अफगान शांति प्रक्रिया में नए घटनाक्रम पर
श्री मुहम्मद उमेर दाउदज़ई
की वार्ता का
प्रतिलेख
17 मई 2019
(सप्रू हाउस, नई दिल्ली)
उमेर दाउदज़ई [यूडी]: देवियो और सज्जनो, शुभ अपरान्ह। सबसे पहले तो मैं इस अवसर पर वैश्विक मामलों की भारतीय परिषद को धन्यवाद देना चाहता हूँ, जिसने मुझे यहां आने और ऐसे गणमान्य श्रोताओं से बात करने का अवसर दिया और साथ साथ सभी पुराने मित्रों और सहयोगियों से मिलने का अवसर भी दिया। हो सकता है कि मुझे आपसे एक-एक कर या अलग-अलग मिलने का अवसर मिलता, लेकिन आप सभी से यहां एक साथ मिलना मेरे लिए बड़ा सम्मान है, इसके लिए आईसीडब्लूए को धन्यवाद। वास्तविक विषयों पर आने से पहले मुझे अपने दो सहयोगियों के बारे में अपने अनुभव और दिल की बात साझा करने दें, जब मैं इस्लामाबाद में सेवारत था, तब मैंने महसूस किया कि दूतावास से भारतीय राजदूत के घर ज़्यादा बार आना-जाना नहीं होता था और एक रात मैं खाने के लिए गया और वहां पहुंचे एक और मेहमान ने कहा कि बाहर सड़कों पर बहुत सारी पुलिस है और पूछा कि यह क्या है और उन्होंने [राजदूत राघवन] ने कहा क्योंकि दाउदज़ई यहां हैं, इसलिए इस्लामाबाद पुलिस को अजीब लगता है और फिर मैं राजदूत काटजू से मिला और यह बात सच है कि बहुत दुखद अवसर पर मिला, भारतीय विमान का अपहरण होने पर, जिसके बारे में, अगर आईसीडब्ल्यूए कभी चाहे तो मैं कभी आकर विस्तार से बता सकता हूँ क्योंकि इस विषय के बारे में कुछ ही मिनटों में बताना मेरे लिए संभव नहीं है। यह एक बहुत लंबा विषय है और मुझे लगता है कि इसके कई पहलू हैं, जिनके बारे में आप भारत के लोग नहीं जानते हैं। मैं आपके साथ अपनी एक स्मृति साझा करूंगा। इस घटना के कई साल बाद मैं ज़ी टीवी देख रहा था और उस समय विमान के कप्तान रहे सज्जन बातचीत करने वाले मेहमान के तौर पर मौजूद थे और उनसे पूछा गया कि उनके साथ कैसा व्यवहार किया गया था तो उन्होंने कहा कि वे हमें बाहर से खाना भेजते थे, वहां तौलिए जैसे बहुत बड़े नान [अफ़ग़ानी रोटी] होते थे, जिसके अंदर चिकन भरा होता था और उन्होंने कहा कि मैंने उन्हें फोन किया कि हम में से ज़्यादतर चिकन खाना पसंद नहीं करते हैं, हम असल में दाल और चावल खाना पसंद करेंगे, लेकिन वे उस उदासी के माहौल में वैसे भी नहीं खा रहे थे और एंकर ने उनसे पूछा कि आपने उस बड़े नान का क्या किया, उन्होंने कहा कि हमने इसे तौलिए के तौर पर इस्तेमाल किया। नौ दिनों के उस अत्यंत दुखद प्रकरण के बारे में कहने को बहुत कुछ है।
इसलिए वर्तमान दुनिया में वापस आते हैं। यदि आप मुझे अनुमति दें तो मैं आपसे तीन मुख्य विषयों के बारे में बात करूंगा और अगर आप मुझसे अन्य विषयों के बारे में प्रश्न पूछते हैं तो मैं आपकी सेवा में हाज़िर हूँ, शांति के बारे में, लोकतंत्र के बारे में और रक्षा के बारे में, इन तीन विषयों पर मैं शुरू में बात करूंगा लेकिन सबसे पहले शांति पर, क्योंकि यह सबसे महत्वपूर्ण विषय है और इसके बारे में कुछ तथ्य हैं। इन तथ्यों में से एक यह है कि अफगानिस्तान में, देश में पूरा एकमत है कि हर कोई युद्ध का अंत चाहता है, 40 साल की हिंसा काफी होती है, लोग हिंसा से तंग आ चुके हैं और अब उनके सफेद दाढ़ी आ चुकी है, वे 40 साल या इससे ऊपर के हो चुके हैं और युद्ध अभी भी जारी है, इसलिए उन्होंने कभी भी शांतिपूर्ण अफगानिस्तान नहीं देखा है। मैं कुछ भाग्यशाली लोगों में हो सकता हूं, जिन्होनें युद्ध से पहले का शांतिपूर्ण अफगानिस्तान देखा है। मुझे याद है वो वाला काबुल, वो वाला अफगानिस्तान जहां पड़ोसी देशों से आने वाले दम्पति काबुल में और बामियान और मज़ार-ए-शरीफ में अपना हनीमून मनाने आते थे और फिर से इस्लामाबाद की याद आ रही है, जब मैं वहां सेवारत था, मैं उन दंपतियों से मिला, जो कहते थे कि वे एक-दो दिन बिताकर काबुल के सिनेमाघरों में भारतीय फ़िल्में देखने के लिए बस द्वारा काबुल जा रहे हैं, क्योंकि इस्लामाबाद में उन पर पाबंदी थी, इसलिए वे भारतीय फिल्में देखने के लिए इतना रास्ता तय कर काबुल जाएंगे। ऐसी कई मीठी यादें हैं मेरे मन में और मैं उन चंद लोगों में से हूँ, जिनके मन में वह स्मृति है। मैं इसे अपनी पीढ़ी का दायित्व मानता हूं, कम से कम जब हम इस दुनिया छोड़ें तो हम अगली पीढ़ी को ऐसा अफगानिस्तान सौंपें जो शांतिपूर्ण हो, कि वे कहें ठीक है धन्यवाद, आप हमारे लिए अच्छी चीज़ छोड़कर गए हैं नाकि [ताहिरी- एक अफगान प्रतिभागी] यह कहे कि ये आप हमारे लिए पीछे क्या छोड़कर गए हैं, हम यहां नहीं रह सकते और न ही इसे बेच सकते हैं, इसलिए मैं आशा करता हूँ कि मैं वो दिन देख पाऊंगा।
वैसे भी गुमनामी है, सभी अफगानों का मानना है कि हिंसा समाप्त होने का समय आ चुका है और यह युद्ध खत्म हो जाए। और यह बात हाल में हुई लोया जिरगा में स्पष्ट तौर पर नज़र आई। अब लोया जिरगा पर मैं थोड़ी कुछ देर बाद आऊंगा लेकिन मैं बात वहां शुरू हुए नए युग से शुरु करूंगा। यह नया युग एक साल पुराना है। यह अमेरिकी राष्ट्रपति के कहने पर या आप इसे जो भी कहें, युद्ध को समाप्त करने के तरीके और उपाय तलाशने के लिए शुरू हुआ। लगभग एक साल पहले अमेरिका की उप-विदेश मंत्री [दक्षिण और मध्य-एशियाई मामलों की सहायक विदेश मंत्री] मैडम एलिस वेल्स ने काबुल का दौरा किया था और मैं उस समय सरकार में काम नहीं कर रहा था न ही हाई पीस कौंसिल के साथ। एक तरह से मैं विपक्ष में था, आप इसे सरकार से इतर कोई राजनीतिक समूह कह सकते हैं। उन्होंने मेरे साथ समूह में और अकेले में भी सलाह-मशवरा किया। Now as I understood all Afghans that matter then that the U.S. consulted they told them yes and सही समय है कि आप तालिबान से आमने-सामने बैठकर बातचीत करें, लेकिन फिर हम में से ज़्यादातर लोगों ने इस काम के लिए एक शर्त रखी और स्पष्ट सलाह दी। इसमें से एक यह था कि तालिबान से बातचीत मत करें। चूंकि तालिबान कोई देश नहीं है, यह सरकार नहीं है _______not clear ____________ लंबी नहीं होनी चाहिए, इसे छोटा रखा जाना चाहिए। एक या दो बार ऐसा करने के बाद अफ़ग़ान सरकार और तालिबान को एक दूसरे से बातचीत शुरू करनी चाहिए, लेकिन उन्होंने शुरुआत कर दी। तालिबान और अमेरिका के बीच पहली बैठक मैडम ऐलिस विल्स के माध्यम से हुई और फिर उन्होंने राजदूत खलीलज़ाद को नियुक्त किया, उन्होंने नई टीम बनाई और कुछ ही समय में वे इसे तालिबान के साथ वार्तालाप के स्तर तक ले गए और यह अब भी चल रहा है। हालांकि सैद्धांतिक तौर पर वे और उनकी टीम नियमित रूप हमारे साथ सरकार के तौर पर और हाई पीस कौंसिल के तौर पर जानकारी साझा कर रही है, लेकिन हमें इस बारे में विश्वास नहीं है कि वे हमारे साथ कितनी जानकारी साझा कर रहे हैं। जो वे हमारे साथ साझा कर रहे हैं, क्या यही पूरा सच है या यह कुछ ऐसा भी है जो वे हमारे साथ साझा नहीं कर रहे हैं, इस बारे में हम नहीं जानते हैं, लेकिन कम से कम हर बार जब भी खलीलज़ाद उस क्षेत्र में आते हैं तो काबुल भी आते हैं और सरकार और राजनीतिक श्रेष्ठि वर्ग से मिलते हैं और फिर जाकर तालिबान से बातचीत कर काबुल वापस आकर हमें जानकारी देते हैं। काबुल में कुछ हलक़ों में शिकायत है कि हम उनके साथ ज़्यादा बातें साझा नहीं कर रहे हैं। व्यक्तिगत तौर पर मैं यह कह सकता हूँ कि शायद अपने हिसाब से उन्होंने यथासंभव जानकारी साझा की है, शायद ऐसा इसलिए है क्योंकि मैं मेरे कंधों पर दोहरी ज़िम्मेदारी है, और इस ज़िम्मेदारी वाले मुद्दे पर आगे जाने से पहले मैं कुछ और कहना चाहता हूं। चार साल तक मेरे पास कोई काम नहीं था, घर बैठे रहना, आराम करना और इंतज़ार करना या असल में मेरे पास कोई पदनाम नहीं था, और अचानक आपने कहा दो पदनाम, दरअसल मेरे पांच पदनाम हैं और दो अन्य पदनाम हैं - क्षेत्रीय सहमति निर्माण हेतु राष्ट्रपति का विशेष दूत और प्रवक्ता, नेतृत्व परिषद और सुलह, जिस परिषद में शीर्ष नेता हैं और कभी-कभी अफगानिस्तान में जब मीडिया वाले मुझे उद्धृत करना चाहते हैं तो वे ताहिरी को फोन कर पूछते हैं कि वे मेरा कौन सा पदनाम इस्तेमाल करें? यही तो ज़िंदगी है, कभी-कभी आपका कोई पदनाम नहीं होता है और कभी-कभी आपके बहुत से पदनाम होते हैं। वैसे ज़िम्मेदारियों और राजदूत ख़लीलज़ाद के हमारे साथ जानकारी साझा करने पर वापस आते हैं, जहां तक मैं जानता हूँ, मैं इस काम के लिए तैयार हूं और आगे चलकर आपके साथ जानकारी साझा कर मुझे बहुत खुशी होगी। लेकिन जो बात साफ़ है कि अफगानिस्तानी लोग अमेरिका और तालिबान के बीच होने वाली बातचीत की शुरुआत से ज़्यादा आशावान दिखाई देते हैं। यह सच है कि आमतौर पर लोग ज़्यादा आशावान होते हैं, और दूसरा सच यह भी है कि तालिबान का रुतबा ऊंचा हो गया, उन्हें राजनीतिक लाभ मिला और यह बात कि जिस स्तर पर तालिबान को राजनीतिक लाभ हुआ, वह युद्ध-क्षेत्र की ज़मीनी स्थिति का सूचक नहीं है, जिसके बारे मैं बाद में सुरक्षा के शीर्षक के तहत बात करूंगा.
वैसे भी दोनों तरह के लोग होते हैं - लोग आशावान तो होते ही हैं, लेकिन लोग निराशावादी भी होते हैं। मैंने आपको पहले बताया कि वे निराशावादी क्यों हैं, क्योंकि बातचीत बहुत लंबी हो गई थी और असली पक्ष, एक पक्ष यानी सरकार उसमें से गायब है, इसलिए यह बात उनकी निराशा का कारण है। अब किसी भी हालात में अमेरिका और तालिबान की बातचीत में चार मुद्दे शामिल थे और उनका क्रम था, जो इस तरह के हालत में महत्वपूर्ण है, क्रम बनाना महत्वपूर्ण है। वे कहते हैं- पहला विषय था अफगानिस्तान से अमेरिका की वापसी। दूसरा विषय था तालिबान का आतंकवाद और आतंकियों से संबंध, तीसरा विषय था अफगान के अंदर का वार्तालाप और चौथा विषय था युद्धविराम।
अब पहले वाले की बात करते हैं, जहां वे हैं; हालाँकि हमें पता था कि अलग अलग भाषाओं में कई रूपों में इसे फैलाया गया है, लेकिन जहाँ तक मुझे पता है, तालिबान ने वापसी के ऐसे कार्यक्रम की मांग की थी जो छह महीने से अधिक लंबा न हो। जबकि अमेरिका ने उन्हें बताया है कि वे सदा के लिए अफगानिस्तान में रहने का इच्छुक नहीं है, लेकिन वापसी शांति समझौते के बाद ही होनी है, ताकि सभी अफगानी लोग हमें छोड़ने के लिए कहें तो हम वापसी का कार्यक्रम दे सकें। हम अफगानी समाज के एक अंग यानी तालिबान की मांग के आधार पर वापसी कार्यक्रम नहीं दे सकते हैं। जहां तक मुझे मालूम है यही वास्तविक स्थिति है, लेकिन सैद्धांतिक तौर पर, उन्होंने कहा है कि हम हमेशा यहां रहने के इच्छुक नहीं हैं, लेकिन हमारी वापसी शांति पर और शांति समझौते के होने पर निर्भर करती है और शांति समझौते के बाद अगर सभी अफगानी लोग मिलकर हमें छोड़ने को कहते हैं, तो हम आपको वापसी का कार्यक्रम दे देंगे। या तो तालिबान ने शुरु में इसे ग़लत समझा या वे जानबूझकर ग़लत समझना चाहते थे, उन्होंने अलग बात कही कि अमेरिकियों ने अपनी सहमति दे दी है कि वे जल्द ही वापस लौट जाएंगे।
दूसरे मुद्दे पर भी कई बातें कही गयीं, अलग अलग बातें फैलाई गईं जैसे अमेरिकियों ने तालिबान से गारंटी माँगी थी कि किसी और देश के खिलाफ अफगानिस्तान की सरज़मीं का इस्तेमाल नहीं किया जाएगा। ऐसा नहीं था क्योंकि कोई भी व्यक्ति तालिबान को पूरे देश का शासक नहीं कह सकता था न ही कोई यह मानता था कि वे पूरे देश पर अपना कब्ज़ा कर लेंगे, कि वे इस बात की गारंटी देंगे कि इस देश को दूसरे के खिलाफ इस्तेमाल नहीं किया जाएगा। अमेरिका का स्पष्टीकरण यह था कि हम उन इलाक़ों की बात करें जो उनके नियंत्रण में हैं और वे इलाके जो शांति समझौते के पूर्ण कार्यान्वयन तक उनके नियंत्रण में रहते हैं, तो तब तक यदि उनके नियंत्रण में वे क्षेत्र हैं तो उन्हें सुनिश्चित करना होगा इन क्षेत्रों का किसी तीसरे देश के खिलाफ इस्तेमाल न किया जाए। अब इस भाषा में भी अस्पष्टता है, हमारे विचार में तो हमें उम्मीद थी कि स्पष्ट भाषा में कहा गया होगा कि तालिबान को सभी आतंकवादी और चरमपंथी समूहों से अपने संबंध तोड़ लेने चाहिये और उनसे उनका कोई संबंध, सहयोग, या सहभागिता नहीं होगी और यदि आवश्यक हो तो वे देश के साथ मिलकर आतंकवादी समूहों के खिलाफ लड़ेंगे।
अब हमें तो ऐसी भाषा की अपेक्षा थी। अब हाल ही में अमेरिका ने हमें बताया कि वे इसमें बदलाव कर इसी तरह की भाषा की ओर अग्रसर हैं, और ऐसा उन्होंने स्पष्ट तौर पर कहा था, तालिबान ने उसी भाषा का इस्तेमाल किया कि अतीत में हम किसी तरह अल क़ायदा से जुड़े हुए थे, हम अल-कायदा का नाम लेना चाहते हैं, कि अल-कायदा से अब हमारा कोई संबंध नहीं होगा। लेकिन जो भी हो, इन दोनों मुद्दों पर किसी स्तर की आपसी समझ हो सकती है, लेकिन अमेरिकी प्रतिनिधि ने स्पष्ट कहा और वे बार-बार कह रहे हैं कि जब तक सभी मुद्दों पर समझौता नहीं होता है, तब तक किसी भी मुद्दे पर कोई समझौता नहीं होगा। तो यह है समग्र स्थिति।
तो इसके बाद लोया जिरगा से ठीक पहले अमेरिकी प्रतिनिधि हमारे पास आए और हमें कहा कि अब क़तर में अंतर-अफगान वार्तालाप कराने का सही समय आ गया है। हालांकि हम उस समय लोया जिरगा के बारे में सोच रहे थे, शुरू में हमारी सरकार का यह मत था कि हम किस हद तक जा सकते हैं और बातचीत की रूपरेखा क्या होनी चाहिए- यह जानने के लिए चलो अफगानिस्तान के लोगों से फिर से जनादेश लेने हेतु लोया जिरगा की प्रतीक्षा करें और फिर लोया जिरगा के बाद हम क़तर जा सकते हैं। लेकिन फिर उन्होंने ज़ोर दिया और क्योंकि हम साझेदार हैं, रणनीतिक साझेदार हैं, अफगानी सरकार ने बात पर सहमति जताई कि ठीक है, हम दोहा जा सकते हैं और लोया जिरगा इसके बाद हो जाएगी। लेकिन हमने लोया जिरगा की तारीख बदलने का विरोध किया, जिस पर हम डटे रहे। क़तर जाने की तैयारी चल रही थी, छोटी सूची, मध्यम सूची, बड़ी सूची, अत्याधिक बड़ी सूची, आखिरकार संख्या 250 तक पहुंच गई और यह एक तरह का मजाक बन गया और फिर सब कुछ ठप्प हो गया, यह वार्ता हुई ही नहीं। हम वापस लोया जिरगा की ओर गए, जिसकी तारीख हमने नहीं बदलने का फैसला किया था। अब मैं जिरगा के बारे में चंद शब्द कहूंगा और फिर उसके बाद यदि आपके कोई प्रश्न हैं, उन पर वापस आ सकते हैं।
इस जिरगा को बुलाने का मक़सद था तालिबान से बातचीत करने के बारे में राष्ट्रपति के आदेश को दोहराना, क्योंकि हमारे यहां जनमत संग्रह प्रणाली नहीं है और हमारे यहां पार्टी-आधारित राजनीति नहीं होती है कि राष्ट्रपति जनता से और अपनी पार्टी से परामर्श करें। हमारी परंपरा है कि जब भी राष्ट्रपति को कोई बड़ा फैसला करना होता है तो उसे लोया जिरगा में लाया जाना होता है और यही वह मंच है जहां मुद्दों पर चर्चा हो सकती है और राष्ट्रपति जनादेश प्राप्त कर सकते हैं, मार्गदर्शन ले सकते हैं। शांति और सामंजस्य नामक मुद्दों पर हुई अंतिम लोया जिरगा 2010 में आयोजित की गई थी जब राष्ट्रपति करज़ई का विचार था कि उन्हें तालिबान से बातचीत करने के लिए नया जनादेश चाहिए और इसी सत्र में लोया जिरगा प्रतिनिधियों ने हाई पीस कौंसिल स्थापित करने की सिफारिश की थी। तो अब समय आ गया है कि राष्ट्रपति गनी भी महसूस करें कि उन्हें लोया जिरगा में वापस जाना है, लेकिन इस लोया जिरगा के बारे में कुछ अनूठी बात है। सर्वप्रथम तो, आकार के हिसाब से यह अफगानिस्तान के इतिहास में सबसे बड़ी लोया जिरगा है।
जैसे कि आप जानते हैं कि आधुनिक इतिहास में सबसे महत्त्वपूर्ण लोया जिरगा 1747 में हुई थी, जब अहमद शाह अब्दाली राजा बने थे और इस क्षेत्र को उस तिथि से अफगानिस्तान कहा जाने लगा। तो तब से अब तक विभिन्न शासकों द्वारा गठित दर्जनों लोया जिरगा रही हैं। इससे पहले सबसे बड़ी लोया जिरगा डॉ. नजीबुल्लाह ने, मुझे लगता है 1986 या 87 में, आयोजित की थी और जो पॉलिटेक्निक में कमोबेश उसी स्थान पर हुई थी। उन्होंने 2000 प्रतिनिधि बुलाये थे। इस बार प्रतिनिधियों की संख्या 3,383 थी, लेकिन फिर इस लोया जिरगा की जो सबसे अनूठी बात थी, वह यह थी कि सभी प्रतिनिधि चुने गए थे; प्रत्यक्ष मतों द्वारा नहीं चुने गए थे कि कोई मतपेटी है और वहां हर कोई जाकर वोट देता है, दरअसल यह अप्रत्यक्ष चुनाव होता है जैसे जीवन के विभिन्न क्षेत्रों से जुड़े अगुआ किसी भौगोलिक क्षेत्र में बड़े हॉल में इकट्ठा होकर वोट डालते हैं या बस अपने हाथ उठाकर किसी एक को अपना प्रतिनिधि चुनते हैं। तो किसी की नियुक्ति नहीं की गई, हर व्यक्ति इस अप्रत्यक्ष चुनाव के माध्यम से आया था। इस लोया जिरगा से जुड़े दो सिद्धांत थे और सौभाग्यवश हम उन दोनों सिद्धांतों पर पूरे उतरे, हालांकि हमारे पास समय सबसे कम था। एक सिद्धांत तो यह था कि कम से कम 30% महिला सदस्य होनी चाहिए, जो अपने आप में अभूतपूर्व था और वे खुशी-खुशी आ रही थीं, और अंतत: हमारे पास 30.5% महिलाएं हो गयीं, और ऐसा होना आसान नहीं था क्योंकि हमें दूर- दराज़ ज़िलों से महिलाओं को चुने जाने और यहां आने का अवसर सुनिश्चित करना था।
दूसरा सिद्धांत बुनियादी तौर से राष्ट्रपति का निर्देश था, कोई डिक्री नहीं था, बल्कि मौखिक निर्देश था कि सुनिश्चित किया जाए कि दुनिया में कहीं भी कोई ऐसा अफगानी व्यक्ति न हो जिसे लगे उसे प्रतिनिधित्व नहीं मिला है। इस तरह से यदि हमें इसे वास्तव में लागू करें तो इसका मतलब यह है कि अफगानिस्तान के हर ज़िले को प्रतिनिधित्व मिलना चाहिए और अफगानिस्तान का हर जिला सरकार के नियंत्रण में नहीं है। कुछ ज़िले ऐसे भी हैं जिन पर तालिबान का नियंत्रण है, तो इसलिए हम वह उद्देश्य चुनते हैं कि जिससे हम सुनिश्चित कर सकें कि तालिबान के नियंत्रण वाले जिलों से भी प्रतिनिधि आएं और सौभाग्य से ऐसा हुआ भी। 386 जिलों में से कुल मिलाकर 381 जिलों का प्रतिनिधित्व था, और जनसंख्या के आधार पर हर जिले से कम से कम एक प्रतिनिधि होना अनिवार्य था। किसी जिले से, जिसमें एक से अधिक ज़िले थे, फिर हमने इस बात का दबाव डाला कि उस जिले का प्रतिनिधित्व करने वाली एक महिला भी होनी चाहिए। सर्वाधिक दूर ज़िलों जैसे सुदूरवर्ती पकतिया और नूरिस्तान जिलों से, जिस इलाके से राजदूत परिचित हैं, हमारे पास महिला प्रतिनिधि थीं और मीडिया ने उनका साक्षात्कार लिया था। यह मेरा दावा नहीं है।
मीडिया ने उनसे साक्षात्कार किया, जिसे लिबर्टी रेडियो और कई अन्य माध्यमों से प्रसारित किया गया। इसलिए जो भी हो, जिन पांच ज़िलों ने अपने प्रतिनिधि नहीं भेजे, उनमें से चार जिले ऐसे हैं, जिन पर सरकार के रूप में कभी भी हमारा नियंत्रण नहीं रहा। ये दो ज़िले थे हेलमंद के बाग़रान और दिशु, शुरू से अब तक कभी भी ये हमारे नियंत्रण में नहीं रहे, हमें पता नहीं कि वहां क्या हो रहा है। हो सकता है दाएश वहीं फल-फूल रहा हो या फ़ैल रहा हो या हो सकता है तालिबान भी वहां फल-फूल रहा हो या हमें पता नहीं कि वहां क्या हो रहा है। अब अन्य दो जिले हैं - ख़ाक़ -ए-अफगान और ज़बुल में एक जिला और दूसरा है नावा। एक ज़िला जो काफी सुरक्षित था, वो था सालंग के परवन में, वह भी वंचित रहा लेकिन ऐसा करना उनका अपना चुनाव था। वे उस संख्या से दोगुना प्रतिनिधि चाहते थे, जो हम उन्हें दे सकते थे, जिन्हें जनसंख्या के आधार पर आबंटित किया जाता है। वे यह कहकर दोगुना अधिक प्रतिनिधित्व मांग रहे थे कि हम तालिबान के खिलाफ हुए युद्ध में प्रतिरोध के केंद्र में रहे हैं, हमने इतनी कुर्बानियां दी हैं, हमें दुगना प्रतिनिधित्व दिया जाना चाहिए, यह मानदंड आयोग को स्वीकार नहीं था। उस आयोग ने उनकी मांग खारिज कर दी और उन्होंने कहा कि हम प्रतिनिधि नहीं भेजेंगे, तो वो पांचवां ज़िला था। तो इस तरह से अफगानों को प्रतिनिधित्व देने के इस सिद्धांत से मैं संतुष्ट था। हमारे यहां ऑस्ट्रेलिया से एक अफगान था, हमारे यहां अमेरिका से कुछ अफगान थे, हमारे यहां यूरोप से भी कई अफ़ग़ान थे, लेकिन उन्हें प्रतिनिधित्व नहीं दिया गया, जनसंख्या के आधार पर प्रतिनिधित्व नहीं दिया गया।
गणमान्य अफगानों से संपर्क साध कर पूछा गया कि अगर वे आना चाहते हैं तो आ सकते हैं, और वे लोग इसी तरह से आए। पाकिस्तान से शरणार्थियों ने भाग लिया, ईरान से शरणार्थियों ने भाग लिया, और फिर हमारे यहां अन्य राष्ट्रीय श्रेणियां थीं, और मैं एक बहुत ही महत्वपूर्ण श्रेणी का ज़िक्र करने जा रहा हूं, जिसकी हमने पहली बार शिनाख्त की थी -युद्ध पीड़ित। और युद्ध पीड़ितों को हमने दो वर्गों में बांटा था- नागरिक पीड़ित और युद्ध में मारे गए सैनिकों के परिवार। उन्हें लाने के पीछे हमारा कारण यह है कि हम तालिबान या सामंजस्य वाले तालिबान के नियंत्रण वाले लोया जिरगा में आएंगे, और वे अपना दृष्टिकोण साथ लाएंगे। हम दूसरे छोर का अलग दृष्टिकोण भी लाना चाहते थे जो मीडिया में हर जगह चिल्ला कर कहते हैं कि हम तालिबान से समझौता नहीं करना चाहते हैं। हम चाहते हैं कि तालिबान के अगुआओं को अदालत में पेश होना चाहिए, मंत्रालय में या कहीं और नहीं। तो इसलिए हम उस श्रेणी को भी ले आये।
लोया जिरगा की कार्यवाही में तीन भाग थे, उद्घाटन - जो मूलतया राजनीतिक प्रकृति का होता है और फिर समिति अपना काम करती है। प्रतिनिधियों को 50 समितियों में बांटा गया था और यहीं असली वाद-विवाद हुआ। पूरे लोया जिरगा के उपाध्यक्ष और सचिवों को मत के माध्यम से सीधे चुना गया था और समितियों में भी वे अपने अध्यक्ष और संवाददाताओं का चयन खुद ही करते हैं। वहां हुई बहसें काफी दिलचस्प रहीं। वहाँ हमने फिर देखा कि शांति की आवश्यकता पर पूर्ण एकमत था लेकिन इसे कैसे किया जाए और शांति के लिए हम कैसी रियायतें देने को तैयार हैं, इस मुद्दे पर गंभीर मतभेद थे और हम चाहते थे कि यही बात सामने आये और इसे ही हम बातचीत की रूपरेखा कहते थे, क्योंकि कुछ सदस्य कतई किसी भी सुलह के पक्ष में नहीं थे, जो बहुमत में लोग चाहते थे, लेकिन जो लोग ऐसा चाहते थे, उन्होंने हम पर कुछ बंधन तय किये और यही हम भी चाहते थे, जैसे कि उन्होंने संविधान की कुछ धाराओं को रेखांकित किया और यह कहा कि इन धाराओं पर कोई बातचीत नहीं होगी।
जैसे देश का नाम अफगानिस्तानी इस्लामिक गणराज्य, उन्होंने कहा कि इस पर कोई बातचीत नहीं हो सकती है। बोलने की स्वतंत्रता, महिलाओं की शिक्षा, काम करने, राजनीतिक अधिकारों का उपयोग करने के अधिकार, इन सभी को लाल रंग से रेखांकित किया गया था, कि इन पर बातचीत नहीं हो सकती है, हालांकि अन्य धाराओं पर बातचीत हो सकती है।
तो मुझे लगता है कि इस मुद्दे पर शायद मैंने काफी कुछ कह दिया है और बाकी दो मुद्दों पर मैं थोड़ा संक्षिप्त में बात करूंगा। अब दो अन्य मुद्दे हैं- एक है लोकतंत्र, जिसके लिए हम भारत के आभारी हैं क्योंकि हमें भारत से इसकी प्रेरणा मिलती है। हमारा लोकतंत्र भारत से प्रेरित है, लेकिन इससे भी आगे, असल में हमारा संसद भवन भी भारत द्वारा, भारतीय इंजीनियरों द्वारा, भारतीय धन से बनाया गया है, और जो दुनिया के सर्वाधिक भवनों में शामिल होने के अलावा इस पूरे क्षेत्र के सर्वाधिक आकर्षक भवनों में से एक है, और यह भवन क्रियाशील है, और भारत हमें संसद को क्रियाशील बनाने, सांसदों के आदान-प्रदान, प्रशिक्षण के मामले में मदद दे रहा है।
सभी प्रकार का समर्थन मिल रहा है। संसदीय कार्यवाही थोड़ी देर के लिए बाधित हो गई थी क्योंकि संसदीय चुनाव में तीन साल की देरी हुई, आखिरकार, यह चुनाव पिछले साल हुआ और समस्या खड़ी हो गयी, शुक्र है भगवान का कि दो हफ्ते पहले नई संसद का काम शुरू हुआ और कल उन्होंने अध्यक्ष पद का चुनाव किया। किसी को भी 50% से अधिक एक भी वोट नहीं मिला, जो अनिवार्य था, इसलिए अब रन ऑफ होगा और फिर से रन ऑफ में यदि कोई इतने वोट पाने में विफल रहा तो नए उम्मीदवार आएंगे। लोकतांत्रिक और संसदीय काम अनुबंध होते हैं, तो हम बहुत खुश हैं और अब हम फिर खुशी से राष्ट्रपति चुनाव करा सकते हैं। मुझे यकीन है आपने सुना होगा कि 22 मई को राष्ट्रपति गनी का कार्यकाल समाप्त हो रहा है और उनकी जगह अंतरिम सरकार और कार्यवाहक होगा। मुझे लगता है कि यह अभियान के मुद्दे का हिस्सा है, ये कोई वास्तविक मुद्दे नहीं हैं क्योंकि सर्वोच्च न्यायालय ही वह मुख्य निकाय है, जिसने संविधान की व्याख्या दी है और उनकी व्याख्या के अनुसार राष्ट्रपति किसी नए राष्ट्रपति के निर्वाचित होने तक अपने पद पर आसीन रहेंगे लेकिन एक अन्य धारा भी महत्वपूर्ण है, जिसमें कहा गया है कि राष्ट्रपति का कार्यकाल पांच साल का होता है।
अब राष्ट्रपति गनी का पांच साल का कार्यकाल 29 सितंबर को पूरा हो रहा है, इसलिए कम से कम उस तारीख तक तो वैधता का कोई असल मुद्दा नहीं है, और इसीलिए चुनाव की नई तारीख 28 सितंबर तय की गई है, और इस बारे में मुझे पूरा यकीन है कि निश्चय ही यह चुनाव होगा। यह चुनाव पहले भी हो सकता है क्योंकि हमारे यहां नया आयोग है, पुराने आयोग को बर्ख़ास्त कर दिया गया था और यह नया आयोग है। हो सकता है, अब नया आयोग सुरक्षित तरीके से खेलने की ख़ातिर कदम थोड़ा आगे बढ़ा सकता है क्योंकि अगर कोई रन ऑफ होता और फिर सर्दी आ जाती है।
मुझे पता है कि नए आयोग के अंदर इस बात पर बहस चल रही है कि वे तारीख़ को थोड़ा आगे ला सकते हैं। एक और कारण है कि मैं क्यों कहता हूं कि मुझे यकीन है कि ऐसा होगा, उनके सामने पैसे की समस्या थी, और फिर सरकार ने पैसा देने का फैसला किया, फिर अंतरराष्ट्रीय प्रयास हुए और उन्होंने कहा कि हम भी आपको पैसा देना चाहते हैं लेकिन पारदर्शिता के स्तर पर हमारा कुछ हस्तक्षेप होना चाहिए। अगर पैसे की कोई समस्या नहीं है, तो आयोग को कोई समस्या नहीं है, तो ऐसा क्यों नहीं होना चाहिए। समस्या यह थी कि यह बायोमेट्रिक होना चाहिए। अब उन्होंने हार मान ली है क्योंकि नए आयोग की राय में उनके पास बायोमेट्रिक के लिए पर्याप्त समय उपलब्ध नहीं है। यहां तक कि बायोमेट्रिक करने के लिए हो सकता है पूरा साल भी पर्याप्त न हो। मैं आपको इसके बारे में आश्वस्त करता हूं कि 22 मई कोई बड़ा मुद्दा नहीं है और 28 सितंबर को राष्ट्रपति चुनाव होगा, लेकिन उसके बाद क्या होता है, इसके बारे में अनुमान लगाना काफी मुश्किल है। क्योंकि जब जब हमारे यहां राष्ट्रपति चुनाव हुए हैं, उसके बाद भी समस्याएं हुई थीं, और यह चमत्कार ही होगा कि 28 सितंबर को हमारे यहां चुनाव हों और उसके बाद कोई समस्या न हो। समस्या हो सकती है, लेकिन मेरे विचार में तो परिणाम के बारे में अनुमान लगाया जा सकता है। मेरी व्यक्तिगत भविष्यवाणी यह है कि पिछले पांच वर्षों में जो हुआ, हमें उसका दोहराव देखने को मिलेगा। इस तरह की व्यवस्था का दोहराव हो सकता है, लेकिन एकदम उसकी नकल बनाना आसान नहीं होगा। समस्या हो सकती है, मध्यस्थता हो सकती है, और फिर अंतत: हमें हम मूल रूप से उन्हीं चेहरों वाली राष्ट्रीय एकता सरकार मिलती है, लेकिन यह मेरी व्यक्तिगत भविष्यवाणी है, मुझे मालूम नहीं।
अंतिम मुद्दा है रक्षा और एक बार फिर से हम भारत के आभारी हैं और मूल सिद्धांत यह है कि यदि आपका देश मज़बूत है तो आप सार्थक संवाद और सार्थक और स्थायी शांति प्राप्त कर सकते हैं। यदि देश अपनी वैधता और उसके प्रदर्शन और अपने लोगों की सुरक्षा करने के मामले में कमज़ोर है तो आप दूसरे पक्ष से सार्थक संवाद नहीं कर सकते हैं। उस स्थिति में आप दो युद्धरत गुटों के बीच संवाद होता पाएंगे। अफगानिस्तान में हो रहा युद्ध दो युद्धरत गुटों के बीच नहीं हो रहा है। यहां एक तरफ देश है और दूसरी तरफ एक युद्धरत गुट। अब उस देश की मज़बूती बनाये रखने के लिए संयुक्त राज्य अमेरिका से मिलकर भारत ने देश को मजबूत रखने में बहुत बड़ी भूमिका निभाई है और देश को मज़बूत रखने, इसकी लोकतांत्रिक पहचान और सुशासन की बात करते समय वो सभी बातें महत्वपूर्ण हैं, लेकिन जब आप युद्ध से घिरे होते हैं, तो आपकी सुरक्षा और रक्षा महत्वपूर्ण चीज़ हो जाती है; यह सबसे महत्वपूर्ण बात बन जाती है और आपने समाचारों में सुना है कि कल दो हेलीकॉप्टर सौंपे गए थे और दो और हेलीकॉप्टर आने वाले हैं। यह प्रतीक है, यह अफगान देश के संस्थानों, विशेष रूप से सुरक्षा और रक्षा संस्थानों को भारत द्वारा दी जा रही विभिन्न प्रकार की सहायता का उदाहरण है और इसके लिए हम आभारी हैं।
अब यह मेरी बातचीत का अंतिम भाग है। जैसा मैंने शुरु में कहा था कि तालिबान का रूतबा, राजनीतिक रूतबा बढ़ गया है क्योंकि अमेरिका ने उनसे बातचीत करना शुरू कर दिया है, लेकिन हम अमेरिका द्वारा उनसे बातचीत करने की आलोचना नहीं करते हैं क्योंकि हमसे सलाह ली गई थी। लेकिन तब भी वो स्थिति युद्ध क्षेत्र की स्थिति को पर्याप्त रूप से नहीं दर्शाती है। इस साल युद्ध क्षेत्र की स्थिति काफी अलग है। पिछले वर्ष, उससे पिछले वर्ष, और उससे भी पिछले वर्ष, हर बार बसंत के शुरू होने पर दो या तीन प्रांत पतन के कगार पर थे। हमें डर लग रहा था कि पिछले साल की तरह इस बार भी फराह, ग़ज़नी, और कुंदुज़ पतन की कगार पर हैं और बागलान में गंभीर दबाव है। इस साल मामला ऐसा नहीं है। कुछ ज़िले, जो हमेशा तालिबान के नियंत्रण में रहते थे और जिन्हें उनका गढ़ माना जाता था, पतन की कगार पर हैं। किसी प्रांत में दबाव नहीं है, किसी महत्वपूर्ण ज़िले में दबाव नहीं है।
तालिबान के नियंत्रण वाले ज़िलों में दबाव है, तो एक प्रकार से हम रक्षात्मक होने के बजाए आक्रामक हो गए हैं। हमारी सेना रुख़ आक्रामक है और अच्छे प्रदर्शन का एक और बढ़िया उदाहरण था लोया जिरगा के दौरान। तालिबान ने लोया जिरगा को खारिज कर दिया था, इसके और भी कई दुश्मन थे, लेकिन पड़ोसी प्रांतों में 40 किलोमीटर के दायरे में, यह पूरी तरह से सुरक्षित रहा, एक भी गोली नहीं चली, ऐसा नहीं था कि तालिबान ने हमला न करने का फैसला किया था, बात यह नहीं थी। ऐसा करने के 102 प्रयास विफल कर दिए गए और लोगों को गिरफ्तार कर लिया गया, इसका मतलब यह है कि रक्षा पक्ष मज़बूत हो रहा है, अब यह काफी बेहतर हो गया है। इस काम को आपके लिए स्वतंत्र रूप से करना संभव नहीं है। हमें लंबे समय तक सहायता की ज़रूरत रहेगी, हमें सहभागिता की ज़रूरत होगी, लेकिन यह वर्ष पिछले वर्ष और उससे पिछले वर्ष की तुलना में काफी बेहतर रहा है। एक विशेष क्षेत्र में हमारे विशेष बल तैनात हैं, जिन्हें हम इस क्षेत्र में सर्वश्रेष्ठ मानते हैं क्योंकि वे युद्ध और अपने हालिया कुछ ऑपरेशनों के बीचों बीच परिपक्व हुए हैं, जिनके बारे में मैं जानकारी लेता रहा हूँ; पृष्ठभूमि के लिहाज़ से मैं कोई सेना का व्यक्ति नहीं हूं, लेकिन क्योंकि मैं कुछ समय तक गृह मंत्री रहा, मैं वह भाषा समझ सकता हूं या फिर मैं देख सकता हूं कि वे कितने कुशल हो चुके हैं और कितने प्रतिबद्ध हैं। मुझे लगता है कि इसी टिप्पणी के साथ ही मैं अपनी बात खत्म करूंगा और आपके सवाल लूँगा।
राजदूत विवेक काटजू [वीके]: इतनी व्यापक बातचीत करने और हमें घटनाक्रम के बारे में समझ-बूझ, व्यक्तिगत समझ-बूझ से भरी जानकारी देने के लिए और समय के अंदर ही इसे समाप्त करने के लिए धन्यवाद, श्रीमान धन्यवाद……….
यूडी: मैंने कभी घड़ी की ओर नहीं देखा।
वीके: मैंने देखा था।
यूडी: घड़ी इधर थी [उनके सिर की ओर इशारा करते हुए]।
वीके: हमारे पास अब 25 मिनट बचे हैं और चूंकि मुझे लगता है कई सवाल होंगे। क्या मैं आपसे अपने प्रश्नों को छोटा रखने का अनुरोध कर सकता हूं, कृपया अपनी पहचान बताएं और केवल एक ही प्रश्न पूछें। इसे लागू करने में मैं बहुत कड़ाई से काम करने वाला हूँ। आईये शुरू करते हैं।
श्री विजय नाइक: मेरा सिर्फ एक ही सवाल है कि अफगानिस्तान में पाकिस्तान की क्या भूमिका है, क्योंकि इस बारे में हम हमेशा सुनते रहे हैं कि यह पाकिस्तान [अफगानिस्तान] में हालत अस्थिर करने का काम करता है। तालिबान का पाकिस्तान से क्या संबंध है और आप इस स्थिति को कैसे देखते हैं, भविष्य में अगर तालिबान के हाथों में नियंत्रण आ जाता है तो क्या अफगानिस्तान में अस्थिरता होगी? धन्यवाद।
वीके: क्या आप नंबर लेना चाहेंगे और उसके बाद हम जवाब दें या ...
यूडी: जो आपको अच्छा लगे ...
वीके: मुझे लगता है कि हम एक बार में तीन सवाल ले सकते हैं। ।
विऑन पत्रकार: मेरा सवाल पूरी प्रक्रिया, शांति प्रक्रिया में भारत की भूमिका और एनएसए सहित भारतीय विदेश मंत्री से आपकी मुलाक़ात में क्या हुआ, इन बातों से जुड़ा हुआ है ।
वीके: आपने दो प्रश्न पूछे हैं, लेकिन चलने दूँ इसे?
वीके: हां, मैडम, माइक। कृपया अपनी पहचान बताएं।
प्रश्न: मैं डॉ. शालिनी चावला सेंटर फॉर एयर पावर स्टडीज़ से संबंधित हूं। श्रीमान, मैं समझती हूँ आप जानते होंगे कि अफगानिस्तान में आईएसआईएस की तादाद कितनी बड़ी है क्योंकि हम इस बारे में विरोधाभासी बातें सुनते रहते हैं। क्या तालिबान इसका होना अपने लिए प्रतिस्पर्धा के तौर पर देखता है?
वीके: मुझे लगता है कि आपके पास तीन काफी बड़े क्षेत्र हैं - पाकिस्तान, भारत, आपकी बातचीत और निश्चित ही आईएसआईएस।
यूडी: पाकिस्तान के बारे में हम सब जानते हैं कि तालिबान वहीं की पैदावार है और कैसे उन्होंने काबुल और देश के बाकी हिस्सों पर कब्ज़ा करने में उनकी मदद की और फिर अफगानिस्तान में हमेशा ही दुर्घटनाओं का खतरा मौजूद रहता है, accident drive away plan। 9/11 के घटनाक्रम ने मूल रूप से उस योजना को पलट दिया, पूरे देश में तालिबान को। तालिबान और पाकिस्तान के बीच वह संबंध अब भी क़ायम है। हमने अपने अमेरिकी सहयोगियों और साझेदारों से पूछा है, हमने उन चार मुद्दों पर समर्थन दिया जिनका मैंने ज़िक्र किया है - अमेरिका और तालिबान के बीच बातचीत के विषय, हमने उनसे कहा है कि वे तालिबान के पाकिस्तान के साथ संबंधों के बारे में भी स्पष्टीकरण दें क्योंकि उनका स्पष्टीकरण हमारे लिए महत्वपूर्ण है। अमेरिका की तालिबान के आतंकवादियों और आतंकवाद और उग्रवाद से संबंधों के बारे में स्पष्टीकरण में रुचि है। यह बात हमारे लिए महत्वपूर्ण है, लेकिन हम यह भी कह रहे हैं कि उन्हें पाकिस्तान से अपने संबंधों के बारे में भी स्पष्ट करना चाहिए। अब एक और तथ्य यह है कि जब मुल्ला बारादर क़तर में दिखाई दिए, तो उन्होंने पाकिस्तान से यात्रा की और कुछ दिन रुके और उनमें से कई लोग पाकिस्तान वापस जा सकते हैं, तो वहीं से सारे रिश्ते की समझ आ जाती है, लेकिन दूसरी तरफ, पाकिस्तान का शांति में यह योगदान रहा है कि वे अब तक दावा करते रहे हैं और कहते हैं कि उन्होंने क़तर में होने वाली अमेरिका-तालिबान वार्ता कराने में मदद की है।
उन्होंने तालिबान से होने वाली वार्ता में पाकिस्तान या पाकिस्तान की मदद से अफगान सरकार को कोई पेशकश नहीं की है। बस हमारी यही मांग है उनसे, उन्हें सरकार-तालिबान वार्ता में मदद करनी चाहिए। अभी तक वे ज़्यादा स्पष्ट नहीं हैं और निकट भविष्य में राष्ट्रपति गनी पाकिस्तान की यात्रा करेंगे, यह चर्चा के विषयों में शामिल होगा। मैं इसके नतीजे के बारे में भविष्यवाणी नहीं कर सकता। अब यह धारणा कि तालिबान देश पर कब्ज़ा कर ले, यह इसे समझने का गलत तरीका है और मुझे लगता है कि तालिबान सरकार में शामिल हो सकते हैं, वे बाकी अफगानों में शामिल हो सकते हैं। बाकी के अफगान तालिबान में शामिल नहीं हो सकते हैं, यह इस बात को समझने का सही तरीका नहीं है, इसलिए जब सही समय आने पर कोई समाधान निकलता है, तो तालिबान भी बाकी के साथ शामिल हो जाएगा। इससे पाकिस्तान को क्या फायदा होगा? ज़ाहिर है, इसे समझने का एक तरीका यह है कि तालिबान एक बड़ी प्रणाली का हिस्सा है, पाकिस्तान उनके हितों की प्राप्ति के मामले में अधिक आश्वस्त महसूस कर सकता है। यह बात बहस का मुद्दा है कि कैसे और किस हद तक होगा, लेकिन इस पर निर्णय देना थोड़ी जल्दबाज़ी होगी।
इस शांति प्रक्रिया में भारत की भूमिका महत्वपूर्ण है और विदेश मंत्री साहिबा ने बहुत स्पष्ट रूप से कहा कि भारत ऐसे ही किसी भी समझौते पर हस्ताक्षर नहीं कर सकता है। यह समझौता बहुत स्पष्ट होना चाहिए और फिर भारत इसे स्वीकार कर सकता है, इसका हिस्सा बन सकता है और उस एक वाक्य में ही पूरी बात निहित है कि भारत इसमें शामिल होना चाहता है, अपने हितों और इसके भारत-अफ़गानिस्तान के साझे हितों के बारे में स्पष्ट होना चाहता है और हमारा भारत से अनुरोध भी है कि वह हमारे साथ और अधिक लोड साझा करे और हमें क्षेत्रीय और वैश्विक स्तर पर सहयोग दे। हम भारत से मिलने वाले समर्थन और भारत से होने वाली बातचीत के स्तर से पूर्णतया संतुष्ट हैं। आपको पता है इस क्षेत्र में एकमत का अभाव है। अलग-अलग दृष्टिकोण हैं और विभिन्न देशों का दृष्टिकोण अलग-अलग है। मुझे लगता है कि भारत और अफगानिस्तान का बहुत मिलता-जुलता दृष्टिकोण है और हम अकेले नहीं हैं। उस दृष्टिकोण की तरफ बढ़ने वाले देशों की संख्या बढ़ रही है, तो इसलिए यह खुशखबरी है, और विवरण शायद बाद में कभी दूंगा।
आईएसआईएस का होना अफगानिस्तान में समस्या है, लेकिन यह तालिबान जितनी बड़ी समस्या नहीं है। तालिबान अभी भी सबसे बड़ी समस्या है। अब देखिये, आईएसआईएस और तालिबान में अंतर है। हम आईएसआईएस की विभिन्न परिभाषाएँ बना सकते हैं। आईएसआईएस के विभिन्न रूप हो सकते हैं। कुछ आईएसआईएस तालिबान भी हो सकते हैं; हो सकता है कि वे तालिबान से अलग हुए हों और उसने अपना नाम बदल दिया हो, नया बैज लगाकर खुद को आईएसआईएस कहना शुरू कर दिया हो। उनमें से कुछ असली आईएसआईएस वाले हो सकते हैं जो सीरिया और इराक में पैदा हुई थी। अब कौन सी संस्था कौन है - इस पर शोध करने की आवश्यकता है। कुछेक आईएसआईएस वाले ईटीआईएम, आईएमयू जैसे क्षेत्रीय आतंकवादी समूह हैं, और अन्य भी हैं जिन्होनें अलग बैज लगाकर अपनी सुविधानुसार खुद को अल-कायदा कहना शुरू कर दिया, वे खुद को अल-कायदा कहते हैं, और फिर कुछ समय के लिए अपना नाम आईएसआईएस रख लिया। हमारे लिए तालिबान और आईएसआईएस के बीच फ़र्क़ है तालिबान का गाँवों में मज़बूत होना; यह तालिबान ग्रामीण घटनाक्रम है। इसकी तुलना में आईएसआईएस शहरी है और प्रकृति के लिहाज़ से ज़्यादा अकादमिक है। ये लोग विश्वविद्यालयों में प्रोफेसर के स्तर तक पाए जाते हैं, हमारे सुरक्षा बलों ने उनका पता लगाकर उन्हें पकड़ा है। शहरों में हुए कुछ हमलों के बारे में विश्वविद्यालय से सुराग मिला है। काबुल विश्वविद्यालय, नांगरहार विश्वविद्यालय, यही अंतर है दाएश और तालिबान के बीच। अब जहां तक तालिबान और दाएश के बीच के संबंधों की बात है तो यह निर्भर करता है। वो दाएशों में से कुछेक, जो तालिबान भी हो सकते हैं, उनके बीच अच्छे संबंध हो सकते हैं या उनमें एक-दूसरे को बर्दाश्त करने की शक्ति है, लेकिन वो दाएश, जो वैचारिक रूप से तालिबान से काफी अलग हैं, वे एक-दूसरे से लड़ते हैं। भौगौलिक क्षेत्र के लिहाज़ से नंगरहार में, या दूसरे शब्दों में, पाकिस्तान से सटे पड़ोसी प्रांतों में, वहां हमने तालिबान को दाएश से लड़ते हुए पाया, लेकिन बदख्शां में, ताखर में, उनमें एक-दूसरे को बर्दाश्त करने की शक्ति है। कुंदुज़ में वे एक-दूसरे से सहयोग कर रहे हैं, तो इस तरह से एक प्रांत दूसरे प्रांत से अलग है। एक और बात जो आप जानना चाहते हैं वह है इनकी कुल संख्या। पूरे देश में आईएसआईएस की अनुमानित संख्या लगभग 4000 होगी, पूरे देश में लगभग 4000।
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