“यदि डेमास्कस के विरुद्ध को सनकी कदम उठाया गया तो सीरिया सम्पूर्ण मध्य-पूर्व क्षेत्र में आग लगा देगा।”1
कुछ समय पूर्व तुर्की के विदेश मन्त्री अहमद देवुतोग्लु के साथ राष्ट्रपति असद की वार्ता
भूमिका :
यह कहना शायद अविवेकपूर्ण नहीं होगा कि पश्चिमी एशिया तथा उत्तरी अफ्रीका (डब्ल्यूएएनए) के अनेक देश निवास योग्य उत्तम स्थान होते यदि अपेक्षाकृत यथास्थिति वाले क्षेत्र में विद्रोह के केन्द्र बनते हुए ट्यूनीशिया के छोटे-छोटे स्ट्रीट वेंडरों (खोमचे वालों) ने स्वयं को उत्तेजित न कर लिया होता। यमन में अमेरिका के पूर्व राजदूत बारबरा बोदाइन का वक्तव्य देखिए, "अरब में लोकतन्त्र की माँग के बाद अरब जगत अत्यधिक जटिल हो गया है।"2
ट्यूनीशिया को छोड़कर कोई भी देश जनता के बलिदान का लाभ उठाने में सक्षम नहीं हो सका। मिस्र की कहानी और कुछ नहीं बल्कि क्रान्तिपूर्व युग में वापसी है यमन तथा लीबिया की स्थिति पुन: जटिल हो गयी है। इराक लगभग एक असफल राष्ट्र है जहाँ के उत्तरी भाग पर कुर्दों के आधिपत्य के कारण यह एक स्वतन्त्र राज्य बन गया है। बाध्यकारी नीतियों के संयोजन, आर्थिक सहायता, पारस्परिक सहयोग तथा साम्प्रदायिक जोड़तोड़ द्वारा प्रतीत होता है कि जीसीसी ने अस्थायी तौर पर विप्लव को शान्त कर लिया है।
किन्तु पाँच वर्षों में सीरियाई स्थिति इस प्रकार उभरी कि जिसने इस क्षेत्र की भूराजनीति में परिवर्तन कर दिया और शायद यहाँ के राष्ट्रपति असद ने अन्तर्राष्ट्रीय हस्तक्षेप अस्वीकार करने के लिए रूस तथा अमेरिका के मध्य शीतयुद्ध कालीन प्रतिद्वन्द्विता को पुन: जागृत कर दिया है।3 2011 के मध्य में अरब विद्रोह के कुछ ही समय पश्चात और असद शासन के अलवाइत अल्पसंख्यकों का मुकाबला करने के लिए विरोधी सेनाओं के एकजुट होने तक सीरिया क्षेत्रीय प्रतिद्वन्द्विता के लिए सीरिया महत्त्वपूर्ण हो गया और इसके पश्चात वह विश्व राजनीति के केन्द्र में रूपान्तरित हो गया।
कुल मिलाकर सीरिया संकट के कारण जो परिवर्तन हुआ वह सीरिया में रूस का बढ़ता प्रभाव है जो भूतपूर्व यूएसएसआर के विखण्डन के पश्चात विश्व के राजनीतिक पटल पर लगभग अदृश्य हो गया था। निस्सन्देह रूस उतना निष्क्रिय नहीं रहा जितना अनेक लोग सोचते हैं और ऐसे अनेक ऐतिहासिक तथा रणनीतिक कारक हैं जिसने हाल के वर्षों में रूसी राजनीति को नया आकार प्रदान किया। जब रूस ने असद शासन के विरुद्ध चीन के साथ चार यूएनएससी प्रस्तावों पर वीटो किया तो माना गया कि यह पश्चिमी देशों और नाटो समर्थित सेनाओं द्वारा लीबिया के शासक को न केवल अपदस्थ करने बल्कि उसकी हत्या करने के बाद उनके प्रभावी राजनीतिक व्यवहार के प्रति रूस के मोहभंग की मात्र एक झलक है।
सीरिया संकट तथा बाह्य शक्तियाँ : हिंसा, हस्तक्षेप, कूटनीति तथा गतिरोध
पुरानी उक्ति कि "मिस्र के बिना मध्य-पूर्व में कोई युद्ध नहीं हो सकता है किन्तु सीरिया के बिना मध्य-पूर्व में शान्ति नहीं हो सकती",4 सीरिया संकट की वर्तमान स्थिति को देखते हुए सत्य नहीं सिद्ध होती है। सीरिया में क्षेत्रीय प्रतिस्पर्द्धा बढ़ी है और अनेक प्रकार के हस्तक्षेपों के कारण यह वैचारिक, सम्प्रदायवादी, कट्टरपन्थी लोगों के लिए एक रणनीतिक केन्द्र तथा विद्रोह को पनपाने का एक उर्वर स्थान बनता जा रहा है।
2011 के प्रारम्भ तक सीरिया के विषय में बहुत कुछ ज्ञात नहीं था। केवल 2011 के बाद एक वोग पत्रिका ने राष्ट्रपति असद की पत्नी को "रेगिस्तान के गुलाब तथा मध्य-पूर्व में सर्वाधिक सुरक्षा देश की प्रथम महिला" के रूप में परिचित कराया था।“5
अब तक सीरिया के गृह युद्ध में 300,000 से अधिक लोग6 मारे जा चुके हैं और स्वास्थ्य तथा शिक्षा क्षेत्र पूरी तरह ध्वस्त हो चुका है और संयुक्त राष्ट्र का अनुमान है कि आधे से अधिक जनसंख्या को मानवीय सहायता की आवश्यकता है।7 एक रिपोर्ट के अनुसार, देश में 88% प्रतिशत अस्पताल सेवाएँ नष्ट हो चुकी हैं और एक अन्य रिपोर्ट के अनुसार अब तक एक मानव अधिकार संगठन से सम्बद्ध हजारों चिकित्सकों की हत्याएँ हो चुकी हैं।8
लगभग पाँच वर्षों के काल में सीरिया एक ऐसा मामला बनकर उभरा है जहाँ कूटनीति से लेकर हिंसा तक, विरोधी समूहों के मध्य विभाजन करने के लिए हस्तक्षेप से लेकर राष्ट्रपति असद के भाग्य के विषय में वैश्विक शक्तियों के मध्य विभाजन करने के लिए चरमपंथी विरोधी गुट बनाम उदारवादी विपक्ष के सृजन तक की घटनाएँ घटित हुईं।
वर्तमान सीरिया में शिया इस्लाम की एक शाखा अलवाइत सामाजिक सोपान के शीर्ष पर है। वे सीरिया में सबसे बड़े अल्पसंख्यक है जो वहाँ की कुल 23 मिलियन आबादी का लगभग 12 प्रतिशत हैं। आबादी में सुन्नी सम्प्रदाय का विशाल बहुमत है जो इस जनसंख्या का लगभग 75 प्रतिशत हैं, 10 प्रतिशत कुर्द हैं, ईरान, तुर्की, इराक तथा सीरिया में फैला एक कट्टरपन्थी समूह लगभग 30 मिलियन की संख्या में है।9
यह सब कुछ उस समय प्रारम्भ हुआ जब मार्च 2011 में पन्द्रह स्कूली बच्चों को गिरफ्तार किया गया और वे बच्चे डेरा के दक्षिणी शहर के थे।10 अगले शुक्रवार को विरोध प्रदर्शनों में सुरक्षा बलों ने चार प्रदर्शनकारियों की हत्या कर दी जिससे होम्स, हमा तथा डेमास्कस जैसे सीरिया के अन्य नगरों में भीषण प्रतिक्रिया प्रारम्भ हो गयी।
शीघ्र ही विभिन्न शहरों में लोगों के कट्टरपन्थी तथा साम्प्रदायिक उकसावे द्वारा सुनियोजित हिंसा प्रारम्भ हो गयी। 26 जून, 2012 को हौला के कस्बे में सैकड़ों सुन्नियों की हत्या से सीरिया में कट्टरपन्थी युद्ध प्रारम्भ हो गया। संयुक्त राष्ट्र ने इस अपराध की जाँच की और सुझाव दिया कि राष्ट्र की एजेन्सियों ने ही हजारों महिलाओं तथा बच्चों की हत्या की है।11 जुलाई 2012 में रेडक्रॉस ने घोषित किया कि सम्पूर्ण देश में गृह युद्ध प्रारम्भ हो गया है जिसका अर्थ है कि युद्ध अपराध के सम्बन्ध में दोनों पक्ष जेनेवा समझौते की शर्तों के विषय थे।12 सीरिया पर सम्पूर्ण विश्व का ध्यान केन्द्रित होने का कारण 21 अगस्त, 2013 को रात में पूर्वी गुटेन में डेमास्कस के उपनगरीय शासन द्वारा रासायनिक हथियारों का प्रयोग किया जाना था जिसमें महिलाओं एवं बच्चों समेत 913 लोग मारे गये।13
ह्यूमन राइट वाच तथा अन्य अरब संगठनों के अनुसार सीरिया की स्थिति 1990 में युगोस्लाविया में गृह युद्ध के दौरान की स्थिति से अत्यधिक भयावह है। राष्ट्रीय समन्वय परिषद की एक रिपोर्ट से ज्ञात होता है कि केवल डेमास्कस नगर में ही 37,000 बलात्कार की घटनाएँ हुईं।14 संयुक्त राष्ट्र ने पूर्व के युगोस्लाविया में सर्बियाई नरसंहार के शिकार लोगों के स्मारक का दौरा करने के समय सीरिया की स्थिति पर अपने प्रेक्षणों को निम्नलिखित शब्दों में व्यक्त किया, "मैं 20 वर्षों पश्चात अपने किसी भी उत्तराधिकारी को सीरिया का दौरा करते हुए नहीं देखना चाहता हूँ क्योंकि हमें दु:ख है कि हम सीरिया में अब तक नागरिकों की रक्षा के लिए कुछ नहीं कर सके।"15
विभिन्न कट्टरपंथी मिलिशिया भी सारिया में या यहाँ के शासन को एकीकृत करने या इसे उखाड़ फेंकने के लिए उभर कर सामने आये हैं। सीरिया में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार वहाँ विरोधियों को समाप्त करने के लिए सीरियाई सेना के साथ दर्जनों प्रभावशाली शिया मिलिशिया संघर्ष कर रहे हैं। इनमें कुवैत-अल-रिधा के अतिरिक्त अफगान फातिमिद, इराकी अब्बास ब्रिगेड, माहदी फोर्स ऑफ इराक, इराक मार्टिर ब्रिगेड, इरानियन रिवोल्यूशनरी गार्ड, जुल्फिकार ब्रिगेड तथा हिजबुल्ला ऑफ लेबनान16 शामिल हैं जो होम्स में हैं और कथित तौर ये हिजबुल्ला द्वारा तैयार किये गये हैं।17 वहाँ राज्य के नियन्त्रण से इतर जुबहत-अल-नुसरा (विजय मोर्चा) जिसने स्वयं को सीरिया में अलकायदा से सम्बद्ध घोषित किया, जैशुल-इस्लाम (इस्लाम सेना) तथा जैशुल-फतह (विजयी सेना) जैसे अन्य संगठन भी हैं। इन समूहों को किसी न किसी रूप में क्षेत्रीय शासकों का समर्थन प्राप्त है। उदाहरण के लिए कथित तौर पर सऊदी अरब ने जैशुल-इस्लाम का निर्माण किया और बाद में उन्होंने जैशुल फतह का भी निर्माण किया।18
तुर्की के अतिरिक्त सऊदी अरब तथा ईरान जैसे पड़ोसी देश सीरिया संकट को बढ़ाने में सहयोगी रहे। इराक के बाद एक बार फिर शिया-सुन्नी विवाद का पिटारा खुल गया और अब लगता है कि सऊदी अरब घड़ी की सुई को उल्टी दिशा में घुमाने में रुचि रख रहा है।
ईरान की रियलपॉलिटिक अपनी क्षेत्रीय स्थिति को प्रभावी बनाने तथा अन्य प्रतिस्पर्द्धियों और विशेष रूप से तुर्की की शक्ति को कम करने में संलग्न है ताकि वह अपनी इस नयी भूमिका का उचित निर्वहन कर सके।19 एक सुनवाई में अमेरिकी सेना के सेंट्रल कमाण्ड के प्रमुख ने कहा कि असद शासन की समाप्ति 25 वर्षों में ईरान के लिए एक बहुत बड़ी रणनीतिक हार होगी।20
कतर तथा सऊदी अरब जैसे खाड़ी देशों द्वारा सीरिया में विरोधी गुटों को धन और हथियार मुहैया कराये गये। विरोधी गुट पर अनेक नेताओं का प्रभाव है किन्तु कोई नहीं कह सकता है कि कौन किससे लड़ रहा है।21 संयुक्त राष्ट्र के एक अधिकारी की बात का उद्धरण देते हुए पॉल डेनेहर ने बताया, "अब तक वहाँ छद्म युद्ध का समन्वयन नहीं हुआ है। तुर्की लोग अपने लोगों का समर्थन कर रहे हैं, कतर के लोग अपने तथा सऊदी अरब अपने लोगों का और यह अत्यन्त विध्वंसक है।" संयुक्त राष्ट्र के एक अन्य अधिकारी ने दावा किया कि कतर की सरकार सीरिया में एमबीएच द्वारा संचालित इस्लामी राज्य को बढ़ावा दे रही है जिसके लक्ष्य सऊदी अरब समर्थित सलाफियों से भिन्न हैं। सऊदी अरब की सरकार ईरान को लेकर अधिक चिन्तित है और वर्तमान समीकरण में वह इसका सबसे बड़ा शत्रु है।
इस क्षेत्र में अपनी रणनीतिक महत्त्वाकांक्षाओं के सन्दर्भ में तुर्की दूसरी प्रमुख शक्ति है। इसने सितम्बर 2011 में सीरिया से अपने सम्बन्ध समाप्त करने की घोषणा की। असद विरोधी समूहों जैसे भगोड़ा ब्रिगेड जनरल सलीम इदरीसी के नेतृत्व वाली फ्री सीरियन आर्मी (2011);22 दिसम्बर 2011 में कुछ निष्कासितों से हिलेरी क्लिंटन की बैठक के पश्चात इस्ताम्बुल सीरियाई नेशनल काउंसिल (एसएनसी) जैसे समूहों के निर्माण में तुर्की का बहुत बड़ा योगदान रहा। तुर्की का नवम्बर, 2011 में23 कतर में सीरियाई रिवोल्यूशनरी तथा अपोजीशन फोर्सेज के लिए राष्ट्रीय गठबन्धन के निर्माण में भी योगदान रहा।
सीरियाई सेना द्वारा तुर्की की एफ-4 फैंटम जेट मार गिराया गया और फिर फरवरी, 2014 में तुर्की ने सीरिया का मिग-23 मार गिराया। अक्टूबर 2012 में तुर्की ने रूस से सीरिया को शस्त्र ले जाने वाले वायुयान को मार गिराया। असद विरोधी सेनाएँ भेजने के लिए तुर्की मार्ग का कार्य करता रहा है और कथित तौर पर उन्हें अंकारा में प्रशिक्षण प्रदान करता है। तुर्की पीवाईडी के रूप में सीरिया में कुर्द विद्रोहियों की शक्ति क्षीण करने के उद्देश्य से इस्लामी गुटों का समर्थन करने में रुचि रखता है। धार्मिक मामलों के एक निदेशालय ने सूचित किया कि कुर्दों पर अधिकार करने के उद्देश्य से चरमपन्थी इस्लामवादियों के साथ समन्वयन के लिए तुर्की सैन्य सतर्कता विभाग की नियुक्ति करेगा। तुर्की संसद का एक विरोधी सदस्य इन्सर्ज इंटेलीजेंस में लिखते हुए तुर्की के साथ-साथ नाटो को आईएसआईएस24 को पोषित करने का अभियोग लगाता है और अनुमान करता है आईएसआईएस ने तुर्की से लगभग 800 मिलियन डॉलर का तेल बेचा है-यह एक वर्ष का विक्रय था। अल-मॉनीटर की एक अन्य खोजी रिपोर्ट के अनुसार सीरिया सीमा की ओर जाता हुआ एक ट्रक, तुर्की सैन्य सतर्कता विभाग की सहायता से 25-30 मिसाइलों, 20-25 क्रेट गोला-बारूद छ: से अधिक धात्विक कंटनरों को लेकर सीरिया में अलकायदा के पास जा रहा था।25
गत पाँच वर्षों के प्रमुख राजनीतिक तथा कूटनयिक प्रकरण निम्न प्रकार हैं :
अमेरिका असद सरकार को हटाने के लिए सीरिया के विरुद्ध युद्ध करने हेतु जितना ही अधिक आमादा था खाड़ी देश तथा तुर्की की ओर से उतना ही अधिक क्षेत्रीय हस्तक्षेप बढ़ता जा रहा था। किन्तु राष्ट्रपति ओबामा ने अन्तर्राष्ट्रीय प्रतिबन्ध के बिना सीरिया में किसी कार्यवाही का वास्तविक विरोध किया। यह शायद पश्चिमी एशिया में उनकी गैर-महत्त्वपूर्ण रणनीति का अंग था।
कथित तौर पर राष्ट्रपति ओबामा ने अपने राज्य सचिव से कहा कि वे नेतृत्व अपने हाथ में नहीं लेना चाहते हैं क्योंकि उन्हें पता है कि कोई सुखद अन्त नहीं होने वाला है।35 इसके अतिरिक्त वे चुनावों के दौरान कोई अतिरिक्त समस्या मोल नहीं लेना चाहते थे। जनवरी, 2013 में ओबामा ने विद्रोहियों पर आक्रमण करने तथा शस्त्र आपूर्ति करने के लिए दबाव पर प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए कहा, "मैं पूछना चाहता हूँ कि क्या हम उन स्थितियों में कुछ कर सकते हैं? क्या सेना के हस्तक्षेप से कोई प्रभाव पड़ेगा? जमीनी स्तर पर हमारी संलिप्तता का परिणाम क्या होगा? हमें उनका अन्दाजा कैसे लगेगा-सीरिया में जो हजारों हत्याएं हुईं और कांगो में वर्तमान में जो हजारों लोग मारे जा रहे हैं?"36
अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति के एक प्रोफेसर ने टिप्पणी की, "कोई भी समाधान थोप नहीं सकता है। हमने इराक और अफगानिस्तान में यह करके देख लिया है और ओबामा इसमें लिप्त नहीं होना चाहते हैं। एक अर्थ में सीरिया को अपना जॉर्ज वाशिंगटन स्वयं ढूँढना होगा। अमेरिका यह नहीं कर सकता है।"37
अमेरिकी राज्य सचिव को सीरिया में गृह युद्ध के बाद अपने प्रथम दौरे के समय कतर के प्रधानमन्त्री से झिड़की मिली। कतर के प्रधानमन्त्री ने अमेरिकी प्रशासन की उदासीनता पर खेद प्रकट किया और कहा कि रॉकेट से फेंके गये कुछ ग्रेनेड विश्व व्यवस्था के लिए धमकी नहीं हो सकते।38
सीरिया प्रशासन द्वारा रासायनिक अस्त्रों के उपयोग के परिणामस्वरूप अमेरिकी द्वारा आक्रमण किये जाने की सम्भावना की जा रही थी। श्री ओबामा ने पहले ही घोषणा कर दी थी कि अमेरिका के लिए यह लाल रेखा होगी और उन्होंने कांग्रेस से अनुमति लेने की बात की। किन्तु रूस के कूटनयिक प्रयासों के कारण यह संकट टल गया। अगस्त, 2013 में ह्यूमन राइट्स वाच ने कहा कि इस प्रशासन ने रासायनिक हथियारों का प्रयोग किया है और इस आक्रमण में सरीन से युक्त वेपन ग्रेड नर्व एजेन्ट का भी प्रयोग किया गया है।
अरब जगत तथा शीत युद्ध और उत्तर-शीतयुद्ध काल
बीसवीं शताब्दी की विश्व राजनीति के विषय में पूर्व को सोवियत संघ तथा संयुक्त राज्य अमेरिका के दो वैचारिक तथा सैन्य शक्ति के मध्य शीत युद्ध के अतिरिक्त स्पष्ट रूप से कोई अन्य चीज सम्भवत: नहीं व्यक्त कर सकती है। यह केवल दो वैश्विक शक्तियों के मध्य का शीत युद्ध नहीं था बल्कि एक पारस्परिक प्रतिद्वन्दिवता भी थी जिसने सम्पूर्ण विश्व में युद्ध की राजनीति, रणनीतिक गुटबन्दी, क्षेत्रीय छावनी, सामूहिक सैन्यीकरण, सत्ता परिवर्तन, छद्म युद्ध के उद्भव, गुप्त प्रचालन, राज्येतर ताकतों, सैन्य प्रशासनों के समर्थन, इस्लामी विचारधाराओं को समर्थन तथा जेहादियों को समर्थन तथा वित्तपोषण का समर्थन करते हुए अपने सहयोगियों तथा शत्रुओं की राजनीति को भी प्रभावित किया।
यही बाद पश्चिमी एशिया के विषय में भी सत्य है जब शीत युद्धकालीन राजनीति से इस क्षेत्र की तुलना की जाती है। इसके अतिरिक्त इस क्षेत्र में तेल तथा गैस की उपस्थिति ने शीतयुद्ध की राजनीति को अतिरिक्त गति प्रदान की जिसका प्रभाव स्वयं शीत युद्ध काल से अधिक समय तक रहा। 1947 में ट्रूमैन सिद्धान्त के उदय से लेकर 1957 के ईजेनहोवर सिद्धान्त तक इन सभी ने पश्चिमी एशिया में अमेरिकी नीति को आकार प्रदान किया। ये सिद्धान्त प्राथमिक तौर पर सोवियत विचारधारा को अनुरक्षित करने तथा इस क्षेत्र में अमेरिकी सैन्य तथा आर्थिक हितों के संवर्धन के लिए लक्षित थे। एक दशक पश्चात निक्सन का "जुडवाँ सिद्धान्त" आया जिसमें ईरान तथा सऊदी अरब को आर्थिक तथा सैन्य सहायता प्रदान करने की बात निहित थी।39
अमेरिका के लिए इस क्षेत्र महत्त्व विश्व के विख्यात दो-तिहाई पेट्रोलियम भण्डार तक सीधी पहुँच बनाने तथा पूर्व राज्य सचिव किसिंगर के अनुसार सोवियत संघ के विरुद्ध अमेरिका के क्षेत्रीय पुलिसमैन के रूप में चित्रित इजराइल की सुरक्षा तथा कल्याण के प्रति दीर्घकालीन प्रतिबद्धता के कारण है।40 अमेरिका के परम्परागत अरब सहयोगियों और विशेष रूप से सऊदी अरब, गल्फ के शेखों के राज्य भी अमेरिका के लिए इस क्षेत्र के महत्त्व को निर्धारित करते हैं।
शीतयुद्ध के पचास वर्षों के इतिहास में पश्चिमी एशिया का प्रत्येक संकट या तो अमेरिका अथवा सोवियत संघ की सैन्य, रणनीतिक तथा कूटनीतिक शक्ति का परीक्षण था, चाहे यह 1953 में ईरान के प्रधानमन्त्री मुसादिक की लोकतान्त्रिक ढंग से चुनी गयी सरकार का पतन हो, 1967 का अरब-इजराइल युद्ध हो, 1967-70 का दीर्घकालीन संघर्ष हो, 1973 का इजराइल-मिस्र युद्ध हो, 1970 का जोर्डन संकट हो या तेल व्यापार प्रतिरोध तथा असंख्य अन्य मुद्दे हों।
पूर्व-पश्चिम की प्रतिद्वन्द्विता का प्रभाव सैन्य शासन को प्रोत्साहित करके अथवा अरब शासकों की कार्यपालक प्राधिकार के हाथों को मजबूत करके लोकतन्त्र के उदय को कुचलना था।41 अमेरिका की लोकतन्त्र के प्रति प्रतिकूल प्रवृत्ति पूर्ण रूप से अरब के सैन्य शासकों द्वारा उपयोग में लायी गयी जिसने लोकतन्त्र को भ्रामक तथा ऐसी गला काटने वाली प्रणाली बताते हुए इसे अस्वीकार कर दिया जिसमें बड़े कुत्ते दूसरों को खा जाते हैं।42
सम्भवत: शीत युद्ध की समाप्ति अरब जगत में एकमात्र एक अमेरिकी आन्दोलन के रूप में प्रविष्ट हुआ। सबसे पहले आक्रमण, आतंक के विरुद्ध युद्ध, सत्ता परिवर्तन, मानव अधिकार अभियान, व्यापक विध्वंसकारी हथियार, बुराई की धुरी तथा यूएनओ जैसी वैश्विक संस्थाओं का असम्मान जैसे कुछ सिद्धान्त ऐसे कारक थे जिसे अन्तर्राष्ट्रीय समुदाय ने पहली बार अनुभव किया। जबकि विश्व के शेष भागों में लोकतन्त्र की लहर देखी गयी, किन्तु अरब को छोड़कर यह "अरब अपवादवाद" था और लोगों ने इसे अलौकिक परिदृश्य के रूप में देखा।43
1990-91 का खाड़ी युद्ध, 9/11 की घटना तथा आतंक के विरुद्ध निर्णायक अमेरिकी युद्ध, अमेरिकी नेतृत्व में इराक तथा अफगानिस्तान के विरुद्ध युद्ध, सद्दाम की समाप्ति तथा अलकायदा एवं तालिबान की प्रत्यक्ष पराजय विश्व राजनीति की कुछ ऐसी महत्त्वपूर्ण घटनाएँ थीं जिसने क्षेत्रीय राजनीति पर गहरे दाग छोड़े।
जहाँ तक रूस का प्रश्न है, इस क्षेत्र में उसकी उपस्थित नई नहीं हैं और सभी लोग भली-भाँति जानते हैं कि 50 तथा 60 के दशकों में रूस और मिस्र के मध्य सम्बन्ध कैसे थे और 70 के दशक में यह कितना कठिन था (जब मिस्र में राष्ट्रपति सादत की सत्ता आई) और फिर इराक तथा सीरिया के साथ कैसे सम्बन्ध थे जब सीरिया रूस के साथ गठबन्धन में प्रमुख अरब देश बन गया था।
यह बाथिस्ट पार्टी का ही शासन था जिसने दोनों देशों के मध्य घनिष्ठ सैन्य, रणनीतिक तथा आर्थिक सम्बन्ध की नींव डाली थी। इन दोनों के सम्बन्ध सीरिया की स्वतन्त्रता से पूर्व से ही बने हुए थे जब दोनों ने 1946 में एक गुप्त समझौते पर हस्ताक्षर किये थे। इस समझौते में अन्तर्राष्ट्रीय परिदृश्य में सीरिया को सोवियत संघ के समर्थन तथा सीरियाई सेना की स्थापना में सैनिक मदद देने की व्यवस्था की गयी थी।44 1950 में एक गैर-आक्रमण सन्धि पर हस्ताक्षर किये गये जो पूर्व के प्रसंग और पुन: 1955 के बगदाद पैक्ट का प्रतिफल था और 1956 के स्वेज संकट ने दोनों के मध्य सम्बन्धों को और अधिक प्रगाढ़ कर दिया।
1971 में सत्ता में आने के पश्चात हाफिस असद को सोवियत संघ से और अधिक आर्थिक तथा सैन्य सहायता की आवश्यकता हुई क्योंकि सीरिया ने पूर्वी गुट से प्राप्त सहायता का उपयोग करने के लिए सोवियत संघ की शैली के अनुसार अपनी सेना तथा अर्थव्यवस्था को व्यवस्थित किया था।45 इसके अतिरिक्त रूस परमाणु सन्तुलन बनाये रखने के लिए पूर्वी भूमध्यसागर में अपनी उपस्थिति बनाये रखना चाहता था।
1980 के दशक में सीरिया की लगभग समस्त आर्थिक एवं सैन्य आवश्यकताओं की पूर्ति रूस द्वारा की गयी और कैम्प डेविड समझौते के तुरन्त बाद 1980 में एक व्यापक सन्धि पर हस्ताक्षर किये गये जिसने अरब जगत तथा शीत युद्ध के दो प्रतिद्वन्द्वियों के मध्य सम्बन्धों के ढाँचे को परिवर्तित कर दिया। 1980 के समझौते में कहा गया कि किसी भी पक्ष के लिए शान्ति तथा सुरक्षा के प्रति खतरे की स्थिति में दोनों एक-दूसरे से तुरन्त सम्पर्क करेंगे। 1980 के समझौते के गुप्त प्रोटोकॉल के अनुबन्ध के अनुसार यदि इजराइल सीरिया पर आक्रमण करता है तो रूस उसकी सहायता करेगा। 1971 में मिस्र के राष्ट्रपति सादत द्वारा उन्हें बेदखल करने के पश्चात रूस ने युद्धक विमान सहित अपने सेना सलाहकारों को सीरिया भेजा था।46
किन्तु शीतयुद्ध की समाप्ति ने शीतयुद्ध के मित्र देशों के मध्य सम्बन्ध को परिवर्तित कर दिया तथा इन दोनों देशों के मध्य सम्बन्ध अब आर्थिक दृष्टि से परिभाषित और समीक्षित किये जाने लगे थे। रूस ने इजराइल के साथ राजनयिक सम्बन्ध स्थापित किये और सीरिया ने भी 1990-91 के अमेरिकी नेतृत्व वाले खाड़ी युद्ध में शामिल होकर अपने घनिष्ठ सहयोगी को अनबन का संकेत दे दिया। वर्ष 2000 में चेचेन विद्रोहियों को रूस को सौंपने से इन्कार करने के पश्चात इनके मध्य सम्बन्धों में और अधिक कटुता आ गयी।
किन्तु राष्ट्रपति पुतिन तथा बशर असद के सत्ता में आने के बाद इनके सम्बन्ध फिर से बहाल हो गये और दोनों ने शीत युद्धकालीन दिनों के सम्बन्धों को वापस लाने का प्रयास किया। ये नये सम्बन्ध इराक तथा अफगानिस्तान में अमेरिका तथा इसके सहयोगियों के बढ़ते सैन्य हस्तक्षेप तथा इस क्षेत्र में बढ़ती अस्थिरता के रूप में बदलती हुई रणनीतिक परिस्थितियों से प्रेरित थे।
कट्टरपन्थी इस्लामवादियों के उत्थान के विरुद्ध दोनों ने एक दीवार की भाँति कार्य करने के क्रम में एक-दूसरे को आच्छादित कर लिया जो रूस, उत्तरी काकेशस तथा मध्य एशिया के कुछ हिस्सों में स्थिरता के लिए खतरा उत्पन्न कर रहे थे। सीरिया ऐतिहासिक रूप से रूस के लिए इस क्षेत्र के अन्य देशों सहित सीरिया में उसके राजनीतिक प्रसार हेतु एक महत्त्वपूर्ण स्थान रहा है तथा यह रूस के हथियारों तथा गोला-बारूद का सबसे बड़ा बाजार रहा है।
रूस की भूमिका का विश्लेषण
पूर्व के खण्ड में हमने देखा कि सीरियाई युद्ध की समाप्ति के लिए किस प्रकार क्षेत्रीय तथा वैश्विक दोनों प्रकार के राजनयिक प्रसार असफल रहे हैं। आगामी खण्ड में सीरिया में रूस की भूमिका तथा राजनयिक और रणनीतिक ढंग से पश्चिम द्वारा इसके प्रतिकार का विश्लेषण किया जायेगा।
पुतिन के समर्थक उन्हें इस क्षेत्र में अमेरिका के सनातनी आधिपत्य के लिए चुनौती के रूप में देखते हैं। जैसा लोग कहते हैं, यदि वास्तव में हस्तक्षेप शीत युद्ध को पुनर्जीवित करने का प्रयास नहीं है तो अमेरिकी के पक्ष से उसके चुनौतीहीन आधिपत्य तथा एकपक्षीय कार्यवाही को समाप्त करने के लिए यह रूस की नयी रणनीतिक शक्ति का प्रदर्शन है जिसे विश्व देख रहा है। श्री पुतिन की कार्यवाहियों के कारण उनको जार का उत्तराधिकारी नहीं माना जा रहा है बल्कि इसे पूर्व का सोवियत संघ माना जा रहा है जो अमेरिकी नेतृत्व वाले पश्चिमी प्रभाव को सन्तुलित करता है।
कुछ विश्लेषकों ने इंगित किया कि रूस तथा सीरिया के मध्य दीर्घकालीन रक्षा अनुबन्ध, टार्टस में नौसैनिक अड्डे का महत्त्व तथा सीरिया को बेचे जाने वाले रूसी हथियार रूस के समर्थन के कारक हैं किन्तु वास्तविक कहानी इससे इतर है। रूस की विदेश नीति शीतयुद्ध के काल की वापसी है जब इसने अमेरिका के प्रभाव को सन्तुलित करने के लिए अपने ग्राहकों को हर सम्भव सहायता दी चाहे यह अफ्रीका में हो या एशिया तथा लैटिन अमेरिका में हो।
सीरिया में संकट उत्पन्न होने के समय से ही रूस तथा ईरान का प्रभाव बहुत अधिक है और वे घनिष्ठ मित्र तथा रणनीतिक समर्थक बन गये हैं। सीरिया को रूस का समर्थन अपने वीटो पावर के कारण हमेशा रहा है। संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के स्थायी सदस्यों के सामूहिक निर्णय पर निर्भरता के कारण सीरिया के मुद्दे पर संयुक्त राष्ट्र व्यापक तौर पर असफल रहा। मास्को के लिए ईरानी मामले सहित सीरियाई संकट ने वैश्विक शक्ति प्रतिस्पर्द्धा में कार्यवाही करने के लिए एक अप्रत्याशित स्थिति उत्पन्न कर दी।47
सीरिया में रूस का हस्तक्षेप अचानक नहीं हुआ बल्कि यह धीरे-धीरे तथा क्रमिक रूप से बढ़ा। सीरिया के मामले में इसकी रणनीति यथार्थवाद और विश्व राजनीति के गत दशकों के अनुभव पर आधारित थी।48 सीरिया संकट के प्रारम्भ से ही रूस की नीति को ईरान का सहयोग प्राप्त करने तथा सीरिया में कुर्दों की शक्ति बढ़ाने के द्वारा अपनी संलिप्तता के क्षेत्र को बढ़ाने के रूप में देखा जा रहा है और ऐसी खबरें है कि हाल के सप्ताहों में रूस ने एक कुर्दिश डेमोक्रेटिक यूनियन पार्टी के पक्ष में प्रतिनिधान का आयोजन किया था।49 रूस चीन तथा ईरान दोनों से अभूतपूर्व सहयोग की अपेक्षा करता है और दोनों ने सीरिया को व्यापक सहयोग दिया है और दोनों ने रणनीतिक, राजनीतिक तथा कूटनीतिक सन्दर्भ में भारी निवेश किया है। ईरान के लिए इस क्षेत्र में आर्थिक हितों के साथ शिया शक्ति के रूप में अपनी पकड़ मजबूत करना था तथा चीन के लिए यह प्रारम्भ में आर्थिक हितों के सन्दर्भ में था किन्तु अब आईएसआईएस के बढ़ते खतरों के कारण अपना प्रसार करता हुआ प्रतीत होता है जो बाद में भूरणनीतिक हितों तक विस्तारित हो सकता है।
वैश्विक मामलों में उनकी बढ़ती रणनीतिक अन्तर्क्रियात्मक घनिष्ठता तथा साझेदारी के परिणामस्वरूप रूस तथा चीन आपसी सुरक्षा तथा अन्तर्राष्ट्रीय स्थायित्व सशक्त करने के लिए संयुक्त योजनाएँ तथा कार्यवाहियाँ करके इसमें प्रविष्ट हुए हैं। इस स्थिति से स्पष्ट है कि प्रत्येक देश क्षेत्रीय अखण्डता और सीरियाई संघर्ष से निपटने के उपायों पर ध्यान दे रहा है।50 डेमास्कस प्राचीन सिल्क मार्ग का परम्परागत केन्द्र बिन्दु रहा है जो सूचित करता है कि चीन सीरिया को एक महत्त्वपूर्ण व्यापारिक केन्द्र के रूप में देखता है। वन बेल्ट वन रोड तथा सिल्क मार्ग की पहलों के साथ सीरिया में स्थायित्व होना चीन के लिए महत्त्वपूर्ण है।51 इसके अतिरिक्त, रूस तथा ईरान दोनों ने असद को अपना दृढ़ समर्थन दिया है और दोनों क्रमश: विदेशी हस्तक्षेप तथा सलाफीवाद के विरुद्ध मुख्य उद्देश्य के रूप में असद को समर्थन दे रहे हैं, एक ओर जहाँ राष्ट्रपति पुतिन सीरिया संकट को आन्तरिक मामला मानते हैं, अमेरिका और इजराइल भी इसे आन्तरिक मामला मानते हुए प्रशासन द्वारा की जा रही हिंसा को खतरे की प्रतिक्रिया मानते हैं।52 रूस, ईरान तथा चीन में जो महत्त्वपूर्ण समानता है वह है पश्चिमी देशों की अक्षमता तथा अपने देशों में अपने उदारवादी विचारों का प्रसार। वे सत्ता परिवर्तन के विरोधी हैं। लोकतन्त्र, मानव अधिकार तथा अन्य उदारवादी विचारों पर आधारित पश्चिमी देशों का हस्तक्षेप इन तीनों देशों पर प्रश्न चिह्न खड़ा करता है जो उनके ही देश में उन्हें बेचैन करता है।
सीरिया में "सत्ता परिवर्तन" रूस के लिए सदैव एक खतरे की रेखा रही है। सम्भवत: 'सत्ता परिवर्तन' के प्रति रूस का प्रचण्ड विरोध प्राथमिक तौर पर इस क्षेत्र में उसके विगत कटु अनुभवों द्वारा प्रेरित है। बाद में, अमेरिका प्राय: सत्ता परिवर्तन की नीति को प्रश्रय देता रहा और इराक, अफगानिस्तान तथा लीबिया में वह सफल रहा किन्तु कुछ अन्य देशों वह यह लक्ष्य हासिल नहीं कर पाया। सीरिया में अमेरिका के इसी लक्ष्य ने रूस के भय को पुष्ट किया और इसने अनुभव किया कि सत्ता परिवर्तन से पश्चिमी देशों के अनुकूल सत्ता स्थापित होगी जैसा कि इराक और अफगानिस्तान में देखा गया। नया शासन केवल पश्चिमी देशों के प्रति झुकाव वाला नहीं होगा बल्कि यह खाड़ी देशों के अधिक निकट होगा क्योंकि जीसीसी का असद विरोधी अभियान व्यापक रूप से वर्तमान रणनीतिक ढाँचे को अस्वीकार करने के लिए ईरान-प्रशासन के विरुद्ध सत्ता स्थापित करने के पक्ष में है। असद के रूप में ईरान उन्मुखी शासन की समाप्ति इराक के सद्दाम हुसैन की मृत्यु के पश्चात जीसीसी के लिए अधिक महत्त्वपूर्ण हो गयी। यदि असद सरकार गिर जाती है तो सऊदी अरब अपना चेहरा बचाने में सक्षम होगा। किन्तु, ईरान इस परिदृश्य को पसन्द नहीं कर सकता है क्योंकि इसने इराक, सीरिया तथा लेबनान में अपने शिया नेटवर्क के माध्यम से अपना प्रभाव बढ़ा लिया है। इसके अतिरिक्त, रूस जैसी महाशक्ति अपना निजी हित सर्वोपरि तथा केन्द्र में रखने के लिए प्रवृत्त है। सीरिया में किसी भी स्पष्ट विकल्प की अनुपस्थिति में रूस इराक, अफगानिस्तान तथा लीबिया के अपने विगत अनुभवों के कारण कोई स्थानापन्न देना पसन्द नहीं करेगा जहाँ केवल राज्य संस्थाओं की अस्थिरता तथा उनकी समाप्ति देखी गयी। रूस सीरिया के रूप में न तो अपना कोई रणनीतिक सहयोगी खोना पसन्द करेगा और न ही यह अपने क्षेत्र के आसपास किसी अराजक स्थिति को देखना पसन्द करेगा।
विश्व स्तर पर तेल बाजार में तेल की कीमतों के निरन्तर कम रहने का कारण सीरिया की स्थिति को माना जा सकता है। इसे वास्तव में सीरिया संकट तथा इसके साथ रूसी हस्तक्षेप से जुड़ी इस क्षेत्र की भूराजनीति के एक अंग के रूप में देखा जा रहा है। ऐसी रिपोर्ट है कि तेल बाजार की एक वैश्विक शक्ति सऊदी अरब उस समय रूस पर 'तेल-अस्त्र' के माध्यम से दबाव बना रहा है जब रूस अन्य ओपेक देशों के साथ तेल की कीमतें गिरने के प्रभाव से परेशान हैं और तेल का उत्पादन कम करने पर कोई बातचीत नहीं हो रही है। सऊदी के एक राजनयिक ने कहा कि यदि तेल के कारण सीरिया में शान्ति स्थापित हो सकती है तो मैं नहीं समझ पा रहा हूँ कि सऊदी अरब किस प्रकार इस कार्य की दिशा में किये जाने वाले प्रयासों से पीछे हटेगा।53 किसी को भी नहीं पता है कि सऊदी अरब को तेल की कीमतें कम रखकर कितना अनुषंगी राजनयिक लाभ मिलने वाला है। निकट भविष्य में यह व्यावहारिक नहीं प्रतीत होता है कि तेल की राजनीति के कारण राष्ट्रपति पुतिन सीरिया में स्थितियाँ बदलने के लिए तैयार होंगे क्योंकि यूक्रेन मामले में रूस पर लगाये गये अमेरिकी तथा यूरोपीय संघों के प्रतिबन्ध इसकी सैन्य कार्यवाही को प्रभावित नहीं कर पायेंगे।
चीन के साथ रूस ने राष्ट्रपति असद को अपदस्थ करने के प्रस्ताव पर न केवल वीटो का प्रयोग किया बल्कि इसने राष्ट्रपति असद की निन्दा करने के लिए निर्मित प्रस्ताव में अनेक संशोधन करने के लिए बाध्य भी किया और सीरिया में विद्रोही ताकतों को निर्दोष करार दिया।54 रूस तथा चीन द्वारा चार प्रस्तावों पर वीटो करने को अमेरिका ने इसे रूस द्वारा संयुक्त राष्ट्र संघ की वैधता को कम करने का प्रयास बताया।55 राष्ट्रपति पुतिन ने सीरिया की स्थिति को समग्रता से देखने के लिए संयुक्त राष्ट्र तथा इसके सदस्यों को अनेक बार चेताया। उन्होंने यह भी कहा कि अपने भाग्य का फैसला करना उसी देश का कार्य है। रूस ने उस प्रस्ताव पर वीटो किया जिसमें असद शासन पर प्रतिबन्ध लगाया गया था। हाल ही में, रूसी वक्तव्य ने संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की प्रस्तावित भाषा की भी निन्दा की क्योंकि इसमें केवल एक पक्ष की आलोचना प्रतीत होती थी और विद्रोही समूह द्वारा मानवीय ढाल के उपयोग को अनदेखा किया गया था।56
2012 तथा 2013 में संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के कुछ प्रस्ताव जैसे (2042 तथा 2043) स्वीकार किये गये थे। इन प्रस्तावों में क्रमश: कोफी अन्नान को सीरिया के लिए संयुक्त यूएन-अरब लीग प्रतिनिधि के रूप में नियुक्ति तथा सीरिया में यूएन सुपरवाइजरी मिशन भेजना शामिल था। अगस्त 2015 में, अगस्त 2013 में सीरिया में रासायनिक हथियारों का प्रयोग करने के अपराधियों की पहचान करने के लिए एक संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद द्वारा एक अन्य प्रस्ताव (2235) पारित किया गया, किन्तु इसमें इस निर्देश का अभाव था कि अपराधियों के विरुद्ध क्या कार्यवाही की जायेगी।57
रूसी विदेश मन्त्री सर्गे लैवरोव ने कहा कि सभी प्रस्तावों ने निरपेक्ष रूप से सेना के उपयोग अथवा अध्याय VII के किसी अनुप्रयोग (यूएन चार्ट का) को खारिज कर दिया है। उन्होंने कहा कि यदि गैर-अनुपालन का "ठोस तथा स्पष्ट प्रमाण" होगा तो अध्याय VII के अधीन भविष्य में किसी सम्भावित सैन्य बल का प्रयोग करने के लिए एक नये प्रस्ताव की आवश्यकता होगी।57 रूस की यह माँग घरेलू मामलों में अहस्तक्षेप की नीति तथा राष्ट्रीय प्रभुसत्ता के सम्मान द्वारा प्रेरित है।59
रूसी मामलों के एक अन्य विशेषज्ञ ने यही भावना व्यक्त करते हुए कहा, "विश्व व्यवस्था के विषय में रूसी दृष्टिकोण संयुक्त राष्ट्र की सुरक्षा परिषद के प्रत्यक्ष, स्पष्ट आदेश के बिना किसी भी प्रकार हस्तक्षेप के प्रति नकारात्मक दृष्टिकोण तथा राष्ट्रीय प्रभुसत्ता, जब तक कि सुरक्षा परिषद द्वारा अनुमोदित न हो सैन्य बल के गैर-उपयोग और वास्तव में कानून के नियम पर आधारित है। और इसलिए, यह सुविज्ञात है-अत: यह व्यावहारिक हितों के मामले की अपेक्षा दर्शन का मामला है।"60
रूस अन्तर्राष्ट्रीय कानून के चयनात्मक अनुप्रयोग को वैध करार देने के लिए अधिक चिन्तित है जहाँ रूस तथा पूर्व सोवियत संघ के इसके घनिष्ठ सहयोगी सम्भवत: संयुक्त राष्ट्र की सहमति से इसी प्रकार के विदेशी सैन्य हस्तक्षेपों का निशाना बन सकते हैं। रूसी अधिकारियों ने स्पष्ट रूप से कहा कि राष्ट्रपति असद के शासन पर प्रतिबन्ध लगाने के संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के प्रस्ताव का उनका विरोध पश्चिमी देशों द्वारा गद्दाफी के विरुद्ध संयुक्त राष्ट्र के प्रस्ताव के उपयोग के प्रत्युत्तर में है जिसमें गद्दाफी को सत्ताच्युत होना पड़ा था।61
इसी मुद्दे पर एक रूसी मामलों के जानकार विताली नौमकिन ने ब्रूकिंग दोहा परिचर्चा में कहा कि लीबियाई सिण्ड्रोम (लक्षण) रूस में अब भी छाया हुआ है। उन्होंने कहा, "मैं आपसे कहता हूँ कि जब रूस ने प्रस्ताव 1973 पर मतदान से परहेज किया तो इस निर्णय में सुरक्षा परिषद से पारित उड़ान-निषिद्ध क्षेत्र की व्यवस्था थी। बाद में इस निर्णय की रूसी सार्वजनिक विचारधारा में व्यापक आलोचना हुई। यहाँ तक कि इस निर्णय के लिए रूसी राष्ट्रपति की मुखर आलोचना हुई, और शर्मनाक दृश्य वह था जब रूस को उसके साझेदारों ने धोखा दिया और उड़ान-रहित क्षेत्र प्रत्यक्ष सैन्य हस्तक्षेप में परिवर्तित हो गया।"62
एक रूसी राजनयिक ने कहा, "हमें लीबिया में धोखा मिला। यह मामला रूस के हितों से परे जा चुका है; अब यह स्वाभिमान का प्रश्न है। इस बार रूस कम कीमत पर समर्पण नहीं करेगा जैसा उसने लीबिया के मामले में किया।"63
इसी प्रकार की भावना व्यक्त करते हुए एक चीनी विशेषज्ञ ने कहा, "हम अनुभव करते हैं कि हमने लीबिया में उड़ान निषिद्ध क्षेत्र के निर्णय पर धोखा खाया। पश्चिमी देशों को आशा थी कि लीबिया में जो कुछ घटित हुआ वही सीरिया में भी घटित होगा। किन्तु वे इस्लामी कट्टरपन्थ के विषय में बहुत कम जानते हैं। सीरिया लीबिया नहीं है और सीरिया की स्थिति अपेक्षाकृत अधिक जटिल है।"64
एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण राजनयिक हस्तक्षेप उस समय आया जब राष्ट्रपति ओबामा ने अगस्त, 2013 में रासायनिक हथियारों के उपयोग को 'खतरे की रेखा' कहा और अमेरिका तथा फ्रांस दोनों ने सीरिया को रासायनिक हथियारों का उपयोग करने के विरुद्ध हवाई हमले करने की धमकी दी थी। जब इसके लिए कांग्रेस की अनुमति प्राप्त हो गयी तो सैन्य आक्रमणों की सम्भावना निकट प्रतीत होने लगी। किन्तु 2013 के जी-20 सम्मेलन में राष्ट्रपति पुतिन तथा ओबामा दोनों ने सीरियाई रासायनिक हथियारों को अन्तर्राष्ट्रीय नियन्त्रण के अधीन रखने के विषय में चर्चा की।
इसी बीच रूसी विदेश मन्त्री ने घोषणा की कि सीरिया ऐसा करने पर सहमत हो गया है जिससे सीरियाई रासायनिक हथियारों की समाप्ति के लिए एक ढाँचा तैयार करने की सहमति बनी। रूस सीरिया के सम्बन्ध में चार-चरणीय योजना प्रस्तावित की जिसका प्रारम्भ डेमास्कस को रासायनिक अस्त्र निषेध संगठन (ओपीसीडब्ल्यू) का सदस्य बनाने से था। इसके पश्चात सीरिया अपने उन रासायनिक शस्त्रागारों की स्थिति घोषित करेगा जहाँ उनका निर्माण किया गया था। तीसरे चरण में ओपीसीडब्लयू निरीक्षकों को परीक्षण हेतु सीरिया में प्रवेश की अनुमति देना शामिल था। अन्तिम चरण निरीक्षकों के सहयोग से निर्णयात्मक था कि हथियारों को नष्ट कैसे किया जाये।65
यह प्रक्रिया रूस, चीन, इटली तथा अन्य पश्चिमी देशों की सहायता से दिसम्बर 2013 में प्रारम्भ हुई। इस पर नवीनतम रिपोर्ट स्पुतनिक (रूसी समाचारपत्र) द्वारा प्रस्तुत की गयी कि 90 प्रतिशत रासायनिक शस्त्रागारों को नष्ट किया जा चुका है।66 रूस की दृष्टि से, राष्ट्रपति व्लादिमिर पुतिन अमेरिकी आक्रमण से सीरिया को बचाने में समर्थ हुए और अमेरिका की दृष्टि से, इस पहल ने राष्ट्रपति बराक ओबामा को सैन्य कार्यवाही करने से बचा लिया।67 2013 में रूसी विदेश मन्त्री ने कथित तौर पर अमेरिका से कहा, "इसके सन्देश को सीखो।"68
10 फरवरी, 2014 को अमेरिका, फ्रांस तथा ब्रिटेन एवं अन्य राष्ट्रों की एक अन्य राजनीतिक पराजय तब हुई जब रूस तथा चीन ने सीरिया में अपना दखल बढ़ाने के लिए संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के प्रस्ताव पर होने वाली चर्चा में भाग नहीं लिया। अमेरिका में रूस के राजदूत विटाली चुर्किन ने कहा कि इस संकट के लिए एक प्रयोजनात्मक उपागम की आवश्यकता है
और सीरियाई लोगों की दशा को उन्नत करने तथा स्थिति को पुन: न भड़कने देने के किसी भी प्रस्ताव का समर्थन इसमें शामिल सभी लोगों द्वारा किया जायेगा।69