‘’ भारत अफ्रीका : एक एफ्रो-एशिया परिप्रेक्ष्य’’विषय पर अफ्रीका अध्ययन केन्द्र, एस आई एस, जेएनयू और भारत-अफ्रीका का अध्ययन एसोशिएसन (ए एस ए भारत) के सहयोग से एम एम ए जे अंतरराष्ट्रीय अध्ययन अकादमी (ए आई एस), नई दिल्ली जामिलया इस्लामिया द्वारा 15-16 फरवरी, 2018 को एक अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन का आयोजन किया गया। इस दो दिवसीय सम्मेलन को विश्व मामलों की भारतीय परिषदऔर भारतीय समाज विज्ञान अनुसंधान परिषद (आई सी एस एस आर, एन आर), नई दिल्ली द्वारा वित्तीय सहायता दी गई थी। इस सम्मेलन में 31 प्रतिभातगियों द्वारा अपने लेख प्रस्तुत किए गएऔर उनमें की गई चर्चा में भारत और अफ्रीका के संबंधों तथा एक एफ्रो-एशिया परिप्रेक्ष्य पर जोर दिया गया।
सम्मेलन की कार्यवाही :प्रथम दिवस
उदघाटन सत्र :
इस सत्र की अध्यक्षता प्रो0 रश्मि दलाई स्वामी शासकीय निदेशक, ए आईएस, जे एम आई द्वारा की गई । उन्होंने भारत और अफ्रीका के इतिहास और इसके पिछले संबंधों का उल्लेख करते हुए सभी का स्वागत किया और दोनों के साहित्यिक और सांस्कृतिक उदाहरणों का उल्लेख किया।
डॉ0 बिजय प्रतिहारी, सम्मेलन संयोजक ए आई एस, जे आई एम ने सम्मेलन का थीम ‘’ भारत-अफ्रीका: एक एफ्रो-एशिया परिप्रेक्ष्य’’प्रस्तुत करते हुए कहा कि पिछले शीत युद्ध के दौरान भारत और अफ्रीका के बीच नए संबंध विकसित हुए हैं। इस दौरान बाजार कच्चा माल के क्षेत्र में नए संबंधों की स्थापना हुई। उन्होंने कोरिया, जापान, चीन और भारत जैसे देशों की अफ्रीका में उभरती हुए नई एशियाई शक्तियों को भी रेखांकित किया और बताया कि इन शक्तियों ने एशियाई राष्ट्रों को अपने पूर्व उप-निवेशवादी मालिकों को एक विकल्प दिया है।
उन्होंने अपने उद्बोधन के अंत में को समाप्त करते हुए कहाकि ‘क्या ये उभरती हुई एशियाई शक्तियां अफ्रीका के संदर्भ में उनके पूर्व उप-निवेशवादी मालिकों से भिन्न हैं अथवा वैसी ही हैं, इस बात पर इस सम्मेलन में जोर रहेगा।
प्रो0 रशेल जेसामी, नेल्सन मण्डेला चेयर, अफ्रीका अध्ययन केन्द्र, जे एन यू ने अपने उद्घाटन भाषण के शुभारंभमें भारत-अफ्रीका संबंधों के इतिहास और तथ्यों का उल्लेख किया और इस तथ्य पर जोर दिया कि इन दोनों के बीच संबंधों और भागीदारी के दोहरे रास्ते । उन्होंने अपने संबोधन में द्विपक्षीय व्यापार, एफ टी आई, क्रेडिट के रास्ते, क्षमता निर्माण कार्यक्रमों आदि जैसे अनेक विषयों को समाहित किया और कच्चा माल, ऊर्जा क्षेत्रों जैसे कार्य-नीतिक निश्चयों और डायसपोरा जैसे ड्राईवरों का विश्लेषण किया, जिनकी इस समकालीन युग में भारत-अफ्रीका संबंधों में महत्वपूर्ण भूमिका रही है ।
अपने समापन भाषण में प्रो0 जेसामी ने अफ्रीका में भारत और चीन के व्यवहार के बीच के अंतर को स्पष्ट किया। उनके अनुसार भारत के लोग वहां व्यापार करने में लगे हुए हैं, जबकि चीन वहां अधिकार जमाने में लगा हुआ है। उन्होंने यह भी कहा कि भारत की अफ्रीका के प्रति व्यक्ति से व्यक्ति जोड़ने का विचार और परम्परा रही है।
मुख्य सम्बोधन
इस सम्मेलन में मुख्य सम्बोधन प्रोफेसर अजय दूबे, अध्यक्ष, अफ्रीका अध्ययन केन्द्र, एसआईएस, जेएनयू, द्वारा किया गया और इस सत्र की अध्यक्षता अम्बेसडर विरेन्द्र गुप्ता ने की । प्रोफेसर दूबे का सम्बोधन, प्रोफेसर जेसामी के तुरन्त बाद हुआ और उन्होंने इसमें इस तथ्य को जोड़ा कि भारत और अफ्रीका के सम्बंध ऐतिहासिक तथ्यों और अच्छी साख पर आधारित हैं और ये इस समय बहुआयामी हैं।उन्होंने यह भी उल्लेख किया कि एफ्रो-एशिया परिप्रेक्षय हमेशा ही भारत की विदेश नीति में एक महत्वपूर्ण घटक रहा है। अपने इस वक्तव्य पर जोर देते हुए उन्होंने पूर्व प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू द्वारा ब्रुशेल्स में 1927 के कॉग्रेंस अधिवेशन में प्रस्तुत प्रथम लेख, बन्दूग सम्मेलन और लुसाना सम्मेलन आदि का उदाहरण दिया । प्रोफेसर दूबे ने इसके अलावा इस तथ्य को भी रेखांकित किया कि पिछले शीत युद्ध के दौरान एशिया द्वारा ही अफ्रीकी राष्ट्रों को विविधता की ओर जाने तथा पूर्व उपनिवेशवादी ताकतों की परम्परा से अलग होने का रास्ता दिखाया गया । उन्होंने इसके साथ ही यह भी कहा कि अफ्रीका में सहयोग के भावी पहलू कोरिया और जापान जैसे ओसीईडी देशों के तथा चीन और भारत जैसे गैर – ओसीईडी देशों का साथ मिलने पर निर्भर हैं ।इसके लिए उन्होंने भारत-अफ्रीका विकास कारिडोर का उदाहरण भी दिया ।
इस मुख्य विचार सत्र का समापन करते हुए माननीय राजदूत श्री विरेन्द्र ने एफ्रो-एशिया सम्बन्धों की यात्रा का उल्लेख किया।उन्होंने इस तथ्य को स्पष्ट किया कि भारत के अफ्रीकी राष्ट्रों के साथ सम्बन्ध उन्हें भावनात्मक और आर्थिक तौर पर जोड़ते हैं, जबकि चीन के सम्बन्धों में अफ्रीकी देशों के साथ उनके व्यापारिक और संसाधन आधारित आर्थिक सम्बन्ध झलकते हैं । उन्होंने अपने सम्बोधन के अन्त में भारत अफ्रीका के बीच सम्बन्धों को बढ़ावा देने में व्यक्ति से व्यक्ति सम्बन्धों के महत्व को भी रेखांकित किया ।
सत्र – 1 : एफ्रो-एशिया परिप्रेक्ष्य : प्रोफेसर जेएम खान की अध्यक्षता में संकल्पना मूलक
समझबुझ सत्र
इस सत्र के शुभारम्भ में प्रोफेसर अपराजिता विश्वास ने अपना एक लेख प्रस्तुत किया जिसका शीर्षक था ‘’ भारत अफ्रीका सम्बन्धों का निर्माण: पिछली परम्परायें, नई दिशांए ‘’। उन्होंने इसमें भारत और अफ्रीका के बीच विकास के पहलुओं के साथ-साथ दोनों के सम्बन्धों पर चर्चा की । उन्होंने इसमें एग्जीम बैंक जो एशिया-अफ्रीका विकास का कोरिडोर है, द्वारा आर्थिक कूटनीति को सुदृढ़ करने को रेखांकित किया।उन्होंने इसमें एसईडब्लयूए बेयफुट कॉलेज आदि के कार्यों का भी उल्लेख किया । उन्होंने अपने लेख में एफ्रो-एशियाके उन सम्बन्धों को भी रेखांकित किया जो भारत अफ्रीका सम्बन्धों में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं ।
इस सत्र में दूसरा दस्तावेज डा0 रूचिता बैरी द्वारा प्रस्तुत किया जिसका शिर्षक था ‘’ भारत- अफ्रीका विकास कारिडोर : सहयोग की एक नई संरचना ‘’उन्होंने इसमें तीन मुख्य सिद्धान्तों/ परिप्रक्ष्यों का उल्लेख किया, जैसे कि भारत, जापान और अफ्रीका । भारतीय परिप्रेक्ष्य के लिए उन्होंने सबका साथ सबका विकास, सागर और सागरमाला जैसे विचारों का उल्लेख किया। उन्होंने अपने इस लेख में यह भी कहा कि भारत और अफ्रीका सम्बन्धों का आगे बढ़ाने के लिए सुरक्षा और एक साथ संयोजन मुख्य कड़ी हैं । अफ्रीका परिप्रेक्ष्य में उन्होने कार्यसूची 2016, शांतिपूर्वक निपटारा, समृद्धि, एकता, सांस्कृतिक सम्बन्ध आदि जैसे विचारों का भी उल्लेख किया । जापान के परिप्रेक्षय में उनका कहना था कि खुला भारत शांति सहयोग का उपयोग बेहतर क्षेत्रीय एकता के लिए किया जा सकता है ।
इस प्रथम सत्र का अंतिमलेख डॉ0 सौरभ मिश्रा, आईसीडब्ल्यु द्वारा प्रस्तुत किया गया,जिसका शीर्षक था‘’ भारत-अफ्रीका सम्बन्ध : एक एफ्रो-एशियापरिप्रेक्षय’’उन्होंने इसमें वैश्वीकरण चरण के पूर्व तथा उसके बाद के एफ्रो-एशिया परिप्रेक्षय के विकास को समाहित किया ।उन्होंने इसमें भारत अफ्रीका नीति तैयारकिए जाने और दोनोंके बीच इक्कीसवीं सदी के सम्बन्धों को भी शामिल किया उन्होंने इसमें अफ्रीका तथा अन्य राष्ट्रों के साथ भारत के सम्बन्धों में आए गुणात्मक और मात्रात्मक परिवर्तनों को भी रेखांकित किया ।
सत्र 2 : अफ्रीका में भारत-यूरोप : प्रोफेसर एस.एन. मालाकार द्वारा अध्यक्षता
इस सत्र में पहला लेख डॉ0 जे.एम. मुसा द्वारा प्रस्तुत किया गया, जिसका शीर्षक था ‘’ यूरोपीय शक्तियॉं और भारत के साथ अफ्रीका के सम्बन्ध : एक तुलनात्मक परिप्रेक्षय ‘’ उन्होंने इसमें यूरोपीय संघ और अफ्रीका राष्ट्रों के सम्बन्धो की जटिलता पर जोर दिया था । उनके अनुसार इन देशों के बीच के सम्बन्ध विविध, विस्तृत और बहुस्तरीय हैंये सम्बन्ध भागीदारी में बहु-आयामी हैं और ये उपनिवेशवाद से समसामयिक विश्व की ओर विकसित हुए हैं ।उन्होंने यूरोपीय संघ और अफ्रीका के बीच आर्थिक भागीदारी तथा अफ्रीका के विश्व के अन्य देशों के साथ जुड़ने का भी उल्लेख किया ।उन्होंने अपने दस्तावेज में यह निष्कर्ष निकाला कि यूरोप यदि इस युग में अफ्रीका के साथ भागीदारी चाहता है, वैकल्पिक ऐशियाई शक्तियों का महत्व बढ़ रहा है, तो उसे आत्म-निरीक्षण और अपने सुदृढीकरण पर जोर देना होगा ।
इस सत्र में दूसरा लेख डा0 गिरी द्वारा प्रस्तुत किया गया,जिसका शीर्षक था ‘’ यूरोप के संदर्भ में भारत और अफ्रीका ‘’डा0 गिरी ने डॉ0 मूसा के बाद अपने प्रस्तुति दी, जिसमें उन्होंने यूरोपीय संघ द्वारा आन्तरिक रूप से अपनी उन मौजूदा समस्याओं का हल निकालने की चर्चा की, जिनका इसकी नीतियों पर अन्तर्राष्ट्रीय प्रभाव भी पड़ता है ।उन्होंने इसमें यूरापीय संघ द्वारा अफ्रीका में सांस्थानिक विकास और सांस्थानिक निर्माण पर भी बात की । अपने निषकर्षमेंउन्होंने अफ्रीका के लिएयूरोपीय संघ की विकास-परक नीति और अफ्रीका में यूरोपीय संघ की उपस्थिति पर चर्चा की ।
डॉ0 शीतल शर्मा ने इस सत्र में अगला लेख प्रस्तुत किया, जिसका शीर्षक था ‘’यूरोपीय उपनिवेशों में भारतीय विस्थापित ‘’।उन्होंने इसमें उनके विस्थापन के कारणों मेंउन क्षेत्रों का भी उल्लेख किया, जहॉं के ये विस्थापित मूल निवासी थे और बाद में जहॉं पर ये गए । उन्होंने अपने लेख में यूरोपीय उपनिवेशों में आए विस्थापितों की कहानियों का विश्लेषण किया था । उन्होंने इसमें अफ्रीका में भारतीय विस्थापितों के बारे में ‘’ गर्व और पूर्वाग्रह‘’शब्दावली का भी उल्लेख किया था । उन्होंने इनकी ‘’दु:खी गुनगाह’’की कहानी का भी उल्लेख किया, जिसकी कहानी में मोरीशस में एक बन्धुआ मजदूर के उसकी मृत्यु के बाद सबसे धनवान बनने की यात्रा को चित्रित किया गया ।
इस द्वितीय सत्र में अन्तिम दस्तावेज डॉ0 अरविन्द कुमार द्वारा प्रस्तुत किया गया, जिसका शीर्षक था ‘’ भारत-अफ्रीका फोरम सम्मेलन : सम्भावना तथा अवसर ‘’इसमेंउन्होंने भारत और अफ्रीका के बीच सहयोग के द्विपक्षीय ढॉंचे की चर्चा की और भारत तथा चीन के बीच सम्बन्धों की परम्परा के विभिन्न बदलते स्वरूपों की तुलना भी अफ्रीका के साथ की । इसके अलावा उन्होंने भारत द्वारा समता निर्माण जैसी लचीली ताकत की कूटनीति पर जोर देने और, चिकित्सा सुविधाओं के निर्माण की तुलना में चीन के तकनीकी और आर्थिक सम्बन्धों का उल्लेख किया था । उनका निष्कर्ष कथन था कि भारत-अफ्रीका फोरम सम्मेलन, भारत अफ्रीका सहयोग और विकास का एक ब्लूप्रिन्ट है ।
सत्र 3 : भारत और अफ्रीका के सम्बन्ध । इस सत्र की अध्यक्षता डा0 इयोन किम द्वारा की गई । प्रोफेसर एस एन मालाकार ने इस सत्र का पहला दस्तावेज प्रस्तुत किया, जिसका शीर्षक था ‘’भारत और मेडागास्कर के सम्बन्ध : एक एफ्रो-एशिया सम्बन्ध ‘’उसने इसमें पॉंच मुख्य उपमहाद्वीपीय राष्ट्रों और खासकर मेडागास्कर के साथ लम्बे समय से चले आ रहे ऐतिहासिक सम्बन्धों की चर्चा की ।उसमें उन्होंने इस तथ्य को रेखांकित किया कि भारतीय प्रवासियों की मेडागास्कर के विकास में काफी भूमिका रही है जिसमें भारतीय विस्थापितों ने इसके जी डी पी में 50 प्रतिशत का सहयोग दिया है । उन्होंने अपने दस्तावेज का समापन इस उल्लेख के साथ किया है कि भारत मेडागास्कर के बीच विकास के परिप्रेक्ष्य को सुदृढ करने के लिए नए अवसर हैं ।
डॉ0 ब्रेयन नेकसन ने इस सम्मेलन में ‘’हिन्द महासागर का इतिहास लेखन : पूर्वभारत-अफ्रीका सम्बन्ध ‘’शीर्षक से अपना दस्तावेज प्रस्तुत किया । उनका कहना था कि प्रत्येक व्यक्ति को एक खास तरह का सांस्कृतिक विश्लेशण करना चाहिए । उनके अनुसार इतिहास लेखन और संस्कृति लेखन का पेशा एक साथ होना चाहिए ताकि इतिहास लेखक आर्थिक पहलुओं के विश्लेषण को बेहतर तरीके से समझ सके । उनका यह भी कहना था कि इस पेशे से लोगों के सामने आन्दोलन आते हैं और वे सांस्कृतिक पहचान को प्रभावित करते हैं । उन्होंने अपने इस तर्क के समर्थन में अनेकों ग्रंथों अैर इतिहास लेखन परम्पराओं के उदाहरण प्रस्तुत किए ।
इस सत्र के तीसरे वक्ता थे, डॉ0 वेरोनिका उसाचेव, जिन्होने एक बहुत ही संवेदनशील विषय पर अपना लेख प्रस्तुत किया, जिसका शीर्षक था ‘’ भारत में अफ्रीकी नागरिक : एक सदी पुराने भारत-अफ्रीका सम्बन्धों के लिए नए सवाल ‘’ । उन्होंने अपने भाषण में अफ्रीकन नागरिकों के साथ हुई हिंसक घटनाओं की एक लम्बी फेहरिस्त को रेखांकित किया।उनका यह भी कहना था कि इसमें सभी घटनाओं से अफ्रीका में भारत की नकारात्मक तस्वीर सामने आती है और यह सामाजिक मिडिया के अघ्ययन में आगे पेश की जाती है, जिससे विभिन्न अफ्रिकी देशों में रहने वाले भारतीय प्रवासियों के लिए गम्भीर खतरा उत्पन्न होता है । डॉ0 वेरोनिका ने अपने सम्बोधन में दोनों देशों के ऐतिहासिक सम्बन्धों के बारे में छात्रों को शिक्षा देने और व्यक्ति से व्यक्ति की परस्पर अनुक्रिया को बढाबा देने की आवश्यकता पर जोर दिया,जिससे ऐसी समस्याओं को हल करने में सहायता मिल सके ।
इस सत्र में अन्तिम लेख प्रोफेसर येरूईनगम एवुंगशी द्वारा प्रस्तुत किया गया, जिसका शीर्षक था ‘’ अफ्रीका की धरती पर एशियाई पूंजीपतियों द्वारा निवेश : कल्पना और वास्तविकता ‘’। इस बात को रेखांकित किया कि 2008 का वैश्विीक खाद्य संकट इसका एक मुख्य कारण था जिसने अफ्रीका में एशिया के इच्छुक पूँजीपतियों को पूँजी निवेश के एक नए क्षेत्र की ओर आकर्षितकिया । उन्होंने उल्लेख किया कि इथोपिया की अर्थ-व्यवस्था और अधिक बढ़ती हुई अर्थ-व्यवस्था हो सकती थी, लेकिन वह उस सीमा तक नहीं बढ सकी । उन्होंने अपने इस लेख में कृषि विकास आधारित औद्योगिकीकरण की इथोपिया सरकार की राष्ट्रीय नीति का भी उल्लेख किया । उन्होंने अपने लेख के अंत में इस प्रोजेक्ट के असफल होने के अनेक कारण गिनाये, खासकर इसमें प्रतिबद्धता और सामूहिक समाधान की अवधारणा सहित नीतियों को पूरा करने की कमी का उल्लेख किया । इस प्रकार पहले दिन की कार्यवाही सम्पन्न हुई ।
सम्मेलन की कार्यवाही – दूसरा दिन
सत्र – 4 भारत–अफ्रीका संबंध अैर चीन, सत्र की अध्यक्षता – प्रो0 अपराजिता विश्वास ।
इस सत्र में डॉ0 एम. वेंकट रामन पहले वक्ता थे और उन्होंने ‘’ चीन अफ्रीका आर्थिक व राजनैतिक संबंध तथा उनके अफ्रीकी प्रजातंत्र पर प्रभाव ‘’विषय पर अपना भाषण दिया । उन्होंने अपने लेख में चीन के एक आर्थिक शक्ति के रूप में उभरने और अफ्रीका में प्रजातंत्र की संभावना पर भी विस्तार से चर्चा की । उन्होंने इनके वापस लौटने पर भी सवाल उठाये और अपने तर्क प्रस्तुत किये । उन्होंने अपनी प्रस्तुति में इस बात को रेखांकित किया कि अफ्रीका में चीन की उपस्थिति सफल रही है और इसे उसकी पॉंच महत्वपूर्ण सिद्धांतों पर आधारित विदेश नीति से समझा जा सकता है । उन्होंने अपने लेख के अंत में कहा कि भले ही यह अफ्रीका के लाभ के लिए है, लेकिन इसके प्रभाव बहुआयामी है ।
इस सत्र के अगले वक्ता थे –डॉ0 विनोद कुमार मिश्रा । उन्होंने अपने लेख में कहा कि‘’ संसाधनों के गतिरोध के सदंर्भ में भारत-चीन की प्रतिस्पर्धा है तथा अफ्रीका महाद्वीपमें ये मौजूद हैं ।’’उनका तर्क था कि यह केवल आर्थिक हित नहीं है, बल्कि यह चीन का राजनैतिक हित है जिसकेकारण वह अफ्रीका से जुड़ा रहना चाहता है ।इसका सबूत उसकी 2049 में प्रमुख शक्ति बनने की गम्भीर नीति से मिलता है । इसके बाद उन्होंने यह भी उल्लेख किया कि चीन को इसके लिए स्वीकार्यता नहीं मिल रही है और भारत को अपनी नीतियॉं बनाते समय इससे सावधान रहना चाहिए ताकि वह अफ्रीका और विश्व में भी अपना महत्चपूर्ण स्थान सुरक्षित रख सकें ।
सम्मेलन के इस सत्र के अन्तिम वक्ता थे – डॉ0 विजय प्रतिहारी ।उन्होंने पहले तो पिछले वक्तओं के निष्कर्षों की और ध्यान आकर्षित किया और उनसे सहमति व्यक्त की कि चीन और अफ्रीका के बीच काफी सदभाव और सहयोग है, भले ही वह आर्थिक अथवा राजनैतिक सम्बन्धों के कारण हो।बाद में उन्होंने अनेक कारणों पर जोर देते हुए कहा कि ये पिछले तीन दशकों में अफ्रीका में चीन को अपना प्रभाव जमाने में काफी सहायक रहें हैं । इसके बाद उन्होंने ऐसे प्रभावों का उल्लेख किया जो चीन की विदेश नीति में महत्वपूर्ण रूप से परिलक्षित होते हैं । डॉ0 प्रतिहारी ने इस पर चिंता जाहिर करते हुए कहा कि चीन का निर्माण क्षेत्र अफ्रीका के व्यवसाय पर नकारात्मक प्रभाव डाल सकता है ।
सत्र 5 : भारत-अफ्रीका संबंध और जापान : सत्र की अध्यक्षता - प्रोफेसर येरूईनगम ।
इस सत्र के पहले वक्ता प्रो0 किेनिथ किंग थे, जिन्होने ‘’ मानव विकास आयाम के संदर्भ में जापान के अफ्रीका के साथ बदलते सम्बन्ध ‘’परअपने विचार व्यक्त किए ।उन्होंने सबसे पहले एशिया और अफ्रीका में सहायता के इतिहास का संक्षिप्त विवरण दिया । उसके बाद उन्होंने जापान के 3 x पक्षों का उल्लेख किया, जो अफ्रीकी देशों के लिए सम्पूर्ण हित सहायक रहे हैं । प्रो0 किंग ने व्यक्ति से व्यक्ति परस्पर अनुक्रिया पर जोर दिया।उनका मुख्य प्रश्न था - जापान में भारत की भागीदारी से जापान और भारत की अफ्रीका में भागीदारी अर्थात ए ए जी सी के विजन दस्तावेज के माध्यम से प्राप्त कर्ता का एक दाता की ओर अग्रसर होना ।
इस सत्र की अगली वक्ता प्रो0 सरबानी राय चौथरी थी, जिन्होंने '' एशिया और अफ्रीका विकास कोरिडोर : जापान-भारत के संबंधों के लिए एक नई दिशा’’विषय पर अपना लेख प्रस्तुत किया।उसमें उन्होंने समुद्र के उस प्रभाव को रेखांकित किया जिससे जापान को सम्पूर्ण अफ्रीकासे जुड़ने में मदद मिली । इसके अलावा उन्होंने एशिया व अफ्रीका और इन दोनों के बीच बढते विकास व परस्पर अनुक्रिया के लक्ष्यों को प्राप्त किए जाने पर जोर दिया । इसके बाद उन्होंने ए ए जी सी विजन दस्तावेजों में हुए जापान और भारत के उद्देश्यों का उल्लेख किया, जिनमें प्रो0 राय ने जापान की नवीनीकृत प्रतिबद्धता और अफ्रीका की गुणवता पर जोर दिया है । इसके साथ ही उन्होंने भारत के पी ए एन अफ्रीका बनने के लिए कुछ अफ्रीकी देशों की ओर भारत के बदलते रूख पर जोर दिए जाने का भी उल्लेख किया । उन्होंने अपने लेख के अन्त में भारत-अफ्रीका भागीदारी की रणनीतियों के अभिमुखीकरण को भी रेखांकित किया ।
इस सत्र की तीसरी वक्ता डॉ0 सुस्मिता राजवर थी । उन्होंने ‘’भारत के लिए जापान और अफ्रीका में अवसर’’विषय पर अपना लेख प्रस्तुत किया । उन्होंने इसमें अफ्रीका के प्रति जापान की विदेश नीति का उल्लेख करते हुए बताया कि एफ्रो-एशिया देशों द्वारा जापान की विदेशनीति की उस समय किस प्रकार कड़ी आलोचना की गई थी, जब उसने यू एन एस सी द्वारा उस पर लगाए गए आर्थिक प्रतिबन्धों के बावजूद एशिया के साथ अपने व्यापार को जारी रखा था । उन्होंने इसमें उसके टी आई सी ए डी के माध्यम से जुड़े रहने का भी उल्लेख किया । टी आई सी ए डी सहयोगी भागीदारी के माध्यम से अफ्रीका में शांति और स्थायित्व को पक्का करने की जापान की दीर्घावधि प्रतिबद्ता में भी एक महत्वपूर्ण कारक रहा है । उन्होंने अपने इस लेख में एशिया-अफ्रीका विकास गलियारा-2017 के साथ-साथ जापान और अफ्रीका के बीच रहे उस सहयोग की भी चर्चा की, जिससे इन दोनों देशों का वे अवसर प्राप्त हुए, जो अफ्रीका महाद्वीप में अपनी साख के कारण भारत को पहले ही प्राप्त है ।
इस सत्र की अन्तिम वक्ता थीं-डॉ0 बैसाबी गुप्ता, जिन्होंने उल्लेख किया कि‘’जापान और अफ्रीका संबंध-एक वैश्विीक दुनिया’’में अन्तर्राष्ट्रीय सहयोग के नए प्रवाह शामिल हैं और इस स्थिति में अफ्रीका का काफी बड़ा स्थान है । उन्होंने 1993 की टी आई सी ए डी की उस प्रक्रिया के उस प्रभाव का भी उल्लेख किया जो अब अफ्रीका के लिए जापान की विदेश नीति के एक कोने में पड़ा है । उन्होंने अपने लेख में दूसरे विश्व युद्ध के युग के बाद के अफ्रीका के साथ जापान के सम्बन्धों और उसके एफ्रो-एशियासम्बन्धो में एक प्रमुख विकास भागीदार की स्थिति प्राप्त करने के हाल के उसके प्रयासों पर अपना ध्यान केन्द्रित किया, जिससे उसका लक्ष्य अफ्रीका में अंतर्राष्ट्रीय सहयोग की चर्चा में उसकी सार्थकता के उद्देश्य को प्राप्त करना था ।
सत्र 6 : भारत-अफ्रीका संबंध और दक्षिण कोरिया । सत्र की अध्यक्षता – डॉ0 वेरोरिका यूसाचेव
इस सत्र की प्रथम वक्ता डॉ0 ईयून किम थी, जिन्होंने ‘’ कोरिया-अफ्रीका व्यापार संबंध अवरोधों और लाभों पर उनका प्रभाव’’विषय पर अपना लेख प्रस्तुत किेया । उन्होंने इस प्रश्न के साथ अपना वक्तव्य आरम्भ किया कि क्या अफ्रीका में कोरिया द्वारा अपने व्यापार भागीदार चुनना महत्वपूर्ण है । उन्होंने इस तुलना के साथ उल्लेख किया कि जहॉं दक्षिण कोरिया निर्यात करता है और 2016 तक अफ्रीका का दक्षिण कोरिया का निर्यात 13.1 बिलियन डालर था । उन्होंने चीन और जापान द्वारा अफ्रीका को निर्यात की भी तुलना की । उन्होंने कच्चे तरल गैसों पर भी अपना ध्यान केन्द्रित किया जो कि कोरिया के भागीदारों के साथ उसका अनुसंधान का विषय था । उन्होंने तीन निर्यात कारकों – राजनैतिक अस्थिरता, तेल उत्पादन और निर्यात भाड़े का भी जिकर किया । उनका कहना था कि क्या कोरिया के लिए अफ्रीका के साथ अपने व्यापार भागीदार चुनना एक समझदारी है ।
इस सत्र की अन्तिम वक्ता डॉ0 सुवेवोन किम थी, जिन्होने ‘’अफ्रीका और दो कोरिया : स्वाभाविक संबंधो के विपरीत पथ ‘’ विषय पर अपना लेख प्रस्तुत किया । उनका कहना था कि जब अफ्रीका पूर्व एशिया संबंध की यात्रा से पीछे की ओर आ रहे हैं तो मुख्यत: वास्तविक गतिशीलता जैसे कि व्यापार, पूँजीनिवेश, विस्थापन और यात्रा के संदर्भ में इसे समझा जा सकता है । उन्होंने दक्षिण अफ्रीका में खासतोंर पर दक्षिण कोरिया, उत्तर कोरिया पर अपना ध्यानकेन्द्रित किया, जहॉं की विचार-धारा का रूपान्तरण बुद्धिजीवीयों के राजनैतिक भाषणों में अभी भी मौजूद है । उन्होंने इस बात का भी उल्लेख किया कि कोरिया इस समय मुख्यत: सोफ्ट पावर बनने में लगा है । दक्षिण और उत्तर कोरिया की विचारधाराएं कई बार आपस में घुल-मिल जाती है; लेकिन कई बार ये एक-दूसरे के विपरीत होती हैं । उन्होंने उल्लेख किया कि प्रथम और दूसरे विश्व युद्ध के दौरान अपनी सापेक्ष राजनैतिक तटस्थता के कारण अफ्रीका दोनों कोरिया के लिए महत्वपूर्ण कूटनीतिक स्थिति में रहा है और इसका प्रभाव स्थानिक तौर पर और अन्तर्राष्ट्रीय तौर पर दोनो ही ओर महत्वपूर्ण रहा है ।
सत्र 7 : अफ्रीकासंबंध अध्यक्षता – डॉ. निवेदिता राय ।
इसकी प्रथम वक्ता थी डॉ0 सेफिया मेहदी / उन्होंने ‘’ अफ्रीका के ढांचागत विकास में एशिया का हस्तक्षेप ‘’विषय पर अपने विचार रखे । उन्होंने कहा कि अफ्रीका में इसके सामाजिक व आर्थिक सूचकों में वृद्धि दिखाई दे रही है लेकिन वहां अभी भी बड़ी चुनौतियां हैं; खासकर ढांचागत विकास में, जिसमें निरंतर प्रवाह है । उन्होंने अपने लेख में इस बात पर चर्चा की कि एशिया के अनुभवों के साथ-साथ उसके ढांचागत पूंजीनिवेश से अफ्रीका विकास प्रक्रिया में कैसे भागीदारी कर सकता है ।
इस सत्र की दूसरी वक्ता थी – डॉ0 बॉवी लूथरा सिन्हा । उन्होंने अपने सम्बोधन में ‘’आगे बढ़ते हुए पीछे झॉंकने के नए तौर-तरीके : यूगांडा से निकाले गए भारतीय‘’, स्विस हस्तक्षेप तथा भारत-अफ्रीका परिप्रेक्षय पर चर्चा की । उन्होंने उल्लेख किया कि किस प्रकार यूगांडा से भारतीयों को निकाला गया और उनका कोई ख्याल नहीं रखा गया । उन्होंने उस घटना का उल्लेख किया जिसमें यूगांडा के भारतीयों को भारत के राष्ट्रीय इतिहास का एक भाग नहीं माना गया, भले ही वे भारत के स्वतंत्रता से पहले यहां आये थे । फिर भी स्विटजरलैंड जैसे देशों ने आगे आकर इस घटना को एक गंभीर अन्तर्राष्ट्रीय मानवीय संकट माना । उनका सम्पूर्ण वक्तव्य इस बात पर था कि आगे की नीतियां निर्धारित करते समय इतिहास की घटनाओं को भी ध्यान में रखा जाना चाहिए ।
इस सत्र की तीसरी वक्ता थी – डॉ. सबीना आलम । उन्होंने अपने वक्तव्य में ‘’ शासन को बदलता वातावरण है । एफ्रो-एशिया परिप्रेक्ष्य की आवश्यकता’’पर चर्चा की । उन्होंने अफ्रीका के ‘’विकास परिवर्तन’’और उससे जुड़े परिवर्तन की चर्चा करते हुए बताया कि उसे बदलते जलवायु तथा अन्य परिवर्तनकारी दबावों से चुनौती का सामना करना पड़ रहा है और खाद्य सुरक्षा उनकी सबसे बड़ी चुनौती है । इसके अलावा प्राकृतिक आपदाएं भी अफ्रीका की वास्तविकता हैं, जो उसका भविष्य नहीं हैं । उन्होंने अपने वक्तव्य में खाद्य उत्पादन तथा खाद्य आयात की समस्या के साथ-साथ कृषि सम्बन्धित ढॉंचे में पूँजी निवेश तथा वैश्वीकृत लेकिन असमान विश्व के जलवायु परिवर्तन की चुनौतियों का सामना करने के लिए संस्थानों के सुदृढ़ीकरण की समस्या का भी उल्लेख किया ।
इस सत्र की चौथी वक्ता थी । प्रो. तनुजा सिंहउन्होंने अपने लेख में ‘’भारत –अफ्रीका संबंध नए युग का एक विजन ‘’पर चर्चा की । उन्होंने नए युग में भारत-अफ्रीका संबंधो को अफ्रीका के लिए परिवर्तन बताया और वहॉं के प्रचुर संसाधनों का उल्लेख किया, जिनसे पश्चिमी दुनिया को अनेक अवसर मिलते हैं।उनका कहना था कि अफ्रीका एक तेजी से बढ़ता हुआ उपभोक्ता वाद है । अफ्रीका में भारत की साख उन कार्यों से बढ़ रही है जो भारत ने अफ्रीका के लिए किए हैं, इनमें मुख्य जोर इन दोनों देशों के आयात-निर्यात के व्यापार सम्बन्धों पर कैन्द्रित रहा है । इन्होंने दोनों देशों की अपेक्षाकृत अधिक चिरस्थायी भागीदारी तथा सार्वजनिक क्षेत्र की पहलों का भी उल्लेख किया ।
डॉ0 कमला कुमारी इस सत्र की अन्तिम वक्ता रही । उन्होंने अपने सम्बोधन में ‘’ बदलती गतिशील वैश्विक राजनीति में रूस-अफ्रीका सम्बन्ध’’विषय पर चर्चा की । उन्होंने उल्लेख किया कि रूस और अफ्रीका के सम्बन्ध किस प्रकार भिन्न हैं, भले ही वे द्विपक्षीय हो अथवा बहु-पक्षीय सन्दर्भ में हो । भिन्न–भिन्न क्षेत्रों की जनता को प्राय: नई भू-राजनितीक संरचनाओं में परिभाषीत किया गया है । उन्होंने रूस में भारत की मौजूदगी का भी संक्षेप में उल्लेख किया और एतिहासिक नैतिकता को वर्तमान के साथ जोड़ने की उस रणनीति को रेखांकित किया, जिससे अफ्रीका में रूस एक महत्वपूर्ण खिलाड़ी बन जाता है । उन्होंने उन मौजूदा परिपाटियों और अपेक्षाकृत अधिक भागीदारी का भी उल्लेख किया जिसमें रूस और अफ्रीका के सम्बन्धों के अलगाव की संभावना है ।
समापन भाषण
इस सत्र की अध्यक्षता प्रो. रश्मि दोरास्वामी, कार्यकारी निदेशक, अन्तर्राष्ट्रीय अध्ययन अकादमी जेएमआई द्वारा की गई।इसमें प्रतिवेदकों की रिपोर्ट भी प्रस्तुत की गई ।
सम्मेलन के अन्त में अम्बेसडर शशांक, भारत सरकार के पूर्व विदेश सचिवने समापन भाषण दिया, जिसमें उन्होंने उल्लेख किया कि अफ्रीका से सम्बन्धित सभी वर्तमान मामलों में शैक्षिक और एनजीओ स्तर पर सहयोग किया जाना चाहिए । इसमें अन्य एशियाई देशों के साथ भागीदारी की जानी चाहिए और जापान व अन्य देशों से आर्थिक व तकनीकी सहायता ली जानी चाहिए । इस महाद्वीप के राष्ट्रों क्षेत्रों की शैक्षिक जरूरतों को समुचित रूप से पुरा किया जाना चाहिए और यह पता लगाया जाना चाहिए कि वे अपने आपसी सम्बन्धों को स्थापित करने के लिए किस प्रकार सर्वोत्तम विकास कर सकते हैं ।
उनका कहना था कि हम बहुत से देशों के साथ निरन्तर शैक्षिक/शोध कार्य में जुड़े हैं । अफ्रीकी नागरिकों के साथ हिंसा की घटनाओं के मामले पर अम्बेसडर शशांक ने उन नीतियों को लागू करने पर जोर दिया जिनसे भारत में रहने वाले अफ्रीकी नागरिकों और अफ्रीका में रहने वाले भारतीयों के बीच मौजूद नकारात्मक सोच को कैसे दूर किया जाए । इसके साथ ही उनका सुझाव था कि दोनों भागीदारों को शॉति पूर्वक सह-अस्तित्व के लिए अनेक क्षेत्रों में और अधिक सहयोग करना चाहिए ।