सुश्री नैंसी पावेल ने 31 मार्च, 2014 को भारत में अमेरिकी राजदूत के अपने पद से त्यागपत्र दे दिया। इस त्यागपत्र ने भाग और अमेरिका के बीच संबंधों पर एक नवीकृत बल प्रदान कर दिया है। वर्ष 2010 में, राष्ट्रपति ओबाम ने घोषणा की थी कि भारत-अमेरिकी संबंध "21वीं शताब्दी की उल्लेखनीय भागीदारियों में से एक" होंगे। लेकिन, इसमें भारत-अमेरिका परमाणु सौदे के दौरान तेजी आई तथा राष्ट्रपति बराक ओबामा के प्रथम कार्यकाल के दौरान आगे ले जाए गए इन संबंधों में पर्याप्त धीमापन आया। दोनों लोकतंत्रों के बीच संबंधों में अनुभव किए जा रहे वर्तमान धीमेपन के अनेक कारण हैं। उन्होंने अनेक मुद्दों पर स्वयं को अंतर्राष्ट्रीय संबंधों के विपरीत सिरों पर ला दिया है, जैसे यूक्रेन में चालू संकट के दौरान भारत का रूस को प्रदान किया गया सुदृढ़ सहयोग, लिब्रेशन ऑफ तमिल टाइगर्स इलम (एलटीटीई) के विरुद्ध श्रीलंकाई सरकार की कार्यवाहियों की स्वतंत्र जांच की मांग पर मतदान पर भारत द्वारा भाग न लिया जाना और ईरान पर प्रतिबंधों को लागू करने में परस्पर विभेद। दोनों देशों का अफगानिस्तान पर भी भिन्न-भिन्न दृष्टिकोण रहा है तथा अफगान मामलों में पाकिस्तान को शामिल करने की अमेरिका की इच्छा के फलस्वरूप भी दोनों के बीच सहयोग धीमा हुआ है।
संबंध का पुनर्निर्माण करने की आवश्यकता
अमेरिकी राजदूत के हाल के त्यागपत्र को दोनों देशों के बीच असहमति की श्रृंखला की संभावित समाप्ति के रूप में देखा जा रहा है जिसका ताजा उदाहरण 'देवियानी खोब्रागडे' घटना है।
अमेरिकी राजदूत का निर्वाचन राष्ट्रपति द्वारा किया जाता है तथा वह 'राष्ट्रपति के प्रसाद पर्यंत' कार्य करता है, अत: उनका कार्यकाल निर्धारित नहीं होता है। सर्वाधिक आम प्रक्रिया तो यह है कि राष्ट्रपति के कार्यकाल की समाप्ति के दौरान राजदूत अपने पद से त्यागपत्र दे देते हैं। लेकिन, अमेरिकी राजदूतों को राष्ट्रपति के कार्यकाल के मध्य में भी नियुक्त किया जाता है। यह संभव है कि चुनावों के उपरांत भारत में चुनी गई नई सरकार के साथ संबंधों को आगे ले जाने के लिए अमेरिका भारत में नए राजदूत की नियुक्ति करे। अमेरिका नई सरकार के कार्यभार ग्रहण करने की प्रतीक्षा कर रहा है जिससे उन आगामी कदमों पर चर्चा की जा सके जो 'रणनीतिक भागीदारी' को गहन कर सकते हैं। ऐसे परिवेश में, अमेरिकी राजदूत द्वारा त्यागपत्र दिए जाने के संबंधों की एक संभव नई शुरुआत के रूप में देखा जा सकता है।
नए राजदूत की यह प्राथमिकता होगी कि वह वाशिंगटन में प्रशासन के भीतर भारत-अमेरिकी संबंधों को बल प्रदान करे। आर्थिक संबंधों की समीक्षा की जानी है। भारत ने अमेरिकी कंपनियों द्वारा इन शिकायतों कि भारत पेटेंटों का संरक्षण नहीं करता है, के उपरांत अमेरिकी व्यापार प्रतिनिधियों द्वारा उन्हें निम्न दर्जा दिए जाने पर अपना असंतोष जताया। अमेरिकी विश्वास करते हैं कि भारत में विशेष रूप से भेषजिक उद्योग में निवेश करने वाली विदेशी प्रौद्योगिकी फर्मों के पेटेंट अधिकारों का संरक्षण करने के लिए भारत द्वारा पर्याप्त प्रयास नहीं किया जा रहा है। अमेरिका ने यह दावा भी किया है कि अपने घरेलू रक्षा उत्पादों के लिए भारत की तरजीह अनुचित है और अन्य व्यापार बाधाएं जैसे निर्बंधनकारी आयात लाइसेंसिंग और सीमा-शुल्क विनियम भी अत्यधिक कड़े हैं। इसने शीत युद्ध की छवियां ताजा की हैं तथा अमेरिकी छींटाकशी और सम्मान के अभाव पर असंतोष व्यक्त किया है।
ऐसी बात भी है कि अमेरिका के नीति निर्माण के भीतर भारत का महत्व हाल के वर्षों में कम हुआ है। ओबामा प्रशासन अपने ही देश में आर्थिक संकट से ग्रस्त है तथा मध्य-पूर्व में घट रहे घटनाक्रमों में भी काफी उलझा हुआ है। इसका एशिया में ध्यान भी परिवर्तित हो गया है। यह आज विकास करते हुए चीन से भी समझौता करने का प्रयास कर रहा है तथा अमेरिका 'जी-2' भागीदारी के लिए चीन से वार्ता कर रहा है। यह एशिया प्रशांत में अपने मित्र राष्ट्रों के साथ अपने संबंधों पर भी ध्यान केन्द्रित कर रहा है जैसे जापान और दक्षिण कोरिया जिसका उद्देश्य उन्हें 'अमेरिकी सुरक्षा कवच' की उपस्थिति के बारे में पुन:आश्वस्त करना है। ऐसे परिवेश में भारत महसूस करता है कि उसे नज़रअंदाज किया जा रहा है। नए राजदूत को भारत-अमेरिका संबंधों पर पुन: ध्यान देना होगा, जहां नई दिल्ली एक भागीदार है तथा वह संदेह और अविश्वास भरे संबंधों की ओर पुन: वापस नहीं जाना चाहेगा।
यह बात समझी जा सकती है कि भारत और अमेरिका की प्राथमिकताएं अलग-अलग होंगी तथा ध्यान-केन्द्रण भी विभिन्न मुद्दों पर किया गया होगा। फिर भी, इसका यह अर्थ नहीं है कि अंतरों को समाप्त नहीं किया जाना चाहिए। ऐसे अनेक क्षेत्र हैं जहां दोनों देशों के बीच सहयोग पारस्परिक दृष्टि से लाभदायक होगा, जिनमें सुरक्षा संबंध भी एक होगा जिसके साथ संयुक्त सैन्य कवायदों के लिए भागीदारी भी शामिल होगी। परमाणु नि:शस्त्रीकरण भी एक अन्य क्षेत्र है जहां दोनों देशों का समान दृष्टिकोण है। भारत परमाणु नि:शस्त्रीकरण का हिमायती रहा है तथा इसके प्रयासों की अमेरिका द्वारा सराहना की गई है।
संबंधों के विकास के लिए, अमेरिका को कतिपय मुद्दों का निवारण करना होगा। पहले तो, अमेरिका को भारत में व्याप्त उस नकारात्मक आम राय को समाप्त करना होगा जो अमेरिका की अभिरक्षा में भारतीय राजनयिक के साथ किए गए व्यवहार के फलस्वरूप बन गई है। दूसरे, अमेरिका को भारत के साथ मुक्त व्यापार करार की स्थापना करने के लिए स्वयं को प्रतिबद्ध करने की आवश्यकता है। भारत अमेरिका के लिए व्यापक व्यापार अवसर प्रस्तुत करता है। तीसरे, अमेरिका को संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद (यूएनएससी) में सुधार करने के लिए कार्य करना होगा। संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में स्थायी सीट के लिए भारत का समर्थन करने की अमेरिकी प्रतिबद्धता को वास्तविकता में बदलना होगा। चौथे, अमेरिका को कांग्रेस में चर्चा किए जा रहे नए अमेरिकी आप्रवास कानूनों के संबंध में भारत की चिंताओं को दूर करना होगा। और अंत में, अमेरिका को इस बात को समझना और उस पर सहमत होना होगा कि भारत की प्रतिक्रियाएं उसके अपने राष्ट्रीय हित पर आधारित हैं।
हाल के पीईडब्ल्यू सर्वेक्षण के अनुसार, अधिकांश भारतीय अमेरिका पर भरोसा करते हैं और उसे पसंद करते हैं। इसी प्रकार अमेरिकी जनता के लिए भी भारत चीन की तुलना में कहीं अधिक महत्वपूर्ण मित्र-राष्ट्र है। यह तथ्य उन समानताओं के कारण, जो दोनों देशों के बीच विद्यमान हैं तथा उन संबंधों को ध्यान में रखते हुए आश्चर्यजनक प्रतीत नहीं होता है, जो उन्होंने इतने वर्षों में निर्मित किए हैं।
द्विपक्षीय संबंधों के समक्ष आने वाली चुनौतियों के बावजूद, रणनीतिक भागीदारी के बारे में ऐसे अनेक साधारण परंतु आकाट्य सत्य हैं। प्रथमत: भारत-अमेरिका संबंधों में अनेक मुद्दे और क्षेत्र शामिल हैं। इनकी प्रकृति बहुआयामी है तथा इनकी व्याप्ति भी नानाविध है। दूसरे, संबंध का प्रमुख रणनीतिक औचित्य भारत-अमेरिकी रिश्तों को वर्तमान में प्रभावित करने वाली सभी समस्याओं के परिप्रेक्ष्य में भी सुदृढ़ बना हुआ है। दोनों देशों को भविष्य की ओर देखना चाहिए तथा उनकी संभावनाओं को भी ध्यान में रखना चाहिए।
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*डॉ.स्तुति बनर्जी , भारतीय विश्व मामले परिषद, नई दिल्ली में अध्येता हैं
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