'India’s Relations with the International Monetary Fund: 25 Years In Perspective 1991-2016'
(आईसीडब्ल्यू का प्रकाशन)
नामक पुस्तक के विमोचन और उस पर चर्चा के अवसर पर
श्री वी. श्रीनिवास
आईएएस, अतिरिक्त सचिव, कार्मिक, जन शिकायत और पेंशन मंत्रालय, भारत सरकार
का वक्तव्य
26 जुलाई 2019
(सप्रू हाउस, नई दिल्ली)
आदरणीय श्री शक्तिकांत दास, भारतीय रिज़र्व बैंक के गवर्नर, डॉ. अनूप सिंह, सदस्य- 15वां वित्त आयोग, श्री के.वी. एपेन, सचिव- प्रशासनिक सुधार और जन शिकायत विभाग, श्री एंड्रियास बाउर - आईएमएफ इंडिया कार्यालय के वरिष्ठ निवासी प्रतिनिधि, श्री टी.सी. राघवन, महानिदेशक- वैश्विक मामलों की भारतीय परिषद, प्रतिष्ठित राजदूत, आईएएस के वरिष्ठ सहकर्मियो, एम्स के वरिष्ठ अध्यापको, आईएएस 2017 बैच के सहायक सचिवो, मॉडर्न स्कूल के कक्षा 11 और 12 के छात्रों, देवियो और सज्जनो,
परिचय
आज का दिन मेरे जीवन के सबसे महत्वपूर्ण दिनों में से एक है और व्यक्तिगत उपलब्धि के इस क्षण को मेरे साथ साझा करने के लिए मैं आप सभी का बहुत आभारी हूं। आईएमएफ ऐसी महानतम संस्था है, जहां मैंने सेवायें दी हैं, अप्रतिम वैश्विक संस्था जिसके आर्थिक उदारवादी और लोकतांत्रिक आदर्श मुझे सदा प्रेरित करते हैं। आईएमएफ़ विश्व में अखिरी सहारे वाला ऋणदाता है- इसका दृष्टिकोण बहुपक्षीय, बहुसांस्कृतिक, बहुजातीय है और सर्वोपरि है आईएमएफ का कार्य अत्यधिक पेशेवराना होना - दुनिया के किसी अन्य संगठन के मुकाबले आईएमएफ में काम करने वाले मैक्रो -अर्थशास्त्रियों की सामूहिक बौद्धिक क्षमता बेजोड़ है।
मैं भारतीय रिज़र्व बैंक के गवर्नर और आईएमएफ में भारत के वैकल्पिक गवर्नर श्री शक्तिकांता दास द्वारा इस प्रयास में मुझे मार्गदर्शन देने में के लिए उनका आभारी हूं। मैं श्री के.वी.एपेन का, जिन्होंने आईएमएफ के ईडी कार्यालय में वरिष्ठ सलाहकार के रूप में, डॉ. अनूप सिंह का, जिन्होंने आईएमएफ के एशिया प्रशांत विभाग के निदेशक के रूप में और डॉ. एंड्रियास बाउर का, जिन्होंने आईएमएफ के भारत में वरिष्ठ निवासी प्रतिनिधि के रूप में काम किया, गर्मजोशी से हार्दिक स्वागत करता हूं।
किसी सेवारत सिविल सेवक के लिए किताब लिखना आसान काम नहीं है। "अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष के साथ भारत के संबंध: परिप्रेक्ष्य में 25 साल 1991-2016" जैसे जटिल विषय पर काफी शोध और कई वरिष्ठ अधिकारियों से सहभागिता वांछित थी। इस कार्य को करने में मुझे राजदूत नलिन सूरी, राजदूत भासवती मुखर्जी और श्रीमती.कल्याणी शंकर ने प्रोत्साहन दिया। मैंने अपना पुस्तक शोध प्रस्ताव राजदूत टी. सी. राघवन के साथ विचार-विमर्श के बाद प्रस्तुत किया, जिन्होंने मुझे 2001 में विदेश मंत्रालय में उनके साथ पहली बार काम करने के बाद से ही अकादमिक उत्कृष्टता प्राप्त करने को प्रोत्साहित किया। उसके तुरंत बाद मुझे 2017 में आईसीडब्लूए ने फेलोशिप दी, जो सप्रू हाउस द्वारा किसी आईएएस अधिकारी को पुस्तक अनुसंधान फेलोशिप देने की शायद पहली मिसाल है।
मैं डॉ. वाई.वी. रेड्डी, डॉ. दुवुरी सुब्बाराव, डॉ. सी. रंगराजन, डॉ. बिमल जालान, डॉ. एम. नरसिंहम, डॉ.राकेश मोहन, डॉ. सुबीर गोकर्ण, डॉ. कानागासबपथी कुप्पुस्वामी, डॉ.नितिन देसाई, डॉ. दीपक नैय्यर, डॉ. शंकर आचार्य, डॉ. अशोक लाहिरी, डॉ. अरविंद विरमानी, श्री भास्कर वेंकटरमनी, डॉ. पार्थ रे और श्री कृष्णन सरयणन से मिले समर्थन के लिए उनका धन्यवाद करता हूं। मैं शोध कार्य में मार्गदर्शन देने के लिए डॉ. मोंटेक सिंह अहलूवालिया और डॉ. राहुल खुल्लर का भी धन्यवाद करना चाहता हूं। मैंने आईसीडब्लूए, एनआईपीएफपी, आरबीएआई संग्रहालय, एनएमएमएल, संसद पुस्तकालय, राष्ट्रीय पुस्तकालय और ईयू पुस्तकालय में काम कर ऐतिहासिक रूप से महत्त्वपूर्ण हज़ारों दस्तावेजों को खंगाला है और मैं सभी पुस्तकालयध्यक्षों और सहायक कर्मचारियों द्वारा दी गई सहायता के लिए उनका आभार प्रकट करता हूँ।
आईएमएफ के साथ भारत के संबंध
मेरी पुस्तक अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष पर एक अध्याय से शुरू होती है, जिसके बाद Major Financial Crisis: From Great Depression to the Great Recession नामक अध्याय आता है. इसमें भारत से जुड़े 3 विशिष्ट अध्याय हैं -1966 और 1981 के आईएमएफ कार्यक्रमों का विश्लेषणात्मक अध्ययन, 1991 के संकट की उत्पत्ति और भारत की 1991 की वैकल्पिक (स्टैंडबाय) व्यवस्था। मैंने 1997-2016 के बीच भारतीय अधिकारियों को आईएमएफ के अनुच्छेद IV वार्षिक परामर्श और इस अवधि में आईएमएफसी की बैठकों में आईएमएफसी में भारत के गवर्नरों और वैकल्पिक गवर्नरों द्वारा अपनाये गए विकासवादी दृष्टिकोण पर प्रस्तुति दी है। भारत से जुड़े विशिष्ट अध्यायों के बाद आईएमएफ में मेरी यात्रा और भारतीय रिज़र्व बैंक के गवर्नरों, वित्त सचिवों, मुख्य आर्थिक सलाहकारों और कार्यकारी निदेशकों के साथ साक्षात्कार पर आधारित अध्याय हैं। रोडमैप फॉरवर्ड के अंग के तौर पर G20: A Decade of Multilateralism और The Rise of China in the International Monetary System.G20 नामक दो अध्याय शामिल हैं: भारत आईएमएफ का मूल सदस्य है। ठीक 75 साल पहले, 1944 में वित्त मंत्री सर रायसमैन, भारतीय रिज़र्व बैंक के गवर्नर सर सी॰ डी॰ देशमुख और श्री ए.डी.श्रॉफ के नेतृत्व में छह-सदस्यीय प्रतिनिधिमंडल ने ब्रेटन वुड्स सम्मेलन में भारत का प्रतिनिधित्व किया था। यह महसूस किया गया कि भारत को एक ऐसी संस्था को अपना समर्थन देना चाहिए, जिसका उद्देश्य विनिमय दरें तय कर मुद्राओं के प्रतिस्पर्धी मूल्यह्रास की विनाशकारी परिपाटियों को समाप्त करना है। 1945 में भारत का कोटा पांचवां सबसे बड़ा कोटा था।
भारत-आईएमएफ संबंध उतने ही व्यक्तिगत हैं जितने संस्थागत तौर पर हैं। ब्रेटन वुड्स सम्मेलन 1944 में ए. डी. श्राफ और जॉन मेनार्ड केन्स के बीच वो ऐतिहासिक बातचीत हुई थी. हालाँकि बाद के वर्षों में, 1966, 1981 और 1991 में भारत के तीन आईएमएफ कार्यक्रमों के निर्बाध कार्यान्वयन का प्रमुख कारण बौद्धिक सहमति का उभरना था। नरसिंहम - जैक्स डी-लारोसियर संबंधों की अडिगता अभी भी सबको याद है क्योंकि 1966 में 5 अरब अमेरिकी डॉलर की वैकल्पिक व्यवस्था कर संयुक्त रूप से धनराशि की मंजूरी सुनिश्चित की थी. मोंटेक सिंह अहलूवालिया - ह्यूबर्ट नीस के जुड़ाव ने 1991 के संकट के बाद क्रांतिकारी सुधार लाने में मदद दी। मैं वाई.वी. रेड्डी के रोड्रिगो डी राटो और ऐनी क्रूगर से रचनात्मक जुड़ाव का और फिर बाद में दुव्वुरी सुब्बाराव और डोमिनिक स्ट्रॉस-काह्न की सौहार्दपूर्ण बातचीत का साक्षी रहा। क्रिस्टीन लैगार्ड के कार्यकाल के वर्षों में भारतीय अधिकारियों के साथ काफी सकारात्मक तालमेल देखा गया है।
मैंने कहा है कि भारत आईएमएफ के लिए "पोस्टर चाइल्ड" रहा है. भारत के तीनो कार्यक्रमों में से हरेक अनुमान से पहले ही समाप्त हो गया। कार्यक्रम के बाद की विकास दर हमेशा कार्यक्रम के पूर्व की विकास दर से अधिक रही। ऋण की चुकौती हमेशा समय पर होती थी। आर्थिक इतिहास में भारत के आर्थिक सुधारों के ध्वजवाहकों को सदा याद किया जाएगा।
आईएमएफ के इतिहास में भारत के 1991 के कार्यक्रम के बारे में निम्न बातें कही गई हैं:
“आईएमएफ से उधार लेने की राजनीति हमेशा जटिल होती है, लेकिन भारत में विशेष रूप से ऐसा था। एक तरफ राजनेता लंबे समय तक आईएमएफ को शर्तों पर थोड़े तिरस्कार से देखते रहे थे। जैसे ही पता चला कि सरकार वैकल्पिक व्यवस्था के लिए आवेदन कर रही है, इसके नेताओं पर संसद और प्रेस में भारत द्वारा विदेशी हितों के आगे घुटना टेकने का आरोप लागकर उन पर हमला किया जाता। दूसरी ओर अधिकांश देशों के आर्थिक और वित्तीय अधिकारियों के आईएमएफ के साथ अच्छे संबंध थे और समय के साथ दोनों तरफ अत्यधिक आपसी विश्वास बन चुका था।
कामकाजी संबंध थोड़े असामान्य थे, इस मामले में कि अधिकारियों को अच्छी तरह से पता था कि फंड की मंजूरी और वित्तीय सहायता पाने के लिए उन्हें क्या करना है। उदाहरण के लिए, अवमूल्यन करने का निर्णय फंड के आग्रह पर नहीं किया गया था लेकिन इस सहमति पर किया गया था कि फंड इसे मंजूरी दे देगा और दोनों पक्षों का मानना था कि ऐसा करना आवश्यक था और भारत के हित में भी था। जैसा 1981 की वार्ता हुई थी, ये चर्चाएँ भी सौहार्दपूर्ण और दोस्ताना रहीं।”
कई मायनों में 1991/92 के आईएमएफ कार्यक्रम ने वैश्विक अर्थव्यवस्था के साथ भारत का एकीकरण संभव बनाया।
2004-2008 से भारतीय अर्थव्यवस्था में निवेश, कॉर्पोरेट लाभ में काफी तेज़ी देखी गई, कारोबारियों में अत्यधिक आत्मविश्वास था और उत्पादकता में भी तेज़ी थी, केवल चीन ही इससे आगे था। मुद्रास्फीति कम थी और निर्यात में वृद्धि दर 20 प्रतिशत पर मज़बूत रही। देश में काफी पूंजी प्रवाह आ रहा था, जो 1.5 प्रतिशत के चालू खाते के घाटे के पोषण के लिए काफी था। यह ऐसा वक़्त था जब भारत को फंड की ज़रूरत होने के बजाय फंड को भारत की अधिक ज़रूरत थी।
आईएमएफ वित्तीय लेन-देन योजना में भारत लेनदार देश बन गया, जो बड़ी बात थी।
मैंने संकटग्रस्त देशों को व्यापक आर्थिक स्थिरता हासिल करने में सक्षम बनाने हेतु अंतिम ऋणदाता के रूप में नीतियों बनाने वाले आईएमएफ की भूमिका रेखांकित किया है। यह पुस्तक 9 प्रमुख वित्तीय संकटों से संबंधित है, जो दुनिया ने देखें हैं - सुएज़ संकट सहित महामंदी से लेकर महासुस्ती तक, अंतर्राष्ट्रीय ऋण संकट, पूर्व एशियाई आर्थिक संकट, रूसी आर्थिक संकट, लेटिन अमेरिकी ऋण संकट और यूरोपीय संकट शामिल। बढ़ते पूंजी प्रवाह वाले विश्व में विनियामक चुनौतियों से नीतिगत त्रिविधा (संकट) पैदा हुई है - मौद्रिक नीति स्वायत्तता और निश्चित विनिमय दर के साथ पूंजी प्रवाह की असंगति, वित्तीय स्थिरता और पूंजी गतिशीलता के बीच असंगति और राजकोषीय नीति, मौद्रिक नीति और पूंजी गतिशीलता का पारस्परिक लेनदेन।
कुछ मायनों में अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष 2000 के दशक के मध्य में अप्रासंगिक हो गया था, क्योंकि किसी बड़े संकट के न होने के कारण कई देशों ने भंडारण निर्माण किया और इसे प्रमुख अर्थशास्त्रियों और नागरिक समाज की कड़ी आलोचना झेलनी पड़ी कि आईएमएफ अपना मिशन पूरा कर चुका है और अब इसके भुलाने का समय आ गया है। आलोचकों का स्पष्ट आह्वान था "50 साल बहुत होते हैं"। निजी पूंजी प्रवाह बहुत ज़्यादा हो गया था।
विकासशील देशों का कोटा और भूमिका अपर्याप्त थी, जिसके परिणामस्वरूप फंड से उधार लेने के लिए कठोर शर्तें लागू की गई थीं। प्रमुख मुद्दे और नीतियां फंड में विकसित नहीं की गई थीं बल्कि जी7 की बैठकों में की गई थीं, जिनमें फंड की वोटों का लगभग आधा हिस्सा मौजूद था। आईएमएफ के पास संकट समाधान के लिए सदस्यों की और वित्तपोषण का कोई बड़ा अनुरोध नहीं था। फंड के वित्तपोषण की व्यवहार्यता सुनिश्चित करने के लिए आईएमएफ कार्यकारी बोर्ड ने फंड के कुल भंडार में से 403.3 मीट्रिक टन यानी इसका 1/8वां सोना बेचने को मंजूरी दी। सोने की बिक्री का कार्यक्रम दिसंबर 2010 तक पूरा हो गया। भारत ने आईएमएफ की उधारी क्षमता बढ़ाने हेतु 10 अरब अमेरिकी डॉलर के बराबर आईएमएफ के नोट खरीदे।
2008 की महामंदी और वैश्विक वित्तीय संकट ने फंड निगरानी में विसंगतियों को उजागर किया, जिसके कारण महत्वपूर्ण बदलाव ज़रूरी हो गए। इससे बहुपक्षीय अंतर्राष्ट्रीय सहयोग के उच्चतम मंच के रूप में जी20 का उदय हुआ। उन्नत अर्थव्यवस्थाओं को प्रणाली में तरलता की बाढ़ लाने हेतु गैर-पारंपरिक मौद्रिक नीतियों और मात्रात्मक ढील और बड़े पैमाने पर परिसंपत्ति खरीद का सहारा लेना पड़ा।
2008 के वैश्विक वित्तीय संकट के बाद वैश्विक आर्थिक शासन के लिए आईएमएफ कोटा सुधारों का महत्त्व निहितार्थ था। आर्थिक वास्तविकता और कोटा के बीच बड़ा अंतर था। वैश्विक दृष्टिकोणों में असंतोष दूर करने का एक ही उपाय था - तेजी से बदलती आर्थिक वास्तविकता को प्रतिबिंबित करने के लिए कोटा में हिस्सेदारी बदलना। दिसंबर 2015 में अमेरिकी कांग्रेस ने आईएमएफ 2010 कोटे और शासन सुधारों को क़ानून बनाकर अधिकृत किया और उनके कार्यान्वयन की सभी शर्तें जनवरी 2016 में पूरी कर ली गयीं। कोटा और voice सुधारों के कार्यान्वयन से अधिक निरूपक और आधुनिक आईएमएफ का जन्म हुआ, जो 21वीं सदी में सदस्य देशों के लक्ष्यों को बेहतर पूरा करने वाले में सक्षम बना। आईएमएफ के 6 प्रतिशत से अधिक शेयरर गतिशील उभरती बाजार अर्थव्यवस्थाओं और विकासशील देशों और अधिक प्रतिनिधित्व वाले सदस्यों से कम प्रतिनिधित्व वाले देशों को हस्तान्तरित कर दिए गए। उन्नत यूरोपीय अर्थव्यवस्थाओं ने अपने संयुक्त कार्यकारी बोर्ड प्रतिनिधित्व को 2 चेयर से कम करने पर सहमति व्यक्त की। आईएमएफ बोर्ड में शीर्ष 10 कोटा शेयरधारक हैं- संयुक्त राज्य अमेरिका - 16.66, जापान- 6.21, चीन 6.14, जर्मनी 5.37, यूनाइटेड किंगडम और फ्रांस 4.07, इटली 3.05, भारत 2.66, रूस 2.61 और ब्राजील 2.24 प्रतिशत। मुद्राओं की एसडीआर टोकरी में रेनमीबी को शामिल किया गया और चीन को आईएमएफ में 4थे डिप्टी मैनेजिंग डायरेक्टर का पद मिला।
हालिया वर्षों में हुए दो घटनाक्रम प्रमुखता से सामने आते हैं - 19 सबसे बड़ी अर्थव्यवस्थाओं के प्रतिनिधि G20 ढांचे के साथ बढ़ता बहुपक्षवाद और यूरोपीय संघ का वैश्विक संकट से निपटने और अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा प्रणाली में अंतरराष्ट्रीय संस्थानों में सर्वकालिक अत्यधिक प्रभाव वाले चीन के उदय से निपटने के लिए समन्वयन निकाय बनना।
फंड के प्रशासन में भविष्य की चुनौतियों को मैंने अंतिम अध्याय में रेखांकित किया है - फंड की निगरानी की निष्पक्षता, वित्तीय क्षेत्र विनियमन, पूंजी खाता प्रबंधन और विनिमय दर प्रबंधन पर फंड का काम और नई प्राथमिकताएं और नीतियां।
8 अक्टूबर, 2016 को फंड -बैंक की वार्षिक बैठकों के दौरान भारतीय वित्त मंत्री ने अंतर्राष्ट्रीय मौद्रिक और वित्तीय समिति को संबोधित किया और सकल घरेलू उत्पाद की 7.2 प्रतिशत विकास दर, 372 अरब अमेरिकी डॉलर के विदेशी मुद्रा भंडार, (-) 1.1 प्रतिशत चालू खाता घाटा और 5.05 प्रतिशत उपभोक्ता मूल्य सूचकांक मुद्रास्फीति वाले भारत को सर्वाधिक तेज़ी से बढ़ती प्रमुख अर्थव्यवस्था के रूप में पेश किया। 25 साल में आईएमएफ द्वारा समर्थित अर्थव्यवस्था से दुनिया की सर्वाधिक तेज़ी से बढ़ती अर्थव्यवस्था बनना भारत -आईएमएफ संबंधों के मामले में सफलता की अहम गाथा है.
लंबे समय से मेरा विचार रहा है कि आईएमएफ भारत के लिए अब भी बहुत प्रासंगिक है। आईएमएफ अत्यधिक विश्वसनीयता वाला संस्थान है जिसकी आवाज़ दुनिया भर में सुनी जाती है और इस पर ध्यान दिया जाता है। आज भारत मध्यम तौर पर मुक्त अर्थव्यवस्था है। अगले 5 वर्षों में हमारी व्यवस्था और अधिक मुक्त होगी। भारत की वित्तीय प्रणाली वैश्विक अर्थव्यवस्था के साथ काफी तेजी से एकीकृत हो रही है। भारत की आर्थिक संभावनाएं पहले से कहीं अधिक वैश्विक विकास और कल्याण पर निर्भर करती हैं।
मेरा निमंत्रण स्वीकार करने के लिए मैं एक बार फिर आरबीआई गवर्नर श्री शक्तिकांत दास, श्री के.वी.ईपेन, डॉ. अनूप सिंह और डॉ. एंड्रियास बाउर का बहुत आभार व्यक्त करता हूँ। मैं आईसीडब्लूए के महानिदेशक डॉ. टी.सी.ए.राघवन और उनकी सारी सीनियर टीम का आभारी हूँ, जिन्होनें पिछले 2 वर्षों में मेरी मदद की है। उनके निरंतर समर्थन के लिए मैं अपने परिवार का आभारी हूं। इस खास मौके पर मैं आप सभी श्रोताओं को भी धन्यवाद देना चाहूंगा।