1971 के गृह-युद्ध की कड़वी स्मृतियां जनवरी, 2014 में बांग्लादेश में आयोजित आम चुनावों पर हावी रहीं। 1971 में हिंसाकर्ताओं के मुकदमों के लिए गठित अधिकरण ने वर्ष 2013 से अपने चरणबद्ध निर्णय देने प्रारंभ किए। चूंकि प्रारंभ में, अधिकरण ने 'मीरपुर के कसाई' अब्दुल कादर मुल्ला को मौत की सजा नहीं सुनाई, अत: लोगों का आंदोलन फूट पड़ा जिसे शाहबाग आंदोलन के नाम से जाना जाता है। इन निर्णयों और आंदोलनों, जो 1971 की घटनाओं पर एक नई बहस पुन: आरंभ करने का अवसर प्रदान कर रहे थे, ने वैकल्पिक वर्णनों के लिए स्थान बनाया तथा उनकी गलतियों को स्वीकार भी किया। लेकिन ऐसा कुछ भी घटित नहीं हुआ, इसके स्थान पर प्रधानमंत्री शेख हसीना ने उस परिवेश का प्रयोग राजनीतिक लाभ उठाने के लिए किया। सार्वजनिक हिंसा तथा विपक्षी राजनीतिक दलों द्वारा बहिष्कार के मध्य, सुश्री हसीना के नेतृत्व वाली सरकार ने सत्ता में काबिज बने रहने के लिए चुनावों में गड़बड़ी का सहारा लिया।
हालांकि 1971 के अधिकारिक वर्णन में जानबूझकर किसी चुनौती की बात को शामिल नहीं किया, हाल के वर्षों में अनेक विद्वानों ने इतिहास का अपना-अपना वर्णन किया है। बांग्लादेश के स्वाधीनता युद्ध के अनेक अज्ञात तथ्यों की खोज की गई है जो इसकी विचित्र सामाजिक-आर्थिक संरचना से संबंधित अनेक प्रश्नों के उत्तर प्रदान करते हैं। वर्ष 2011 में, 'मेहरजान' नाम एक फिल्म रिलीज हुई थी परंतु कुछ दिनों के उपरांत इसे थिएटरों से वापस ले लिया गया क्योंकि एक बलूची सैनिक और एक बंगाली महिला के बीच प्रेम-प्रसंग की पटकथा के विरुद्ध व्यापक स्तर पर पदर्शन किए गए थे। वस्तुत: अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के कुछ समर्थकों ने फिल्म की सेंसरशिप का पुरजोर विरोध किया। 1971 के बारे में बताते हुए नयनिका मुखर्जी ने लिखा कि उनका शोध यह दर्शाता है कि अनेक पाकिस्तान सैनिकों पर उनकी बटालियन के साथियों द्वारा ही पूर्वी पाकिस्तानी नागरिकों को उनकी कैद से भागने में सहायता करने का आरोप लगाया गया है।
जहां तक 1971 की हिंसा का संबंध है, यह सत्य है कि पाकिस्तानी सैनिकों ने नृजातीय नरसंहार किया परंतु आवामी लीग (एएल) कैडर ने भी मानवीय संकट को हवा देकर भड़काने में एक भूमिका का निर्वहन किया। एक साक्षात्कार के आधार पर, प्रोफेसर इश्ताक अहमद ने अपनी पुस्तक 'दि पाकिस्तान मिलिट्री इन पॉलिटिक्स : ओरिजंस, एवोलूशन, कंसेक्वेंसेस' में लिखा है कि जब यह स्पष्ट हो गया था कि सभा की बैठक 3 मार्च, 1971 को नहीं हो रही है, बंगाली उग्रवादियों ने चित्तगाँव में बिहारियों (पूर्वी पाकिस्तान में उर्दू बोलने वाले) पर हमला करना शुरू कर दिया। पाकिस्तानी सेना 25 मार्च तक निष्क्रिय बनी रही। हमोदर रहमान आयोग से उद्धरण लेते हुए उन्होंने आगे लिखा है कि कमीशन को आश्चर्य हुआ कि सेना ने प्रारंभिक अवस्था पर ही आंदोलन को कुचलने का प्रयास क्यों नहीं किया और इसके स्थान पर उसने सैनिकों को उनके बैरकों में लौटा जाने का आदेश दिया।
पूर्वी पाकिस्तान में स्वाधीनता के युद्ध के दौरान मारे गए लोगों की संख्या के बारे में भी विवाद है। बांग्लादेश की स्वाधीनता के उपरांत एक साक्षात्कार में शेख मुजीब ने कहा कि तीस लाख लोग मारे गए थे। उसके बाद से 30 लाख बांग्लादेशियों के लिए एक महत्वपूर्ण संख्या बन गया। वरिष्ठ भारतीय सेना के अधिकारियों के साथ साक्षात्कार के आधार पर, जिन्होंने स्वाधीनता के युद्ध के दौरान महत्वपूर्ण पद धारण किया था, रिचर्ड सिसियन और लियो ई. रोज ने वार एंड सेसेशन : पाकिस्तान, इंडिया एंड दि क्रिएशन ऑफ बांग्लादेश में 30 लाख के आंकड़े के साथ सहमति व्यक्त नहीं की है। बांग्लादेश में इस संख्या के बारे में किसी भी रूप में असहमति व्यक्तियों अथवा संस्थाओं के लिए विधिक परेशानियां उत्पन्न करती है। ढाका में स्थित डेविड बर्गमैन ने भी इस संख्या पर सवाल उठाया है, जिसके लिए बांग्लादेश के युद्ध अपराध अधिकरण-2 ने उनके विरुद्ध अवमानना की कार्यवाही आरंभ की।
बांग्लादेश के स्वतंत्र होने के उपरांत स्थिति में सुधार नहीं हुआ। स्वाधीन बांग्लादेश में हितधारकों ने अपनी राजनीतिक शक्ति को सुदृढ़ बनाने के लिए हिंसक तरीकों का सहारा लिया। दीना महनाज सिद्दीकी ने लिखा है कि शक्ति अर्जित करने के उद्देश्य से शेख मुजीबर रहमान (1972-75) ने 1972 में मूल संविधान को तैयार करने के तीन वर्ष से कम समय में चौथा संशोधन लागू किया जिसके माध्यम से संसदीय लोकतंत्र के स्थान पर एक-दल के शासन को प्राधिकार प्रदान किया गया। मुजीब ने सशस्त्र सेनाओं को दरकिनार कर दिया तथा अपना स्वयं का अर्ध-सैन्य बल सृजित किया जिसका नाम था - जातीय रक्खी वाहिनी (जेआरबी)। यह निरंकुश आतंक फैलाने वाले तौर-तरीकों से जुड़ गया तथा शासन के विरुद्ध विरोध को कुचलने का उपकरण बन गया। 1975 में शेख मुजीबुर रहमान की हत्या के उपरांत मेजर जियाउर रहमान व्रिदोह के माध्यम से राज्य का प्रमुख बन गया। सेना शासन की लंबी अवधि के दौरान जमात-ए-इस्लामी (जेआई) जिस पर शेख मुजीब द्वारा प्रतिबंध लगाया था, को 1978 में राजनीतिक दल द्वारा विनियम (पीपीआर) के प्रख्यापन के माध्यम से राजनीति में भाग लेने की अनुमति मिल गई। जेआई ने धीरे-धीरे अपनी स्थिति सुदृढ़ कर ली तथा वह बांग्लादेश में लोकतंत्र की बहाली के पश्चात् एक प्रमुख संगठन बन गया। यह 2001 के चुनाव के उपरांत चौथे विशालतम राजनीति दल के रूप में उभरा तथा इसने 2001 और 2006 के बीच सरकार में गठबंधन भागीदार के रूप में मंत्रिमंडल में दो स्थान हासिल कर लिए।
किसी देश का इतिहास उसकी सामाजिक-राजनीतिक गतिशीलता और उसके भविष्य के मार्ग को निर्धारित करता है। प्राय: अतीत की तानाशाही से छुटकारा पाने के लिए देश अपनी सामाजिक-राजनीतिक संरचनाओं को पुन: तैयार करने के माध्यम से अपने इतिहास को पुन: लिखते और पुन: सृजित करते हैं, परंतु एक चेतावनी सदैव ही विद्यमान रहती है : इतिहास को पुन: सृजित करने के माध्यमों के फलस्वरूप अस्त-व्यस्तता होती है तथा एक निरंकुश सामाजिक और राजनीतिक संरचना स्थापित होती है। कुछ अपवादों को छोड़कर उन देशों ने, जिन्होंने अपनी सामाजिक राजनीतिक परितर्वन का निर्माण करने के लिए किसी भी रूप में हिंसा का प्रयोग किया है, अपनी विरासत को आगे बढ़ाया है और बांग्लादेश भी ऐसा एक उदाहरण है। इसके पास एक इतिहास सृजित करने के अवसर थे परंतु यह ऐसा करने में विफल रहा। देश अभी भी 1971 में, अपने स्वयं के बनाए हुए संस्करण के साथ रह रहा है। यह कोई अन्य वर्णन स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं है, जिसे इसे अपने अतीत से सीखने का अवसर प्रदान कर सकता है तथा बांग्लादेश में संरचनात्मक हिंसा के लिए मूल कारणों का समाधान कर सकता है।
******
* डॉ. अमित रंजन, भारतीय विश्व मामले परिषद, नई दिल्ली में अध्येता हैं
*
अस्वीकरण: व्यक्त मंतव्य लेखक के हैं और परिषद के मंतव्यों को परिलक्षित नहीं करते।