अंतर्राष्ट्रीयकरण वैश्वीकरण का एक उत्पाद है। वैश्वीकरण की प्रक्रिया ने पिछली केन्द्रीय रूप से नियोजित अर्थव्यवस्थाओं में उदारीकरण और निजीकरण जैसे परिवर्तनों को लाया, जिसने दुनिया में तेजी से अंतर्राष्ट्रीयकरण प्रक्रिया को बढ़ाया है। पिछले दो दशकों में, उभरते बाजारों को, विशेष रूप से चीन और भारत की तेजी से बढ़ती अंतर्राष्ट्रीयकरण को दुनिया के प्रमुख विकास क्षेत्र के रूप में देखा गया है। हालांकि, संरक्षणवाद की ओर बढ़ते रुझान को देखते हुए, अंतर्राष्ट्रीयकरण की प्रक्रिया में पुनरुत्थान हुआ है और रुचि भी बढ़ी है।
इस तरह के घटनाक्रमों के मद्देनजर, इस इशू ब्रीफ का लक्ष्य भारत में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफ.डी.आई) और प्रत्यक्ष बाहरी निवेश (ओ.डी.आई) के माध्यम से अंतर्राष्ट्रीयकरण की प्रक्रिया का विश्लेषण करना है। ऐसा करने के लिए, इस इशू ब्रीफ में नीतिगत बदलावों के संदर्भ में 1990 के दशक के आर्थिक सुधारों के बाद संक्षिप्त रूप से एफ.डी.आई और ओ.डी.आई दोनों के स्वरूप का विश्लेषण किया जाएगा। मुख्य तर्क यह है कि नीतिगत रूपरेखा में किए गए बदलाव ने भारत में अंतर्राष्ट्रीयकरण की प्रक्रिया को सुगम बना दिया है।
अंतर्राष्ट्रीयकरण की एक एकीकृत रूपरेखा की ओर
अंतर्राष्ट्रीयकरण की प्रक्रिया व्यापार (निर्यात और आयात) के साथ-साथ निवेशों के माध्यम से विश्व अर्थव्यवस्था में देश के क्रमिक एकीकरण को अपरिहार्य बनाती है। अंतर्राष्ट्रीयकरण का दायरा उत्पादन प्रक्रियाओं के विकास, विज्ञान और प्रौद्योगिकी, परिवहन और दूरसंचार में उन्नति और श्रम के अंतर्राष्ट्रीय विभाजन के महत्व पर निर्भर करती है, जिसके परिणामस्वरूप विशेषज्ञता द्वारा संचालित राज्य बेहद जटिल स्वरूप में एक-दूसरे पर निर्भर होते हैं। इसके साथ-साथ, ये प्रक्रिया किसी निश्चित आर्थिक और सामाजिक-राजनीतिक परिवेश में भी होती है जैसे कि राजनीतिक और सामाजिक-आर्थिक संरचना या परिस्थिति की प्रकृति और एक देश की नीतिगत रूपरेखा। इसलिए, देश की अंतर्राष्ट्रीयकरण प्रक्रिया के लिए संस्थागत और नीतिगत रूपरेखा अनिवार्य है।
एक केंद्रीय रूप से नियोजित प्रणाली से बाजार की अर्थव्यवस्था तक के परिवर्तन की प्रक्रिया एक संस्थागत रूपरेखा उत्पन्न करती है जो एक देश को धीरे-धीरे अंतर्राष्ट्रीयकृत करने में सक्षम बनाता है। इस तरह के अनुकूल संस्थागत रूपरेखा ने बहुराष्ट्रीय उद्यमों के विस्तार में सहायता की है, जो अंतर्राष्ट्रीयकरण का एक महत्वपूर्ण माध्यम रहा है। कई संक्रमणकारी अर्थव्यवस्थाओं की तरह, भारत में भी अंतर्राष्ट्रीयकरण की प्रक्रिया को विनियामक और नीतिगत रूपरेखाओं, दोनों में वृद्धिशील परिवर्तनों द्वारा निर्धारित किया गया है, विशेष रूप से आर्थिक सुधारों के बाद से, जिससे उभरते हुए बहुराष्ट्रीय उद्यमों (ई.एम.एन.ई) का विस्तार करने में मदद मिली हैं।1 भारत में अंतर्राष्ट्रीयकरण के दो चरण/ लहर दिखाई देते हैं, जिनकी अलग-अलग विशेषताएं हैं: सुधार से पहले और सुधार के बाद।
क. पहली लहर [उदारीकरण से पहले (1947-1990)]: निम्न
1947-1990 के दौरान, भारत की आर्थिक विकास नीतियों को आत्मनिर्भरता और शिशु-उद्योग नीति के अवधारणा के आधार पर एक आंतरिक विकास नीति, यानी घरेलू व्यापार में वृद्धि लाना, आयात-प्रतिस्थापन और अंतर्राष्ट्रीय व्यापार पर कम से कम निर्भरता द्वारा दिशा-निर्देशित किया गया था। आयात प्रतिस्थापन औद्योगिकीकरण (आई.एस.आई) में स्वदेशी उत्पादन का समर्थन करके और उत्पादन में घरेलू उपयोग को प्राथमिकता देकर आयात को कम किया गया। इस तरह की व्यापार नीति का अनुसरण करने की वजह से विश्व अर्थव्यवस्था के साथ एकीकरण सीमित रह जाती थी। उदाहरण के लिए, 1980 के दशक के अंत तक, भारत के ई.एम.एन.ई से प्राप्त ओ.डी.आई अन्य विकासशील देशों में केंद्रित थी, विशेष रूप से अफ्रीकी महाद्वीप में। हालांकि, 1990 के दशक में आर्थिक सुधार के लिए नीतियों में क्रमिक बदलाव करने के बाद, ओ.डी.आई के प्रवाह में विविधता आई है और विकसित देशों को शामिल किया गया। 1985 और 1995 के बीच भारतीय ओ.डी.आई अन्य उभरती अर्थव्यवस्थाओं जैसे कि चीन, दक्षिण अफ्रीका और ब्राजील की तुलना में मामूली थी।2
इस चरण के दौरान, भारतीय उद्यमों ने आंतरिक नीति से प्रभावित होकर, मुख्य रूप से आयात और एफ.डी.आई से सुरक्षा की मांग की, और वे बड़े पैमाने पर घरेलू बाजारों पर निर्भर होते थे। एकाधिकार और प्रतिबंधात्मक व्यापार व्यवहार (एम.आर.टी.पी) अधिनियम, 1969 और विदेशी मुद्रा विनियमन अधिनियम (एफ.ई.आर.ए), 1973 जैसी नीतियों ने भारतीय कंपनियों के संचालन पर एक प्रतिबंधात्मक वातावरण बनाया था। फिर भी, इस अवधि के दौरान बहुत कम भारतीय फर्म अंतर्राष्ट्रीयकरण की प्रक्रिया में शामिल थे। उदाहरण के लिए, भारतीय कंपनी, मारुति ने 1980 के दशक में जापानी कंपनी सुजुकी के साथ एक संयुक्त उद्यम में प्रवेश किया। इसी प्रकार, बिरला ग्रुप ऑफ कंपनीज ने 1957 की शुरुआत में ही इथियोपिया में वस्त्रों के क्षेत्र में अपना पहला बड़ा विदेशी उद्यम स्थापित किया। कुल मिलाकर, प्रतिबंधात्मक नीति रूपरेखा के कारण, इस चरण के दौरान अंतर्राष्ट्रीयकरण की प्रक्रिया धीमी थी।
ख. दूसरी लहर [उदारीकरण के बाद (1990 के बाद से)]: मध्यम से लेकर उच्च
20 वीं शताब्दी के अंतिम दशक में, भारत ने अपनी आंतरिक नीति को त्याग दिया और उदारीकरण की प्रक्रिया को अपनाया। सुधार प्रक्रिया का मूल उद्देश्य था एक भारतीय अर्थव्यवस्था को विश्व के अर्थव्यवस्था साथ एकीकृत करना। इस प्रक्रिया के साथ नियंत्रणों के प्रगतिशील उदारीकरण और आयात तथा निर्यात के लिए विवेकाधीन लाइसेंसिंग के उन्मूलन की शुरुआत हुई। धीरे-धीरे, उदारीकृत नीतियों के प्रभाव दिखाई देने लगे, जो भारत की विदेश व्यापार नीति द्वारा समर्थित हैं।
भारत की विदेश व्यापार नीति (एफ.टी.पी) ने विशेष रूप से सहस्राब्दी के बाद से, भारत की अर्थव्यवस्था को बढ़ाने; इसके आर्थिक विकास को बनाए रखा; और विश्व भर वाणिज्यिक वस्तुओं के व्यापार में भारत की हिस्सेदारी प्रतिशत बढ़ाकर, रोजगार पैदा करके और निवेश बढ़ाकर अंतर्राष्ट्रीयकरण प्रक्रिया को बढ़ाने के लिए नीतियों को अपनाने का प्रयास किया गया है। प्रत्येक एफ.टी.पी के साथ, भारतीय अर्थव्यवस्था अधिक अंतर्राष्ट्रीय हो गई है। व्यापार खुलेपन सूचकांक के संदर्भ में, भारत ने 1991-2000 की अवधि के दौरान वृद्धि दर्ज की। व्यापार / जी.डी.पी अनुपात 1991 में 17 प्रतिशत से बढ़कर 2000 में 27 प्रतिशत हो गया।3 हालांकि, आर्थिक सुधारों के पहले दशक के दौरान निवेश प्रवाह तुलनात्मक रूप से मामूली था।
निर्यात एवं आयात नीति या एक्जिम पॉलिसी, जैसा कि 2004 तक इस नाम से जाना जाता था, 1992-97 की अवधि के लिए भारतीय अर्थव्यवस्था के इतिहास में एक महत्वपूर्ण मील का पत्थर साबित हुई। पहली पंचवर्षीय नीति बनने के अलावा, यह पहली बार था कि उस समय मौजूद विभिन्न संरक्षणवादी और नियामक नीतियों को हटाने के लिए सचेत प्रयास किए गए थे। इसने भारत को एक वैश्विक रूप से उन्मुख अर्थव्यवस्था की ओर बढ़ने की गति भी निर्धारित की।4 1992 की एक्जिम नीति से व्यापार पर लाइसेंसिंग और विवेकाधीन नियंत्रण काफी हद तक खत्म हो गई और निर्यात को बढ़ावा मिला। इस अवधि के दौरान, एफ.डी.आई को बढ़ावा देने के लिए कई भी कदम भी उठाए गए, जिसमें प्राथमिकता वाले क्षेत्रों में विदेशी इक्विटी होल्डिंग्स की सीमा 40 प्रतिशत से बढ़ाकर 51 प्रतिशत करना और विदेशी निवेश संवर्धन बोर्ड (एफ.आई.पी.बी) की स्थापना करना शामिल था।5 इसी प्रकार, 1992 में विदेशी निवेश के लिए 'स्वचालित मार्ग' शुरू हो गया और 1995 में ओ.डी.आई का अनुमोदन वाणिज्य मंत्रालय से भारतीय रिज़र्व बैंक को हस्तांतरित करके एक सिंगल विंडो मंजूरी तंत्र स्थापित किया गया था।
एफ.टी.पी (1997-2002) का उद्देश्य वैश्विक बाजारों में भारत की पहुंच का विस्तार करके और तकनीकी विकास को बढ़ावा देकर भारत को वैश्विक रूप से उन्मुख अर्थव्यवस्था बनाना था। निर्यात संवर्धन पूंजीगत वस्तु योजना (ई.पी.सी.जी), उन्नत अनुज्ञप्ति योजना जैसी कई नीतियाँ और निर्यात उन्मुख यूनिट्स (ई.ओ.यू) में 100 प्रतिशत विदेशी इक्विटी भागीदारी ने इन उद्देश्यों को प्राप्त करने में सहायता की। 2000 में विदेशी मुद्रा प्रबंधन अधिनियम (एफ.ई.एम.ए) की शुरुआत ने ओ.डी.आई के दायरे को बढ़ा दिया।
एफ.टी.पी (2004-09) ने परिवर्तनीय मुद्राओं में व्यापारिक लेनदेन करने की स्वतंत्रता के साथ वस्तुओं और सेवाओं के आयात और निर्यात को सुकर बनाने के लिए व्यापार से संबंधित बुनियादी संरचना तैयार करने हेतु एक नई योजना शुरू की, जिसे मुक्त व्यापार और वेयरहाउसिंग ज़ोन (एफ.टी.डब्लू.जेड) के नाम से जाना जाता था। इन क्षेत्रों के विकास और स्थापना के लिए, 100 प्रतिशत एफ.डी.आई के साथ-साथ अन्य लाभों की अनुमति दी गई थी जो विशेष आर्थिक क्षेत्रों (एस.ई.जेड) की यूनिट्स के लिए आवश्यक थीं। 1 अप्रैल 2015 को 2015-2020 की अवधि के लिए घोषित वर्तमान एफ.टी.पी, विनिर्माण और सेवाओं के निर्यात को सुकर बनाने और 'ईज़ ऑफ डूइंग बिजनेस' में सुधार लाने पर केंद्रित है। विनिर्माण क्षेत्र में विदेशी निवेशों पर जोर देने और इसे अधिक डिजिटल अनुकूल बनाने के लिए, इसने 'मेक इन इंडिया' और 'डिजिटल इंडिया' कार्यक्रमों की शुरुआत भी की। बड़ी राहत जैसे कि स्वचालित मार्ग के तहत ओ.डी.आई की सीमा को निवल मूल्य के 200 प्रतिशत से बढ़ाकर 300 प्रतिशत करना और आगे भी 400 प्रतिशत तक बढ़ाना7 ने भारतीय कंपनियों के निवेश करने के लिए प्रोत्साहित किया।
हाल के दिनों में एफ.डी.आई नीति शासन में किए गए कुछ महत्वपूर्ण परिवर्तनों ने यह सुनिश्चित करने में मदद की है कि भारत एक आकर्षक निवेश गंतव्य बना रहे। उदाहरण के लिए, अधिक से अधिक एफ.डी.आई को आकर्षित करने के लिए, सरकार ने एक उदार एफ.डी.आई नीति बनाई है जिसके तहत अधिकांश क्षेत्रों / गतिविधियों में स्वचालित मार्ग के माध्यम से 100% तक की एफ.डी.आई की अनुमति दी गई है।8 आंकड़ों के विश्लेषण से पता चलता है कि पिछले कुछ वर्षों में एफ.डी.आई बढ़ा है, जो दर्शाता है कि ऐसी नीतियां प्रभावकारी रही हैं।
अप्रैल, 2000 से, इक्विटी अंतर्वाह, पुनर्निवेशित आय और अन्य पूंजीगत वस्तुओं समेत भारत की कुल एफ.डी.आई 546,452 मिलियन अमेरिकी डॉलर (अप्रैल 2000- मार्च 2018) रही है। 2006-09 की अवधि में एफ.डी.आई का सबसे बड़ा अंतर्वाह देखा गया और वर्ष 2006-7 में पिछले वर्ष की तुलना में 155% की वृद्धि दर्ज की गई। उसके बाद, लगभग 2012-13 तक एफ.डी.आई अंतर्वाह में मामूली उतार-चढ़ाव देखने को मिला और फिर 2013-14 की अवधि के बाद से अब तक इसमें तेजी से वृद्धि देखी गई। इसमें आई मंदी का श्रेय वैश्विक आर्थिक संकट और प्रतिबंधात्मक नियामक रूपरेखा को दिया जा सकता है, जिसके कारण प्रक्रियात्मक देरी हुई, भूमि अधिग्रहण से संबंधित जटिल नियमों और कानूनी और पर्यावरणीय आवश्यकताओं को भी दिया जा सकता है। हालांकि, इन नियामक नीतियों को माल और सेवा कर (जी.ए.सटी) विधेयक और भूमि अधिग्रहण विधेयक को पारित कर उदार बनाया गया है। अप्रैल 2017 से लेकर मार्च 2018 की अवधि के दौरान, भारत की कुल एफ.डी.आई 61,963 मिलियन अमेरिकी डॉलर थी।9 जहां तक निवेश की दिशा की बात है, तो 2000-2018 की अवधि के लिए सबसे अधिक एफ.डी.आई इक्विटी का अंतर्वाह मॉरीशस, और उसके बाद सिंगापुर, जापान और यूके से हुआ है।10
जहां तक एफ.डी.आई के क्षेत्रीय संरचना की बात है, तो 2000-2018 की अवधि में सबसे ज्यादा एफ.डी.आई इक्विटी अंतर्वाह आकर्षित करने वाली क्षेत्र है सेवा क्षेत्र।11 इसके बाद कंप्यूटर हार्डवेयर और सॉफ्टवेयर; दूर संचार12; निर्माण विकास13; ऑटोमोबाइल उद्योग; व्यापार; दवा और फार्मास्यूटिकल्स।14
इसी प्रकार, भारत की ओ.डी.आई में भी ना केवल परिमाण की दृष्टि से, बल्कि भौगोलिक प्रसार और क्षेत्रीय संरचना की दृष्टि से भी काफी बदलाव देखा गया है। 20 वीं शताब्दी के उत्तरार्ध के बाद से, ओ.डी.आई भारत के व्यापारिक उद्यमों के सीमा पार विस्तार के लिए एक महत्वपूर्ण नीति के रूप में उभरा है। ओ.डी.आई 2001-02 में 999 मिलियन अमेरिकी डॉलर से बढ़कर 2016-17 में 37,766 मिलियन अमेरिकी डॉलर हो गया है।15 अगर बात दिशा की हो, तो 2000 के दशक के शुरुआत में ही ओ.डी.आई का रुख रूस, अमेरिका और यू.के जैसे पारंपरिक बड़े देशों से हटकर ऑस्ट्रेलिया, सूडान और संयुक्त अरब अमीरात जैसे संसाधन संपन्न देशों पर आ गया था। हालाँकि, 2011-12 तक भारत की ओ.डी.आई का रुख बड़े पैमाने पर कर लाभ प्रदान करने वाली देशों, जैसे कि मॉरीशस, सिंगापुर, ब्रिटिश वर्जिन आइलैंड्स और नीदरलैंड्स की ओर मुड़ गया था। क्षेत्रीय संरचना के लिहाज से, भारतीय विदेशी निवेश पर मुख्य रूप से विनिर्माण क्षेत्र, उसके बाद सेवा, थोक बिक्री, खुदरा व्यापार, परिवहन, भंडारण, कृषि और निर्माण का दबदबा बना हुआ है। हालांकि, पिछले कई वर्षों में विनिर्माण का शेयर 2003-04 में 59.8 प्रतिशत से घटकर 2009-10 में 40.4 प्रतिशत हो गया था और 2017-18 (अप्रैल-दिसम्बर) में यह और भी घटकर 27 प्रतिशत हो गया था।16
कई भारतीय कंपनियों ने अपनी उद्यमिता क्षमताओं को बढ़ाने और वैश्विक बाजार में प्रतिस्पर्धा करने के लिए उदारीकृत नीति वातावरण का लाभ उठाया है। पिछले कई वर्षों से भारत से निर्यात बढ़ रहा है, और इसके परिणामस्वरूप भारतीय कंपनियों द्वारा बाह्य प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (ओ.डी.आई) और अंतर्राष्ट्रीय विलय और अधिग्रहण (एम व ए) गतिविधि का बेहद प्रबल चलन रहा है। 1990 के दशक के उत्तरार्ध से, कई भारतीय आई.टी फर्मों जैसे कि टाटा कंसल्टेंसी सर्विसेज, इंफोसिस और विप्रो ने विकसित देशों में विदेशी कार्यालय स्थापित किए। वास्तव में, टाटा ग्रुप ऑफ़ कंपनीज यूरोप, विशेष रूप से यू.के का सबसे बड़ा विनिर्माता बन गया है। टाटा मोटर्स द्वारा 2008 में 2.3 बिलियन अमेरिकी डॉलर मूल्य के जागुआर और लैंड रोवर का अधिग्रहण भारतीय कंपनियों के विस्तार का सूचक है।17 हाल के वर्षों में, भारतीय कंपनियों ने पूर्वी और मध्य यूरोप में निवेश बढ़ाना शुरू किया है। उदाहरण के लिए, पिछले एक साल में पोलैंड, रोमानिया, बुल्गारिया, हंगरी, ऑस्ट्रिया और आयरलैंड जैसे देशों में कम से कम 20 विकास केंद्र स्थापित किए गए हैं।18 2017 में, इन्फोसिस ने क्रोएशिया के कारलोवैक में एक नई फैसिलिटी खोली है और विप्रो ने टिमिसोआरा, रोमानिया में एक विशेष ऑटोमोटिव सेंटर ऑफ एक्सीलेंस स्थापित किया है।
निष्कर्ष
पिछले दो दशकों में, भारत वैश्विक आर्थिक परिदृश्य में एक महत्वपूर्ण देश के रूप में उभरा है। 1990 के आर्थिक सुधारों के बाद से, एफ.डी.आई के साथ-साथ ओ.डी.आई में भी काफी बदलाव देखे गए हैं। इन परिवर्तनों के लिए विभिन्न नीतियों के माध्यम से शुरू किए गए सुधारों को जिम्मेदार ठहराया जा सकता है। एफ.डी.आई के संबंध में, भारत को एक आकर्षक निवेश गंतव्य बनाए रखने के लिए भारत सरकार ने नीतियों में बदलाव किए हैं। अधिक से अधिक एफ.डी.आई आकर्षित करने के लिए, सरकार ने एक उदार एफ.डी.आई नीति लागू की है जिसके तहत नागरिक उड्डयन, रेलवे, निर्माण और दूरसंचार सहित अधिकांश क्षेत्रों / गतिविधियों में स्वचालित मार्ग के माध्यम से 100% एफ.डी.आई की अनुमति है। इस दिशा में, वर्ष 2014 में ‘मेक इन इंडिया’ पहल शुरू की गई थी जिसका लक्ष्य देश के लिए अधिक एफ.डी.आई आकर्षित करना था। इसी प्रकार, नीतिगत परिवर्तनों की सहायता से ओ.डी.आई का स्वरुप ना केवल परिमाण की दृष्टि से, बल्कि भौगोलिक प्रसार और क्षेत्रीय संरचना की दृष्टि से भी बदल गया है।
वास्तव में, भारतीय अर्थव्यवस्था के वृद्धिशील उदारीकरण के माध्यम से प्राप्त की गई गतिशीलता ने एफ.डी.आई और ओ.डी.आई प्रवाह को त्वरित किया है। इसने विदेशी निवेशकों को भारत में निवेश करने के लिए प्रोत्साहित किया है और साथ ही विदेशों में निवेश करने के लिए भारतीय कंपनियों को प्रोत्साहित किया है। भारत के प्रकरण में, नीतिगत परिवर्तनों ने अंतर्राष्ट्रीयकरण की प्रक्रिया को सुगम बना दिया है। यद्यपि, एक उदार नियामक और संस्थागत रूपरेखा ने भारत को विदेशों या बाहरी झटकों के लिए अधिक संवेदनशील बना दिया है। उदाहरण के लिए, बाहरी घटकों की वजह से भारतीय रुपया का मूल्य अमेरिकी डॉलर के मुकाबले 74 अंकों के निचले स्तर तक पहुंच गया।20 इसलिए, ऐसे बाहरी प्रभावों से सुरक्षा और पूंजी के बहिर्वाह को रोकने के लिए एक सतर्क दृष्टिकोण अपनाने की आवश्यकता है।
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* लेखिका, रिसर्च फेलो, इंडियन काउंसिल ऑफ वर्ल्ड अफेयर्स, नई दिल्ली। अस्वीकरण: इसमें व्यक्त किया गया नज़रिया शोधकर्ता का नज़रिया है और ना की परिषद् का नज़रिया है।
अंत टिप्पणियाँ
1भारत के प्रकरण में, संयुक्त उद्यम (जे.वी) और पूर्णतया स्वामित्व सहायक कंपनियों (डब्लू.ओ.एस) अंतर्राष्ट्रीयकरण के दो मान्यता प्राप्त माध्यम रहे हैं।
2दिव्या चौधरी, प्रियंका तोमर और पल्लवी जोशी , “भारतीय प्रत्यक्ष बाहरी विदेशी निवेश का विखंडन: ऐतिहासिक एवं पारंपरिक रुझान”, ऑक्सफैम डिस्कशन पेपर, मार्च 2018,
3अमिता बातरा (2013), दक्षिण एशिया में क्षेत्रीय आर्थिक एकीकरण: संघर्ष में फंसे?,
ऑक्सन: रूलेह
4सनदी लेखाकार संस्थान, भारत (2008), विदेशी व्यापार नीति पर हैंडबुक और निर्यात तथा आयात पर मार्गदर्शन, आगरा: साहित्य भवन प्रकाशन.
http://nbaindia.org/uploaded/Biodiversityindia/Legal/6.%20Import%20and%20Export%20(Control)%20Act,%2019 47.pdf (दिसंबर 19, 2016 को देखा गया)
5रश्मि बंगा और अभिजीत दास (2012), भारत के उदारीकरण के बीस साल: अनुभव और सीख, जेनेवा: यू.एन.सी.टी.ए.डी.
6हारून आर खान, “भारतीय बाह्य एफ.डी.आई –हालिया रुझान और उभरते मुद्दें”, https://rbidocs.rbi.org.in/rdocs/Speeches/PDFs/OV27022012.pdf (अगस्त 1, 2018 को देखा गया)
7ओ.डी.आई के दो मार्ग हैं: स्वचालित और अनुमोदन मार्ग. स्वचालित मार्ग के तहत, एक भारतीय पक्ष को किसी विदेशी जे.वी/ डब्लू.ओ.एस में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश करने के लिए रिज़र्व बैंक से कोई पूर्व अनुमति लेने की जरूरत नहीं होती है जबकि अनुमोदन मार्ग में रिज़र्व बैंक से पूर्व अनुमति लेने की जरूरत होती है।
8 जिन क्षेत्रों को 100 प्रतिशत एफ.डी.आई मिल रही है, उनमें खाद्य उत्पाद (भारत में विनिर्मित/ उत्पादित), नागरिक विमानन, रेलवे, निर्माण, दूर संचार, खुदरा और प्रसारण क्षेत्र शामिल है।
औद्योगिक नीति और संवर्धन विभाग (डी.आई.पी.पी), वाणिज्य मंत्रालय, "एफ.डी.आई पर त्रैमासिक फैक्टशीट: अप्रैल 2000 से लेकर मार्च 2018 तक" http://dipp.nic.in/sites/default/files/FDI_FactSheet_29June2018.pdf (अगस्त 1, 2018 को देखा गया)
9औद्योगिक नीति और संवर्धन विभाग (डी.आई.पी.पी), वाणिज्य मंत्रालय, "एफ.डी.आई पर त्रैमासिक फैक्टशीट: अप्रैल 2000 से लेकर मार्च 2018 तक"
http://dipp.nic.in/sites/default/files/FDI_FactSheet_29June2018.pdf (अगस्त 1, 2018 को देखा गया)
11 इसमें वित्तीय, बैंकिंग, बीमा, व्यवसाय प्रक्रिया का बाह्यस्रोतन, अनुसंधान और विकास, रसद और प्रौद्योगिकी परीक्षण और विश्लेषण जैसी सेवाएं शामिल हैं
12इसमें रेडियो पेजिंग, सेलुलर मोबाइल और बुनियादी टेलीफोन सेवाएं शामिल हैं।
13इसमें टाउनशिप, हाउसिंग और बिल्ट-अप अवसंरचनाएं शामिल हैं।
14औद्योगिक नीति और संवर्धन विभाग (डी.आई.पी.पी), वाणिज्य मंत्रालय, "एफ.डी.आई पर त्रैमासिक फैक्टशीट: अप्रैल 2000 से लेकर मार्च 2018 तक" http://dipp.nic.in/sites/default/files/FDI_FactSheet_29June2018.pdf (अगस्त 1, 2018 को देखा गया)
15एक्सिम बैंक और आर्थिक मामला विभाग (डी.ई.ए) से आंकड़ें
16“भारत से प्रत्यक्ष बाहरी निवेश: रुझान, उद्देश्य और नीतियों का परिप्रेक्ष्य”, आकस्मिक पेपर सं 165, मई 2014, एक्सिम बैंक और आर्थिक मामला विभाग
https://www.eximbankindia.in/Assets/Dynamic/PDF/Publication-Resources/ResearchPapers/5file.pdf (दिसंबर 20, 2016 को देखा गया)
17“टाटा मोटर्स ने जागुआर और लैंड रोवर का अधिग्रहण पूरा किया”, जून 2, 2008, https://www.tatamotors.com/press/tata- motors-completes-acquisition-of-jaguar-land-rover/ (अगस्त 2, 2018 को देखा गया)
18क्षेत्रों में इंजीनियरिंग, डिजिटल सेवाएं, ऑटो क्लाइंट के लिए सॉफ्टवेयर समाधान, रोबोटिक, बिजनेस एनालिटिक्स और क्लाउड शामिल हैं।
19शिल्पा फाड्निस और अविक दास, “आई.टी कंपनियों ने व्यवसाय और टेक प्रतिभा के लिए यूरोप में अधिक निवेश किया”, मई 31, 2018, https://timesofindia.indiatimes.com/business/india-business/it-companies-invest-more-in-europe-for-business-tech- talent/articleshow/63552609.cms (अगस्त 2, 2018 को देखा गया)
इन कारकों में अमेरिकी फेड दरों में बढ़ोतरी, कच्चे तेल की बढ़ती कीमतें, उभरते बाजारों के प्रति नकारात्मक वैश्विक निवेशकों की भावनाएं और भारत की बढ़ती चालू खाता घाटा शामिल हैं।