्य अभ्यास में समन्वय किया, नए रक्षा हथियारों की खरीद के साथ-साथ पुराने हथियारों को फिर से आधुनिक बनाने के प्रयास किए और तदनुसार उन्होंने रणनीतिक और रक्षा गठबंधन बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
हालाँकि, जनरल शरीफ ने एक ऐसी संस्था को, जिसे राष्ट्र के सभी विकृतियों के लिए दोषी ठहराया जा रहा था, बहालकरने की कोशिश में गत्यात्मक भूमिका निभाई, लेकिन वे भी कई मोर्चों पर विफल रहे। उनका विफल रहने के कारण ही उन्हें अपनी सेवा के विस्तार का विकल्प चुनने के बजाय, शायद पद छोड़ने के लिए प्रेरित किया।
नए सीओएएस का चयन
प्रधानमंत्री नवाज शरीफ ने इस उम्मीद के साथ कि 26 नवंबर, 2016 को उजागर हुए असैनिक-सैनिक संतुलन दुरुस्त हो जाएगा, अपने प्रमुख सलाहकारों के साथ मिलकर नए सैन्य कमांड का नाम देकर जनरल कमरवेदबाजवा और जनरल जुबैर महमूद हयात को क्रमशः चीफ ऑफ आर्मी स्टाफ और चेयरमैन ऑफ द ज्वाइंट चीफ्स ऑफ स्टाफ कमेटी (सीजेसीएससी) नियुक्त किया। जनरल बाजवा के पूर्व कमांडिंग अधिकारियों की टिप्पणियों के अनुसार, वह सेना का एक मजबूत पक्षधर हैं जो असैनिकव्यवस्था में घुसपैठ नहीं करने के पक्ष में है। रिपोर्टों के अनुसार, उन्होंने 2014 के सरकार-विरोधी धरने के दौरान एक सकारात्मक रुख अपनाया था, जिसका लाभ शायद सेना प्रमुख के रूप में उनकी उम्मीदवारी पर पड़ा हो। जनरल बाजवा एक पैदल सेना संवर्ग के अधिकारी हैं, जबकि जनरल हयात तोपखाना संवर्ग से हैं। जनरल हयात 2007 में जनरल मुशर्रफ के सेवानिवृत्त होने के बाद चार सितारा जनरल बनने की दौड़ में सबसे आगे थे। दोनों अधिकारी 62thपाकिस्तान मिलिट्री ऐकेडमी लॉन्ग कोर्स से हैं और उन्हें अक्टूबर 1980 में सेना में कमीशन दिया गया था। तथापि, जनरल बाजवा के अहमदीरिश्तेदारों को लेकर धार्मिक कट्टरपंथियों के बीच कुछ विरोध दिखाई पड़ते हैं।
कनाडा में कनाडाई फोर्सेज कमांड और स्टाफ कॉलेज से स्नातक, नौसेना पोस्ट ग्रेजुएट विश्वविद्यालय, संयुक्त राज्य अमेरिका में मोंटेरे और इस्लामाबाद में राष्ट्रीय रक्षा विश्वविद्यालय से शिक्षित और 35 वर्षों से एक अधिकारी के रूप में सेवारत, जनरल बाजवा पूर्व में जनरल हेडक्वार्टर में प्रशिक्षण और मूल्यांकन महानिरीक्षक थे। यह वही पद है जिस पर जनरल राहील शरीफ सेना प्रमुख का कार्यभार संभालने से पहले कार्य कर रहे थे। उन्होंने 16 बलूच रेजिमेंट, एक इन्फैंट्री ब्रिगेड की भी कमान संभाली और उत्तरी क्षेत्रों में इन्फैंट्री डिवीजन की कमान संभाली। जनरल शरीफ की तरह, जनरल बाजवा इस पद के लिए एक प्रमुख उम्मीदवार नहीं थे और अब उन्होंने लेफ्टिनेंट जनरल सैयद वाजिद हुसैन (भारी उद्योग के अध्यक्ष, तक्षशिला), लेफ्टिनेंट जनरल नजीबुल्ला खान (डीजी ज्वाइंट स्टाफ मुख्यालय), लेफ्टिनेंट जनरल इश्फाक नदीम अहमद (कॉर्प्स कमांडर मुल्तान) और लेफ्टिनेंट जनरल जावेद इकबालरामडे (कॉर्प्स कमांडर बहावलपुर) को पीछे छोड़ दिया है। पाकिस्तान में सेना प्रमुखों की नियुक्ति में वरिष्ठता सूची का कड़ाई से पालन कभी नहीं किया गया है। इस सूची को 2007 में सबसे अधिक ध्यान में रखा गया था, जब जनरल अशफाक परवेज कयानी - सबसे वरिष्ठ अधिकारी - को सेना प्रमुख नियुक्त किया गया था। जनरल बाजवा और जनरल हयात दोनों के पास सक्रिय युद्ध के अनुभव की कमी है क्योंकि उन्हें कभी भी संघर्ष वाले क्षेत्र में तैनात नहीं किया गया था। हालांकि, नव नियुक्त सेना प्रमुख को रावलपिंडी स्थित 10 कोर में अपनी सैन्य सेवा की एक बड़ी अवधिबिताने का श्रेय दिया जाता है, जो नियंत्रण रेखा (एलओसी) की रखवाली के लिए जिम्मेदार है। असैनिक सरकार के साथ जनरल बाजवा का अपेक्षाकृत अधिक उदार दृष्टिकोण, पीएम शरीफ के बारे में कठोर फैसला लेने में निर्णायक हो सकता है।
रक्षा मंत्री ख्वाजासैफ ने कहाकिनए सेना प्रमुख के तहत पाकिस्तान की सैन्य नीति में तत्काल कोई बदलाव नहीं होगा। संयुक्त राज्य अमेरिका ने 27 नवंबर को एक बयान जारी किया, जिसमें जनरल बाजवा की नियुक्ति का स्वागत किया गया और कहा गया कि वह पाकिस्तान को उसके घरेलू और क्षेत्रीय आतंकवाद और आतंकवाद विरोधी प्रयासों में सहायता करना चाहता है। इस्लामाबाद में अमेरिकी दूतावास ने कहा कि अमेरिका "पाकिस्तानी अधिकारियों को अपने पड़ोसियों के खिलाफ आतंकवादी हमलों के लिए पाकिस्तान की धरती के उपयोग को रोकने के लिए पाकिस्तान की प्रतिबद्धता का सम्मान करने में उसकी मदद करना चाहता था"।
मूल्यांकन
यह पीएम शरीफ का सीओएएस का पांचवा चयन था। जिन लोगों को उन्होंने इस पद के लिए पूर्व में चुना था, उनमें जनरल आसिफ नवाज जांजुआ (1991), जनरल वहीदकर (1993), जनरल परवेज मुशर्रफ (1998) और जनरल राहील शरीफ (2013, वरिष्ठता मुख्य मापदंड नहीं थी) शामिल थे। चयन प्रक्रिया में जो बिंदु मुख्य प्रतीत होते हैं, उनमें पाकिस्तान में राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं के प्रति उम्मीदवार की तटस्थतता, बलूच समस्या के बारे में उम्मीदवार की समझ, पेंटागन नेतृत्व के साथ-साथ बीजिंग के साथ उसके संबंध, उसके सैन्य रिकॉर्ड और असैनिक प्रशासन के साथ उसके संबंध।ऐसा प्रतीत होता है कि जनरल बाजवा सभी शर्तों को पूरा करते हैं। यह नियुक्ति महत्वपूर्ण है, क्योंकि यह न केवल क्षेत्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पाकिस्तान के हितों को बढ़ावा देने के लिए जिम्मेदार होगी, बल्कि लोकतांत्रिक सरकार, जो 2008 से पुन: स्थापित हुई है,की स्थिरता और दीर्घता के लिए भी महत्वपूर्ण है।
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*डॉ. ध्रुबज्योति भट्टाचार्जी, भारतीय विश्व मामले परिषद, नई दिल्ली में अध्येता हैं
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