संयुक्त राष्ट्र मानव अधिकार परिषद (यूएनएचआरसी) ने 27 मार्च, 2014 को एक संकल्प पारित करके युद्ध के अंतिम चरण में श्रीलंकाई सरकार द्वारा कारित किए गए कथित युद्ध अपराधों पर एक स्वतंत्र अंतर्राष्ट्रीय जांच कराने का आह्वान किया है। इस संकल्प पर श्रीलंका के भीतर मिश्रित प्रतिक्रिया व्यक्त की गई है।
सरकारी सेना ने व्यापक स्तर पर हिंसा और मानव अधिकारों के उल्लंघनों के बीच मई, 2009 में एलटीटीई को पराजित किया था। संयुक्त राष्ट्र (यूएन) के अनुसार (श्रीलंका में उत्तरदायित्व पर महासचिव के विशेषज्ञ पैनल की रिपोर्ट) युद्ध के अंतिम चरण के दौरान लगभग 40,000 नागरिक मारे गए तथा युद्ध के परिणामस्वरूप लोगों का बड़े पैमाने पर पलायन हुआ और पूर्वोत्तर में भारी तबाही हुई। युद्ध की समाप्ति के तत्काल पश्चात् (23 मई, 2009 को) संयुक्त राष्ट्र के महासचिव ने राष्ट्रपति महेन्द्र राजपाक्सा के निमंत्रण पर श्रीलंका का दौरा किया और एक संयुक्त वक्तव्य जारी किया जिसमें श्रीलंका में संविधान में 13वां संशोधन क्रियान्वित किए जाने और स्थायी शांति और विकास स्थापित करने के लिए तमिल राजनीतिक दलों सहित सभी राजनीतिक दलों के साथ बातचीत करने की आवश्यकता पर बल प्रदान किया गया था।
इन मुद्दों का समाधान करने के लिए, श्रीलंकाई सरकार ने 15 मार्च, 2010 को सीखे गए सबक और समझौता आयोग (एलएलआरसी) की नियुक्ति की थी। आयोग ने अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, धर्म, सूचना का अधिकार, संघ और संचलन तथा आंतरिक रूप से विस्थापित व्यक्तियों (आईडीपी) को विशेष रूप से विवाद प्रभावित क्षेत्रों में, भूमि के आबंटन के बारे में अनेक उल्लेखनीय सिफारिशें की। विलुप्त लोगों की जांच करना तथा राष्ट्रीय भूमि नीति के लिए राष्ट्रीय भूमि आयोग की स्थापना करना कुछ अन्य सिफारिशें थी और यदि इन्हें क्रियान्वित कर लिया जाता है, तो यह समझौता प्रक्रिया में भरोसे और विश्वास में वृद्धि करेंगी। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि एलएलआरसी ने यह माना है कि हालांकि युद्ध के अंतिम चरण में हुई मौतों की सही-सही संख्या का आकलन करना संभव नहीं है। नागरिकों की मौतें 'नो फायर जोन' (एनएफजैड) में भी हुई हैं। तथापि, इसने उन आरोपों को अस्वीकार किया कि सुरक्षा बलों द्वारा की गई बमबारी ने नागरिकों को मौत के घाट उतारा और मामले की जांच करने का वायदा किया यदि श्रीलंकाई सुरक्षा कार्मिकों के विरुद्ध उपयुक्त साक्ष्य उपलब्ध होंगे।
युद्ध की समाप्ति के बाद भी, श्रीलंकाई समाज नृजातीय आधार पर विभाजित रहा तथा यह बात युद्ध के बाद हुए चुनावों के परिणामों से स्पष्ट थी। उदाहरण के लिए, 2011 के स्थानीय चुनावों में तमिल राष्ट्रीय गठबंधन (टीएनए) ने विवादग्रस्त क्षेत्रों में स्थानीय परिषद की कुल सीटों में से दो-तिहाई सीटें जीतीं तथा 2013 सितम्बर में इस पार्टी ने उत्तर में अर्ध-स्वायत्तशासी प्रांतीय परिषदों का पहला चुनाव जीता जिसमें उनके मतों का हिस्सा 78 प्रतिशत था। लेकिन टीएनएन और श्रीलंका सरकार के बीच वार्तालाप उस समय अचानक समाप्त हो गए जब राष्ट्रपति ने टीएनए नेताओं की मांग के अनुसार उत्तरी प्रांत को राजनीतिक स्वायत्तता प्रदान करने के प्रश्न पर द्विपक्षीय वार्तालाप प्रारंभ करने के स्थान पर अखिल भारतीय प्रतिनिधि समिति (एपीसी) का विकल्प चुना। इस दौरान, मानवाधिकार उत्तरदायित्व पर प्रगति के अभाव तथा तमिल अल्पसंख्यकों के साथ समझौता प्रक्रिया आरंभ करने में धीमी गति पर देश के विरुद्ध संयुक्त राष्ट्र संकल्प अंगीकृत किए गए (22012 में और 2013 में)।
इस पृष्ठभूमि में, अवसंरचना के पुनर्निर्माण, आईडीबी के हस्तांतरण और पुनर्व्यवस्थापन में की गई प्रगति का उल्लेख करते हुए यूएनएचआरसी ने यह इंगित करते हुए संकल्प पारित किया कि राष्ट्रीय तंत्र युद्ध के अंतिम चरण के दौरान "मानवाधिकार के कथित गंभीर आरोपों और उसके उल्लंघन" का निवारण करने में विफल रहा है। सरकार ने अंतर्राष्ट्रीय जांच के विचार को सिरे से खारिज कर दिया तथा यह कहा कि इसका निर्णय श्रीलंका की संप्रभुत्ता को प्रभावित करेगा और यह दावा किया कि देश का अपना तंत्र उस मुद्दे का निपटान करने के लिए पर्याप्त है जिसे एक घरेलू मुद्दे के रूप में देखा जा रहा है। राष्ट्रपति महेन्द्र राजपाक्सा ने समय-समय पर यह कहा है कि उनकी सरकार उन अंतर्राष्ट्रीय देशों जिन्होंने संयुक्त राष्ट्र संकल्प पर हस्ताक्षर किए थे, द्वारा उठाए गए सभी मुद्दों का समाधान करने की इच्छुक है परंतु वह कथित युद्ध अपराधों की अंतर्राष्ट्रीय जांच की अनुमति नहीं देगी। मुख्य विपक्षी दल संयुक्त राष्ट्रीय दल (यूएनपी) ने यह आधार लिया कि युद्ध के अपराधों के आरोपों की घरेलू जांच संचालित करने के सरकार की निष्क्रियता के परिणामस्वरूप ही अंतर्राष्ट्रीय शोर-शराबे और प्रतिक्रियाओं को बढ़ावा मिला। इस दौरान तमिल राजनीतिक दलों और नागरिक समाज समूहों ने इस निर्णय का स्वागत किया जो उनके अनुसार काफी समय से लंबित था।
अंतर्राष्ट्रीय जांच के प्रश्न पर, भारत ने एक स्वतंत्र राष्ट्रीय तंत्र का प्रस्ताव किया तथा इस आधार पर अंतर्राष्ट्रीय जांच पर आपत्ति व्यक्त की कि यह एक 'घुसपैठिया दृष्टिकोण' है जो श्रीलंका की राष्ट्रीय सुरक्षा को कम करेगा। भारत सरकार का निर्णय दो कारणों से प्रभावित था, पहला आईपीकेएफ की समाप्ति के उपरांत भारत ने अपना यह दृढ़ मत बनाए रखा कि वह देश के आंतरिक मामलों में सीधे शामिल नहीं होगा और साथ ही विवाद में किसी तीसरे पक्षकार के सीधे शामिल होने के प्रयास को भी हतोत्साहित करेगा। दूसरे, श्रीलंकाई सरकार का विभिन्न देशों जैसे चीन और पाकिस्तान के साथ बढ़ता हुआ सैन्य सहयोग भारत के लिए चिंता का विषय था तथा इन परिस्थितियों में, श्रीलंकाई सरकार के साथ बातचीत अप्लसंख्यकों के साथ शक्ति की भागीदारी और चल रहे मानवीय कार्य में शामिल रहने के मामले में राष्ट्रीय सर्वसम्मति विकसित करने के लिए सरकार द्वारा उठाए जाने वाला श्रेष्ठ तरीका था। संयुक्त राष्ट्र में भारत के पक्ष की आलोचना तमिलों के प्रति धोखे के रूप में तमिलनाडु राजनीतिक दलों द्वारा की गई तथा उन्होंने श्रीलंकाई तमिलों के मुद्दे पर जनमत-संग्रह कराने का आह्वान किया।
श्रीलंका में गृह-युद्ध की समाप्ति के उपरांत के घटनाक्रमों की सूक्ष्मता से निगरानी करने वाले बाहरी देशों के समक्ष चुनौती जवाबदेही, न्याय, पुनर्वास और पुनर्व्यवस्थापन मुद्दों की प्रक्रिया को आगे बढ़ाना है। राज्य की शक्ति की साझेदारी पर बहुसंख्यक और अल्पसंख्यक जनसंख्या की परिकल्पना में गहरे विभेदों के परिणामस्वरूप ऐसे दीर्घकालिक विवाद उत्पन्न हो गए जिन्होंने पूर्व में शांतिपूर्ण समाधान प्राप्त करने के प्रयासों को बाधित किया। घरेलू स्तर पर आधारभूत विभेदों का समाधान करने के सतत प्रयास किए जाने की आवश्यकता है, जहां सभी समुदाय उनके भविष्य के बारे में सुरक्षित महसूस कर सकें।
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*डॉ. एम. समता, भारतीय विश्व मामले परिषद, नई दिल्ली में अध्येता हैं
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