वैश्विक महामारी के बीच चुनाव कराने की वैधता पर हुई बहस के बाद, श्रीलंका का संसदीय चुनाव 5 अगस्त 2020 को संपन्न हुआ। चुनाव से संकेत मिलता है कि महिंद्रा राजपक्षे के नेतृत्व वाली श्रीलंका पोडुजाना पेरमुना (एसएलपीपी) कार्यकारी तथा विधायी दोनों स्तरों पर मजबूत वापसी करने जा रही है। चुनाव परिणाम से कई नीतिगत बदलावों की शुरुआत होने की संभावना है।
परिणाम
श्रीलंका की 225 सदस्यीय संसद में 196 चुनावी जिले की सीटें के लिए, 7000 से अधिक उम्मीदवारों के बीच संसद में अपनी जगह बनाने हेतु प्रतिस्पर्धा हुई। 71% मतदान प्राप्त करने के साथ, एसएलपीपी ने 128 सीटें हासिल कीं, जिसके बाद समागी जन बालावेग्या (एसजेबी) ने 47 सीटें, तमिल राष्ट्रीय गठबंधन (टीएनए) ने 9 सीटें और जथिका जन बालावगेया (जेजेबी) ने केवल 2 सीटों पर जीत दर्ज की है। एसएलपीपी के पक्ष में हुए वोटों के प्रतिशत से पार्टी के पक्ष में बहुसंख्यक सिंहला वोटों में एक महत्वपूर्ण बदलाव दिखाई देता है। इस चुनाव में पड़े कुल वोट 2019 नवंबर के राष्ट्रपति चुनाव की तुलना में 12,343,302 कम हैं। एसएलपीपी के उम्मीदवार गोतबाया राजपक्षे ने कुल पड़े वोटों में से 52.25 प्रतिशत वोट हासिल किए थे।[1]
पार्टी |
सीटें
|
कुल पाए मतों की संख्या |
मतों का प्रतिशत |
राष्ट्रीय सूची (अप्रत्यक्ष सीटें) |
कुल |
एसएलपीपी |
128 |
6,853,690 |
59.09 % |
17 |
145 |
एसजेबी |
47 |
2,771,980 |
23.90 % |
7 |
54 |
टीएनए (आईटीएके) [2] |
9 |
3,27,168 |
2.82 % |
1 |
10 |
जेजेबी |
2 |
4, 45,954 |
3.8 % |
1 |
3 |
एआईटीसी (अहिलालंकी तमिल कांग्रेस) |
1 |
67,766 |
0.58% |
1 |
2 |
ईपीडीपी (ईलम पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी) |
2 |
61,464 |
0.53% |
0 |
1 |
टीएमवीपी (तमिल मक्कल विदुथलाई पुलिकाल) |
1 |
67,692 |
0.58% |
0 |
1 |
यूएनपी |
0 |
2,49,435 |
2.15% |
1 |
1 |
एसएलएमसी (श्रीलंका मुस्लिम कांग्रेस) |
1 |
34,428 |
0.30% |
0 |
1 |
एसएलएफपी |
1 |
66,579 |
0.57% |
0 |
1 |
एमएनए (मुस्लिम राष्ट्रीय गठबंधन) |
1 |
55,981 |
0.48% |
0 |
1 |
ओपीपीपी (अवर पॉवर ऑफ पीपुल पार्टी) |
1 |
67,758 |
0.58% |
0 |
1 |
एनसी (राष्ट्रीय कांग्रेस) |
1 |
39,272 |
0.34% |
0 |
1 |
टीएमटीके (तमिल मक्कल थीसिया कुटानी) |
1 |
51,301 |
0.44% |
0 |
1 |
एसीएमसी (ऑल सीलोन मक्कल कांग्रेस) |
1 |
43,319 |
0.37% |
0 |
1 |
स्रोतः श्रीलंका का चुनाव आयोग[3]
वर्तमान संसदीय चुनाव का एक महत्वपूर्ण पहलू यह है कि पहली बार यूएनपी और एसएलएफपी जैसे पारंपरिक सिंहल राजनीतिक दल मुख्य दावेदार नहीं हैं, और यह स्थिति राजपक्षे के नेतृत्व वाली एसएलपीपी और सजीत प्रेमदासा के नेतृत्व वाली एसजेबी को सत्तान्तरित हो गया है। एसएलएफपी से अलग होने वाले गुट एसएलपीपी ने पार्टी के शीर्ष पर अपने पुराने नेतृत्व को बनाए रखा है। दूसरी ओर, एसएनबी, यूएनपी से अलग होने के बाद श्रीलंका की राजनीति में युवा नेतृत्व की आवश्यकता को दर्शा रही है। एसएलएफपी और यूएनपी दोनों इस चुनाव में एक अच्छा वोट प्रतिशत हासिल करने में विफल रहे। अल्पसंख्यक दलों के समर्थन से यूएनपी तथा एसएलएफपी दोनों के नेतृत्व में 2015 में बनी पिछली एकता सरकार 2019 में पूर्व राष्ट्रपति मैत्रीपाला सिरीसेना और पूर्व प्रधानमंत्री रानिल विक्रमसिंघे के बीच मतभेदों के कारण गिर गई थी, जो श्रीलंका में द्विदलीय सरकार के पहले प्रयोग की असफला हो चिन्हित करता है। दूसरी ओर, इस्लामिक स्टेट से प्रेरित युवाओं द्वारा चर्चों तथा होटलों पर ईस्टर संडे (29 अप्रैल 2019) को किए गए हमलों ने सुरक्षा मुद्दे को चुनावी राजनीति में सबसे पहला पहला मुद्दा बना दिया। इससे महिंदा राजपक्षे के समर्थन का आधार मजबूत हुआ। 2009 में श्रीलंका में आतंकवाद का खात्मा करने वाले नेता के रूप में सफल रहे, महिंदा राजपक्षे के लिए यह सक्रिय राजनीति में वापसी थी। लेकिन, वह पूर्व राष्ट्रपति सिरीसेना की मदद से 2019 के अंत में प्रधानमंत्री (पीएम) बनने में सफल नहीं हो सके। अपने भाई तथा पूर्व रक्षा सचिव गोतबया राजपक्षे को एसएलपीपी के राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार के रूप में लाकर, महिंदा राजपक्षे ने 2019 में राष्ट्रपति चुनाव और 2020 में संसदीय चुनाव जीतने हेतु मंच तैयार किया।
एसएलपीपी की जीत में योगदान देने वाले कारक
सिंहल विपक्षी दलों के बीच आपसी मतभेद और वैकल्पिक राजनीतिक तथा आर्थिक एजेंडे की कमी
सबसे महत्वपूर्ण कारक जिसने राजपक्षे के नेतृत्व वाली एसएलपीपी की सफलता में योगदान दिया, वह है सिंहली बहुमत का प्रतिनिधित्व करने वाली मुख्यधारा की पार्टियों का कमजोर विरोध। चुनाव से पहले प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार का निर्णय लेने में यूएनपी की विफलता के कारण दरार पैदा हुई। रानिल विक्रमसिंघे की साजित प्रेमदासा को नेतृत्व की भूमिका प्रदान करने की अनिच्छा के बावजूद उन्हें राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार के रूप में चुनने के कारण पारंपरिक यूएनपी मतदाताओं का साथ नहीं मिला। चुनाव से कुछ दिन पहले, यूएनपी ने पार्टी के 54 सदस्यों को निष्कासित कर दिया जिन्होंने एसजेबी के तहत संसदीय चुनाव लड़ने हेतु नामांकन किया था। पार्टी ने 200 अन्य स्थानीय निकाय सदस्यों को निष्कासित करने / बदलने की योजना बनाई, जिन्होंने साजित प्रेमदासा को समर्थन दिया था।[4] यूएनपी इस चुनाव में एक भी सीट जीतने में सफल नहीं हो सकी। रानिल विक्रमसिंघे जिन्होंने 2015 के संसदीय चुनावों में 106 सीटों पर जीत प्राप्त करने में यूएनपी का नेतृत्व किया था, खुद ही कोलंबो से हार गए। नेतृत्व को लेकर मतभेदों के बीच, प्रभावी वैकल्पिक राजनीतिक तथा आर्थिक एजेंडा प्रदान करने में यूएनपी की विफलता भी पार्टी को भारी पड़ी।
एसएलपीपी ने जनता की भावना को देखते हुए संसदीय चुनावों के लिए कोई नया घोषणापत्र पेश नहीं किया। उन्होंने 2019 में राष्ट्रपति चुनावों के लिए इस्तेमाल किए गए लगभग 100 पेज के घोषणापत्र को ही बनाए रखने का फैसला किया। इसमें लोगों पर केंद्रित आर्थिक विकास तथा राष्ट्रीय सुरक्षा को अत्यधिक प्राथमिकता देने का वादा किया गया था।[5] राष्ट्रपति गोतबया राजपक्षे ने बेरोजगार स्नातकों, कौशल आधारित शिक्षा, किसानों तथा वृद्धों के लिए पेंशन तथा राष्ट्रपति चुनाव से पहले राज्य क्षेत्र में 50,000 नौकरियां देने का वादा किया। जैसा कि वादा किया गया था, मार्च 2020 तक 45,000 युवाओं को राज्य क्षेत्र में प्रशिक्षण में शामिल होने हेतु कहा गया। राष्ट्रपति द्वारा महामारी से निपटने के प्रयास को डब्ल्यू.एच.ओ. ने भी सराहा, जो एसएलपीपी की लोकप्रियता को बढ़ाता है।[6] पुष्टि किए गए 2839 कोविड-19 के मामलों में से अब तक 2531 लोग ठीक हो चुके हैं और केवल 11 लोगों की मौत हुई है।
अल्पसंख्यक समुदाय की आर्थिक कठिनाइयों के बीच जातीय सवालों पर ज़ोर
2015 के संसदीय चुनावों के विपरीत, तमिल तथा मुस्लिम अल्पसंख्यक दलों को एकजुट मोर्चा बनाने में संघर्ष करना पड़ा। पिछले संसदीय चुनाव में, टीएनए ने तमिल बहुल उत्तर-पूर्वी जिलों में 16 सीटें हासिल कीं। पिछले राष्ट्रपति चुनाव में एसएलपीपी की जीत की पृष्ठभूमि को फिर से परिभाषित किया गया है, मुद्दा यह था कि अल्पसंख्यक तमिल राजनीतिक दल चाहते थे कि सरकार पुनर्वास, स्थानांतरगमन और सुलह जैसे मुद्दों पर ध्यान दे। तमिल दलों के बीच आम सहमति थी कि युद्ध की समाप्ति से समुदाय को राजनीतिक या आर्थिक लाभ नहीं हुआ। लेकिन, तमिल पार्टियां समुदाय के लाभ हेतु कोई साझा एजेंडा पेश नहीं कर सकीं। तमिल वोट ईपीडीपी, एसीटीसी, टीएमवीपी, टीएमटीके जैसे तमिल राजनीतिक दलों के बीच विभाजित हो गए, जिसका नेतृत्व पूर्व-उत्तरी प्रांत के प्रमुख सी.वी. विग्नेश्वरन और एआईटीसी ने किया था।
अंतरराष्ट्रीय कर्ताओं की प्रत्यक्ष भागीदारी, श्रीलंका के जातीय अल्पसंख्यकों से संबंधित मुद्दों में बहुसंख्यक समुदाय का प्रतिनिधित्व करने वाले दलों द्वारा कभी भी ध्यान नहीं दिया गया। संघवाद और प्रांतों को सत्ता के विचलन का कोई भी उल्लेख श्रीलंका की संप्रभुता हेतु खतरा माना जाता है। बहुसंख्यक आबादी की इन भावनाओं को महिंदा राजपक्षे ने चुनाव प्रचार के दौरान स्पष्ट किया। उन्होंने कहा कि "श्रीलंका की मुख्य तमिल पार्टी टीएनए को चुनाव के माध्यम से वह हासिल करने नहीं दिया जाएगी जो लिट्टे और उसके मारे गए नेता वेलुपिल्लई प्रभाकरन बंदूक के दम पर हासिल करने में विफल रहे"।[7]
श्रीलंका की तमिल पार्टियों के वोटरों के जैसे ही, मुस्लिम समुदाय के वोट भी एसएलएमसी और एनसी के बीच बंटे हुए थे, जिसने केवल एक सीट पर जीत हासिल की। 2019 में ईस्टर संडे के हमलों के बाद, मुस्लिम दलों को संदेह, हमलों तथा अलगाव का सामना करना पड़ा। परंपरागत रूप से इन दलों ने केंद्र में एसएलएफपी या यूएनपी का समर्थन किया है और उनके नेताओं ने मंत्रियों के रूप में विभिन्न पदों पर काम किया है, लेकिन हाल के वर्षों में समुदाय की राजनीतिक मौजूदगी काफी कम हो गई है।
ये कुछ कारक हैं जिन्होंने एसएलपीपी की जीत में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। क्या, जातीय अल्पसंख्यक विपक्ष मुद्दों पर केंद्र के साथ सौदेबाजी कर पाएगा, यह देखना महत्वपूर्ण होगा।
जीत से शुरुआती अपेक्षाएं : घरेलू और भारत-श्रीलंका द्विपक्षीय
एसएलपीपी द्वारा प्राप्त दो तिहाई बहुमत ने आर्थिक तथा राजनीतिक सुधारों के लिए एक मंच तैयार किया है। संवैधानिक सुधार एसएलपीपी का मुख्य एजेंडा रहा है। सबसे पहले तथा सबसे महत्वपूर्ण, एसएलपीपी सरकार श्रीलंका के संविधान के 19वें संशोधन (19A) को निरस्त करना चाहेगी। महिंदा राजपक्षे ने अपने चुनाव अभियान में विशेष रूप से लोगों से 19 (A) को निरस्त करने हेतु संसद में दो तिहाई बहुमत से जीत दिलाने हेतु कहा था।[8] इस संशोधन ने कार्यकारी राष्ट्रपति पद की शक्तियों को कम कर दिया।[9] तीसरी बार 2019 का राष्ट्रपति चुनाव लड़ने का महिंदा राजपक्षे का प्रयास 19 (A) संशोधन के कारण पूरा नहीं हो सका। एसएलपीपी सरकार संपूर्ण संवैधानिक कवायद को भी रद्द कर सकती है जिसे एक नया संविधान लाने हेतु पिछली एकता सरकार के तहत किया गया था, जो श्रीलंका की मिश्रित समाज के लिए अधिक अनुकूल है। लगभग 33 बिलियन डॉलर की विदेशी ऋण में वृद्धि, सरकार के आर्थिक एजेंडे में अड़चन है। यह देखना महत्वपूर्ण है कि सरकार प्रभावित अर्थव्यवस्था का किस तरह से प्रबंधन करेगी जो महामारी की चपेट में है।
राजपक्षे (2005-2010) और तमिल समुदाय के नेतृत्व वाली सरकार के बीच संबंधों के पिछले इतिहास को देखते हुए, कोई भी जातीय मुद्दे के राजनीतिक समाधान के मामले में बहुत अधिक उम्मीद नहीं कर सकता। राष्ट्रपति गोतबया राजपक्षे ने अतीत में कहा कि 'श्रीलंका के संविधान का 13वां संशोधन पूरी तरह से लागू नहीं किया जा सकता है जैसे कि पुलिस तथा प्रांतों को भूमि के अधिकारों का हस्तांतरण’।[10] यह इस बात का संकेत है कि सरकार भविष्य में यथास्थिति बनाए रख सकती है। वर्तमान परिदृश्य में, यह लगता है कि श्रीलंकाई तमिल नेताओं के लिए एकमात्र विकल्प समान आर्थिक अवसरों, विमुद्रीकरण, पुनर्निर्माण तथा युद्ध प्रभावित तमिल आबादी के पुनर्वास का प्रयास करना ही बचा है।
द्विपक्षीय स्तर पर, महिंदा राजपक्षे (2005-2015) के दस साल के शासन के दौरान भारत-श्रीलंका संबंधों में कठिनाई भरे दौर को पार करना पड़ा। श्रीलंका में युद्ध की समाप्ति का समर्थन भारत द्वारा किया गया था, लेकिन इससे शांति तथा पुनर्निर्माण नहीं हुआ। सुरक्षा के मोर्चे पर, भारत को चीन के निवेश तथा उपस्थिति को लेकर चिंताएं थी। भारत ने व्यापक आर्थिक भागीदारी समझौते (सीईपीए) के माध्यम से मुक्त व्यापार समझौते (एफटीए) ढांचे के तहत आर्थिक सहयोग बढ़ाने की भी उम्मीद की थी। 2005-2008 के दौरान सोलह दौर की बातचीत के बाद, सेवाओं में व्यापार जैसे प्रावधान पर श्रीलंका द्वारा व्यक्त किए गए आरक्षण के कारण समझौते को रद्द कर दिया गया था। श्रीलंका की राष्ट्रीय एकता सरकार (2015-2019) के तहत द्विपक्षीय संबंध कुछ समय तक संतुलित रहे, लेकिन 2017 में हस्ताक्षर किए गए आर्थिक विकास परियोजनाओं पर समझौते को पूर्व पीएम तथा श्रीलंका के राष्ट्रपति के बीच मतभेदों के कारण लागू नहीं किया जा सका।
वर्तमान राजनीतिक परिदृश्य को देखते हुए, यह कहना मुश्किल है कि भविष्य में भारत-श्रीलंका के संबंधों में कितनी गति आएगी। द्विपक्षीय सहयोग का आर्थिक तथा सुरक्षा पहलू भारत-श्रीलंका संबंधों के हिंद महासागर क्षेत्र (आईओआर) में भूराजनीतिक और रणनीतिक वास्तविकताओं पर हावी को सकता है। गैर-पारंपरिक सुरक्षा खतरों से निपटने में सहयोग बढ़ाना प्राथमिकता होगी। भारत और श्रीलंका के बीच राजनीतिक मुद्दे आने वाले वर्षों में शिथिल हो सकते हैं, जब तक कि कोई अन्य अंतर्राष्ट्रीय कर्ता श्रीलंका की घरेलू जातीय राजनीति में रुचि नहीं दिखाते। वर्तमान में भारत और श्रीलंका के बीच टकराव या मतभेद का कोई बड़ा मुद्दा नहीं है। फिर भी, कोलंबो के ईस्ट कंटेनर टर्मिनल में भारत के प्रस्तावित निवेशों के खिलाफ ट्रेड यूनियनों का हालिया विरोध एक चिंता का विषय है। ये विरोध शायद आर्थिक तथा निवेश प्रतिबंधों का संकेत हैं जिसका भारत को भविष्य में श्रीलंका में सामना करना पड़ सकता है। श्रीलंका विभिन्न शक्तियों से जुड़कर हिंद महासागर में अपनी भौगोलिक स्थिति का लाभ उठाने की कोशिश करेगा। इससे क्षेत्र की सुरक्षा पर प्रभाव पड़ेगा, जिसमें भारत खुद को एक प्रमुख खिलाड़ी के रूप में देखता है।
निष्कर्ष
महामारी और पारंपरिक एवं गैर-पारंपरिक सुरक्षा चुनौतियों से जुड़ी आर्थिक चुनौतियों को दूर करने हेतु केंद्र में मजबूत सरकार के लिए बहुमत की भावना के परिणामस्वरूप इस चुनाव में एसएलपीपी की जीत हुई है। इस चुनाव ने पारंपरिक सिंहली राजनीतिक दलों के भविष्य के निकट अंत को एसएलएफपी और यूएनपी के रूप में चिह्नित किया। यह साबित करना एसएलपीपी के ऊपर निर्भर है कि यह वास्तव में श्रीलंका के सभी नागरिकों की सरकार होगी, न कि केवल पार्टी को वोट देने वाले मतदाताओं की। महामारी ने श्रीलंका की अर्थव्यवस्था के सामने नई चुनौतियाँ खड़ी कर दी हैं। यह विदेशी आर्थिक और निवेश सहयोग के नए रास्ते तलाशने की कोशिश करेगा, जिसके लिए वह इस क्षेत्र में बाहरी शक्तियों को आमंत्रित कर सकता है। स्थिर श्रीलंका और शांतिपूर्ण हिंद महासागर क्षेत्र भारत की पहली प्राथमिकता है। इसलिए, हाल के राजनीतिक परिवर्तनों को देखते हुए, भारत को अपने निकटतम हिंद महासागर पड़ोसी के साथ मजबूत संबंध बनाने हेतु और अधिक प्रयास करना पड़ सकता है।
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* डॉ. समथा मल्लेम्पति विश्व मामलों की भारतीय परिषद में शोधकर्ता हैं।
व्यक्त विचार व्यक्तिगत हैं
अंत टिप्पण
[1]Election Commission of Sri Lanka, Presidential Election 2019, All Island Results, https://elections.gov.lk/web/wp-content/uploads/election-results/presidential-elections/pre2019/PRE_2019_All_Island_Result.pdf.Accessed on August 7, 2020.
[2]Ilanki Tamil ArasuKdchi
[3]Ibid
[4]“UNP expels 54 members contesting under SJB”, 28 July 2020, http://www.dailymirror.lk/top_story/UNP-expels-54-members-contesting-under-SJB/155-192796. Accessed on August 6, 2020.
[5] See SLPP manifesto titled, “Gotabaya A ReconstructedCountry with a FutureVistas of Prosperityand Splendour”, https://gota.lk/sri-lanka-podujana-peramuna-manifesto-english.pdf. Accessed on August 5, 2020.
[6]SL controlled pandemic better than more resourced countries: WHO, 17 July 2020, http://www.dailymirror.lk/breaking_news/SL-controlled-pandemic-better-than-more-resourced-countries:-WHO/108-192139.Accessed on August 5, 2020.
[7]“TNA won't be allowed to achieve through vote what LTTE failed to do with gun PM Rajapaksa”, https://www.theweek.in/wire-updates/international/2020/07/30/fgn13-lanka-tna-rajapaksa.html.Accessed on August 5, 2020.
[8] “Sri Lankan PM calls for two third majority to repeal 19th Amendment”, 3 July 2020, https://www.tamilguardian.com/content/sri-lankan-pm-calls-two-third-majority-repeal-19th-amendment. Accessed on August 6, 2020.
[9]It reduced the terms of President and Parliament from six years to five years and re-introduced the two-term limit that a person can have as President. It also restricted the powers of the President in dissolution of Parliament by putting the term limit of four and a half years, constitutional Council was revived and independent commissions were established.
[10] “Certain areas of 13th amendment of the constitution cannot be implemented: Sri Lankan President”, 7 January 2020, http://ddnews.gov.in/international/certain-areas-13th-amendment-constitution-cannot-be-implemented-sri-lankan-president%C2%A0.Accessed on August 6, 2020.