आईसीडब्ल्यूए-यूएसआई अंतर्राष्ट्रीय सम्मलेन
गैलीपोली की पुनर्समीक्षा
22-23 अप्रैल; वर्चुअल
डॉ. टी.सी.ए. राघवन, महानिदेशक, आईसीडब्ल्यूए
द्वारा स्वागत भाषण
(22 अप्रैल 2021)
देवियों और सज्जनों, गुड मॉर्निंग या गुड आफ्टरनून, क्योंकि आप लोग दुनिया के विभिन्न भागों में हो सकते हैं, और उसी के अनुसार मैं आपका अभिनन्दन कर रहा हूं। महामारी के कारण, हमें इस कार्यक्रम को ऑनलाइन आयोजित करना पड़ा है, और मुझे पता है कि हमारे कुछ प्रतिनिधियों के भौगोलिक स्थानों के बीच 8 घंटे का अंतर है। इसका अर्थ है कि कार्यक्रम में थोड़ा बहुत परिवर्तन करना, लेकिन मुझे यह कहते हुए खुशी हो रही है कि हम सभी की सुविधा के लिए सत्रों को व्यवस्थित करने में कामयाब रहे हैं।
जैसा कि आप जानते हैं, इस सम्मेलन का संयुक्त रूप से आयोजन विश्व मामलों की भारतीय परिषद तथा यूनाइटेड सर्विस इंस्टिट्यूशंस ऑफ़ इंडिया द्वारा किया गया है। मैं इस दो-दिवसीय सम्मेलन की शुरुआत आईसीडब्ल्यूए और यूएसआई की ओर से आप सभी का स्वागत करते हुए करना चाहता हूँ, जिसका उद्देश्य है - 1915 के गैलीपोली अभियान के घटनाक्रम और विरासत की पुनःसमीक्षा करना।
इसमें हमारा साझेदार अर्थात यूएसआई मुख्य रूप से एक सैन्य संस्था है। यह एक सम्मानित संस्था भी बन चुकी है क्योंकि इसने पिछले वर्ष ही अपने अस्तित्व के 150 साल पूर्ण किए हैं। यह संभवतः भारत का सबसे पुराना चिंतन-निकाय है, हालांकि इस शब्द का उपयोग करने से यूएसआई की उत्पत्ति की व्याख्या करने में कुछ हद कालभ्रम होने की संभावना विद्यमान है। आईसीसब्ल्यूए भी चिंतन-संस्था है और इसे भी प्राचीनतम होने का गौरव प्राप्त है। यह भारत की सबसे पुरानी और प्रथम संस्था है जिसे अनन्य रूप से विदेशी मामलों के प्रति समर्पित किया गया है और इसकी स्थापना वर्ष 1943 में पूरी तरह से स्वदेशी और गैर-सरकारी संस्था के रूप में की गई थी।
इस संयुक्त प्रयास की योजना बनाते हुए, हमारा आशय अतीत से सैन्य सबक हासिल करना नहीं था, भले ही वे कितने भी प्रासंगिक क्यों न हों। इसके स्थान पर, इसका आशय बेहतर ढंग से यह समझना है कि अतीत की उन भिन्न धारणाओं, जो ऐतिहासिक संस्कृति से अलग-अलग तरीकों से हासिल की गई हैं, का प्रयोग इस प्रकार किया जा सकता है, ताकि वर्तमान का संदर्भ किया जा सके करने और भविष्य को आकार प्रदान किया जा सके। अतः वर्तमान उदाहरण में हमारे द्वारा इतिहास के प्रयोग को इस बात को समझने के प्रयास के रूप में परिभाषित किया जा सकता है कि अर्थ तैयार करने, वर्तमान को उन्मुख और भविष्य को प्रभावित करने अतीत के कथात्मक प्रभाव को किस प्रकार लागू किया जा सकता है। इतिहास में एक राशोमान प्रभाव सुविदित है : भिन्न-भिन्न वर्णन और वर्णनकार अतीत और प्रायः समान घटनाक्रम को अलग-अलग तरह से देखते हैं।
अतः इस समझ का संदर्भ मात्र सैन्य संबंधी नहीं है। यह राजनयिक और राजनीतिक विरासतों के उन क्षेत्रों तक भी फैला हुआ है जो इस बहुत महत्वपूर्ण सैन्य प्रकरण के परिणाम थे; और जिस तरह से इन घटनाक्रमों ने प्रतिभागियों के समाजों और विश्व के राष्ट्रों को आकार देने के लिए अपनी भूमिका निभाई।
प्रथम विश्व युद्ध में 8.5 मिलियन से अधिक सैनिक और 13 मिलियन नागरिक हताहत हुए और इससे साम्राज्यों के युग के अंत की शुरुआत हुई, जिसमें भारत में ब्रिटिश राज की समाप्ति भी शामिल थी। इस प्रकार, युद्ध के अंत तक एक 'भयावह नवीन सौंदर्य’ का जन्म हुआ जिसकी व्याख्या 1916 में डब्ल्यू. बी. यीट्स द्वारा यूरोप में एक और औपनिवेशिक संदर्भ में की गई थी। जब तक युद्ध समाप्त हुआ, भारतीय राष्ट्रवाद बहस वाले समाज के रूप में कम और एक पूर्ण जन आंदोलन के रूप में अधिक विकसित हो गया था।
यह युद्ध विश्व के इतिहास में एक निर्धारक विवाद था।
इस विवाद में भारत की भूमिका को उस समय तक काफी हद तक भुला दिया गया, जब तक कि इसे यूएसआई और विदेश मंत्रालय द्वारा वर्ष 2014 से लेकर 2018 तक चार वर्षों के लिए चलने वाले वैश्विक शताब्दी समारोहों के दौरान फिर से प्रारंभ नहीं किया गया। इन समाराहों की विशेषता विवादों के सन्दर्भ में पर्याप्त भारतीय योगदान में उत्पन्न हुआ नवीकृत हित था।
हालांकि उस समय एक उपनिवेश के रूप में, भारत ने प्रभुत्वसम्पन्न दर्जा हासिल करने के प्रयासों के तौर पर युद्ध का सक्रिय रूप से समर्थन किया। वर्ष 1914 में मुख्यधारा की राजनीतिक राय का भारी बहुमत इस दृष्टिकोण पर एकजुट था कि यदि भारत अधिक से अधिक जिम्मेदारी और राजनीतिक स्वायत्तता चाहता है, तो उसे साम्राज्य की रक्षा के बोझ को साझा करने के लिए भी तैयार होना चाहिए।
इसके परिणामस्वरूप, भारत ने सैनिकों और सामग्री, दोनों ही के संदर्भ में युद्ध के प्रयासों में अत्यधिक योगदान दिया। उसके सैनिकों ने दुनिया भर के कई युद्धक्षेत्रों में श्रेय और सम्मान अर्जित करने हुए प्रयाप्त कार्य किया। युद्ध के अंत तक, 1.4 मिलियन भारतीयों की भर्ती की गई थी और 1.3 मिलियन भारतीयों ने विदेशों में सेवा की जिनमें से 74,000 मारे गए थे। उन्होंने 11 विक्टोरिया क्रॉस सहित वीरता के लिए 9,200 से अधिक युद्ध-सम्मान अर्जित किए। इन आंकड़ों में 26,000 से अधिक साम्राज्य सेवा टुकड़ियों का योगदान भी शामिल है जो भारतीय राज्य सेनाओं का हिस्सा थीं।
युद्ध के मैदानों, जिन पर भारतीय सैनिकों ने लड़ाई की थी, में से एक गैलीपोली था। हालांकि, इस तथ्य के बावजूद कि इसने गैलीपोली में सम्मान के साथ काम किया था, न केवल अगस्त से ऑस्ट्रेलियाई और न्यूजीलैंड सेना कोर के साथ, बल्कि उनके हिस्से के रूप में भी, इस योगदान को अभियान की अधिकांश बहियों में से मुख्यतः एक उल्लेख के रूप में निर्वासित कर दिया गया है। । इसका कारण ब्रिटिश भारत के राजनीतिक इतिहास में निहित है। प्रथम विश्व युद्ध प्रारंभ में, भारत एक उपनिवेश ही था, जो एक साम्राज्य के भीतर प्रभुत्वकारी दर्जा हासिल करने के लिए आंदोलन कर रहा था; जो एक ऐसा दर्जा था, जिसे औपनिवेशिक प्राधिकारी प्रदान करने से बचते थे।
भारतीय सैन्य इतिहासकार राणा छीना के शब्दों में: "1915 में एक राजनीतिक पहचान के अभाव ने भारतीय सैनिकों से न केवल उनकी भूमिका की स्वीकार्यता और उनके बलिदान की सराहना को छीना था, बल्कि इतिहास में उनके स्थान को भी समाप्त कर दिया था।"
फिर भी गैलीपोली विश्व युद्ध के सैन्य अभियानों के मध्य अद्वितीय है, क्योंकि इसमें एक ऐसा महत्व निहित है, जिसे दूसरों के द्वारा साझा नहीं किया गया है। यह एक ऐसा महत्व है, जिसने एक-दो को नहीं, बल्कि तीन जुझारू राष्ट्रों को अत्यधिक घातक रूप से प्रभावित किया था।
युद्ध अक्सर परिवर्तन के वाहक होते हैं। गैलीपोली के साझे साहचर्य, कष्टों, कठिनाइयों और भयावहता ने प्रयोजन और पहचान की साझी भावना के साथ ऑस्ट्रेलिया और न्यूजीलैंड के नवीन राष्ट्रमंडल के उदय का मार्ग प्रशस्त किया। इसे राष्ट्रीय चेतना के निर्माण की आधारशिला कहा जाता है, जिसमें प्रसिद्ध एएनजैडएसी भावना निहित है और जो इन देशों के नागरिकों द्वारा पोषित एक ऐसा संघ है जो आज तक अस्तित्व में है।
इसी प्रकार, गैलीपोली आधुनिक तुर्की के लिए भी पर्याप्त महत्व रखता है। यह तुर्की के लोगों द्वारा अपने सैनिकों की वीरता और बलिदान के लिए व्यक्त किए जाने वाले अत्यंत न्यायसंगत गौरव से परे है जिन्होंने न केवल उनके देश पर किए गए सयुंक्त आक्रमण का बचाव किया बल्कि उसका जमकर सामना भी किया। तुर्की द्वारा गैलीपोली की रक्षा ने उस व्यक्ति को प्रमुखता दी जो बाद में बीसवीं शताब्दी के महानतम राजनेताओं में से एक के रूप में जाना गया और जो आधुनिक तुर्की का संस्थापक अर्थात महान मुस्तफा केमल "अतातुर्क" था। अतातुर्क एक दूरदर्शी राजनीतिज्ञ थे, जिसका परिचय उनके द्वारा संयुक्त सैनिकों के परिवारों को किए गए उनके संबोधित से मिलता है, जो गैलीपोली में लड़ाई में शहीद हो गए थे:
"वे नायक जिन्होंने अपना खून बहाया और अपनी जान गंवा दी… आज आप एक मित्र देश की मिट्टी में रह रहे हैं। इसलिए आपकी आत्मा को शांति प्राप्त हो। हमारे लिए जॉनियों और महमतों के बीच कोई फर्क नहीं है, क्योंकि वे यहाँ हमारे इस देश में साथ-साथ ही दफनाए गए हैं... आप, ऐसी माताएं हैं जिन्होंने अपने बेटों को सुदूरवर्ती देशों से भेजा था, आप अपने आँसू पोंछिए; आपके पुत्र अब हमारे हृदय में बस गए हैं और वे शांति से हैं। इस धरती पर अपनी जान गंवाने के बाद वे हमारे भी बेटे बन गए हैं।"
भारत के लिए, गैलीपोली का परिणाम इसकी राजनीतिक आकांक्षाओं में निहित था। और जब ये युद्ध के बाद में नहीं मिल पाए थे, तब उन्होंने राजनीतिक परिवर्तन के लिए एक उत्प्रेरक के रूप में कार्य किया, घटनाक्रमों को एक दिशा प्रदान की जिसके परिणामस्वरूप ब्रिटिश राज का अंत हुआ।
गैलीपोली का महत्व इस तथ्य में भी निहित है कि भारतीय सेनाओं ने अन्य राष्ट्रीयताओं से आए सैनिकों के साथ संघर्ष किया जिनमें यूके, फ्रांस, ऑस्ट्रेलिया और न्यूजीलैंड (एएनज़ैडएसी) भी शामिल हैं, जिसके फलस्वरूप भारतीय उपमहाद्वीप के भौगोलिक दायरे से परे मौजूद दुनिया और राजनीति को देखने का एक अनूठा अवसर प्राप्त हुआ। इसमें भाग लेने वाले भारतीयों को प्राप्त हुए अनुभव ने उन्हें नई संस्कृतियों और विचारों से रूबरू कराया, जिन्हें वे अपने साथ वापस लेकर आए और उसका समावेश उन्होंने राष्ट्रवादी संघर्ष और भविष्य के बारे में अपनी धारणा का निर्माण करने की प्रक्रिया में किया।
यह सम्मेलन मित्र देशों और तुर्की, दोनों की ओर से गैलीपोली अभियान में शहीद हुए सैनिकों का स्मरणोत्सव मनाने के अवसर के रूप में कार्य करता है। यह प्रतिभागी राष्ट्रों के लिए युद्ध की विभिन्न विरासतों का स्मरण करने के लिए एक स्थल के रूप में भी कार्य करता है। गैलीपोली का एक महत्वपूर्ण सबक यह है कि विभिन्न प्रतिभागियों ने उत्तरोत्तर रूप से यह महसूस किया कि उन्हें अपने राजनीतिक भाग्य और भविष्य को नियंत्रित करने वाले देश के रूप में होना चाहिए था।
भारतीयों ने युद्ध में समान रूप से भाग लिया, न कि केवल मातहतों के तौर पर। युद्ध के प्रयास में भारतीय सैनिकों का योगदान उस समय हासिल हुए परिणाम से कहीं अधिक था। मेसोपोटामिया में भारतीय सैनिकों का योगदान इन अभियानों के लिए लड़ने वाले अन्य सैनिकों की तुलना में 80 प्रतिशत था।
कुछ लाभ बाद में प्राप्त हुए : युद्ध में भागीदारी और विशेष रूप से गैलीपोली, फ्रांस और बेल्जियम में प्राप्त अनुभवों के परिणामस्वरूप भारत में सेना का नवगठन, आधुनिकीकरण, विस्तार और पुनर्गठन हुआ। युद्ध न होने वाली अवधि के दौरान, भारतीय वायु सेना की स्थापना की गई थी। इसके उपरांत, मात्र दो दशक बाद, भारतीयों ने दूसरे विश्व युद्ध में भाग लिया जिसका भौगोलिक दायरा दक्षिण-पूर्व एशिया से लेकर उपमहाद्वीप, पश्चिम एशिया, उत्तरी अफ्रीका और यूरोप तक फैला हुआ था। आंकड़े स्वत: गवाही देते हैं : प्रथम विश्व युद्ध में, लगभग 1.5 मिलियन भारतीयों ने भाग लिया, जिसका पहले भी उल्लेख किया था, जबकि दूसरे विश्व युद्ध में, यह संख्या 2.5 मिलियन थी।
प्रथम विश्व युद्ध में, सैनिकों तथा वित्तीय और राजनीतिक समर्थन, दोनों ही मामलों में, भारत के गैर-उल्लेखनीय योगदान के सकारात्मक राजनयिक परिणाम भी प्राप्त हुए थे। इसकी शुरुआत 1919 में आयोजित राष्ट्र शांति सम्मेलन में स्वतंत्र प्रतिनिधित्व के साथ हुई थी, जिसके बाद 1920 में उसका लीग ऑफ नेशंस में प्रवेश हुआ, जिसे भारत के वर्साय की संधि हस्ताक्षरकर्ता होने के नाते स्वतः ही हासिल कर लिया गया था।1945 में, भारत संयुक्त राष्ट्र का संस्थापक सदस्य बना। 1947 में स्वतंत्रता के बाद, भारत ने उन बहादुर सैनिकों की विरासत के अनुरूप अपना निर्माण आरंभ किया, जिन्होंने दो विश्व युद्धों में अपनी भाग लिया था और अपने जीवन का बलिदान दिया था। यह शुरुआती दिनों से ही संयुक्त राष्ट्र का एक दृढ़ समर्थक और संयुक्त राष्ट्र शांति-स्थापना अभियानों का एक उत्सुक भागीदार रहा है। भारतीय सेना ने प्रारंभ में जिन शांति-स्थापना अभियानों में भाग लिया था उनमें 1956 में स्वेज संकट के दौरान संयुक्त राष्ट्र आपातकालीन बल (यूएनईएफ) के भाग के रूप में पश्चिम एशिया में संचालित अभियान शामिल था। भारत ने क्षेत्र में संचालित शांति-स्थापना अभियानों में अपनी निरंतर भागीदारी के माध्यम से संयुक्त राष्ट्र के प्रति अपनी आस्था और समर्थन को प्रदर्शित करना जारी रखा है।
मैं इस अवसर पर इस सम्मेलन के सभी प्रतिनिधियों का एक बार पुन: स्वागत करता हूं, जो दुनिया के विभिन्न हिस्सों के प्रतिष्ठित विद्वानों को एक साथ एक मंच पर लेकर आया है, जिनमें से प्रत्येक अपने-अपने संबंधित क्षेत्र का विशेषज्ञ है, जो गैलीपोली अभियान और समकालीन छात्रवृत्ति के आलोक में उसकी विरासत के विभिन्न पहलुओं पर चर्चा करेंगे और उसकी बृहद समीक्षा भी करेंगे।
यह हमारा सौभाग्य है कि भारत के विदेश मंत्री डॉ. एस. जयशंकर ने इस सम्मेलन में भाग लेने के लिए सहमति व्यक्त की है, जिसका आशय भारतीय सैनिकों द्वारा निभाई गई भूमिका पर विशेष बल प्रदान करते हुए 1915 के गैलीपोली अभियान का स्मरणोत्सव मनाना है।
न्यूजीलैंड, तुर्की, ब्रिटेन, ऑस्ट्रेलिया और भारत के सैन्य इतिहासकार, राजनयिक, शिक्षाविद सम्मेलन में अपने विचार प्रस्तुत करेंगे। संगोष्ठी के बाद इस विषय पर आईसीडब्ल्यूए और यूएसआई द्वारा संयुक्त रूप से एक सचित्र पुस्तक भी प्रकाशित की जाएगी। हम डॉ. एस जयशंकर के अत्यंत आभारी हैं कि उन्होंने अपने व्यस्ततम कार्यक्रम से कुछ समय निकालकर हमारे साथ जुड़ने के लिए सहमति प्रदान की है। वह आईसीडब्ल्यूए के उपाध्यक्ष और समकालीन इतिहास और विश्व मामलों के निपुण विद्वान भी हैं। अब मैं भारत के विदेश मंत्री डॉ. एस जयशंकर को आधार व्याख्यान देने के लिए आमंत्रित करता हूं।
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