जापान के उत्तर कोरिया के साथ संबंधों में अनपेक्षित गर्मजोशी देखी जा रही है, जो ऐसा एकांतवासी पूर्व एशिया देश है जिसके साथ जापान के औपचारिक राजनयिक संबंध नहीं है। सत्तर और अस्सी के दशक में उत्तर कोरिया द्वारा जापानी नागरिकों का अपहरण, जो प्रत्यक्षत: उसकी खुफिया एजेंसियों को भाषा प्रशिक्षण प्रदान करने के लिए किया गया था, टोकियो और प्योंगयांग के बीच वैमनस्य वाले मुद्दों में से एक था; तथा यह राजनयिक संबंधों को सामान्य बनाने में एक मुख्य बाधा था। तथापि, दोनों देश अपने मुद्दों को सुझलाने के प्रति प्रतिबद्ध बने रहे और उन्होंने वार्ताएं पुन: प्रारंभ कीं जो 2008 से निलंबित रखी गई थीं। जापानी मीडिया की रिपोर्टें सुझाव देती हैं कि यदि दोनों पक्ष अपने संबंधों को बनाए रखते हें तथा अपहरण के मुद्दे को सुलझा देते हैं तो यह दो पड़ोसियों के बीच औपचारिक राजनयिक संबंधों की स्थापना का मार्ग प्रशस्त करेगा।
जापानी नागरिकों के अपहरण के मुद्दे का हल करने के लिए जापान और उत्तर कोरिया के शीर्षस्थ राजनयिकों ने स्टॉकहोम और बीजिंग में पिछले तीन माह के दौरान वार्ताओं की एक श्रृंखला प्रारंभ की। इसे एक प्रमुख उपलब्धि ही माना जाएगा, जब जुलाई के प्रारंभ में उत्तर कोरिया ने जापानी अपहृतों के भाग्य का अन्वेषण करने के लिए एक विशेषज्ञ समिति का गठन करने की सहमति प्रदन की। इसके बदले में, जापान ने उत्तर कोरिया द्वारा परमाणु और मिसाइल परीक्षण किए जाने के बाद 2006 में उस पर लगा गए कुछ प्रतिबंधों को समाप्त कर दिया। उनके समझौते के भाग के रूप में जिसे 'कार्रवाई के बदले कार्रवाई' कहा गया था, जापान ने निम्नलिखित एकपक्षीय प्रतिबंधों को उठा लिया:
उल्लेखनीय रूप से, यह शिंजो आबे की सरकार ही थी जिसने अपने पद की पिछले अवधि के दौरान उत्तर कोरिया पर उक्त संदर्भित प्रतिबंध लगाए थे। ये प्रतिबंध संयुक्त राष्ट्र द्वारा लगाए गए प्रतिबंधों के अतिरिक्त थे। अपने पिछले कदम के विपरीत, आबे ने पद पर अपनी दूसरी अवधि के दौरान अपहरण के मुद्दे के समाधान को उनकी सरकार की शीर्ष प्राथमिकताओं में से एक के रूप में उद्धृत किया, मुख्य रूप से इसीलिए क्योंकि अपहृतों के परिवार अब वृद्धावस्था की ओर बढ़ रहे थे। हाल ही में, आबे सरकार ने इस मुद्दे का समाधान करने के लिए अपहृतों के परिवारों से दबाव का सामना किया था क्योंकि उन्होंने अनेक सार्वजनिक विरोध-प्रदर्शन किए थे और सरकार को उनके अभ्यावेदन प्रस्तुत किए थे। चूंकि यह मुद्दा मानवीय प्रकृति का था, अमेरिका और दक्षिण कोरिया, जो जापान द्वारा एकपक्षीय प्रतिबंध उठाने के विरोध में थे, ने जापान द्वारा प्रारंभ की गई पहलों पर मूक प्रतिक्रिया व्यक्त की थी। सियोल ने कहा था कि उसे आशा है "ये वार्ताएं दक्षिण कोरिया, अमेरिका और जापान के बीच घनिष्ठ संपर्क के आधार पर संचालित की जाएंगी।" अमेरिका अपेक्षा करता था कि जापान अपहरण के मुद्दे का हल 'एक पारदर्शी तरीके' से निकालेगा। तथापि, उन्होंने यह महसूस किया कि जापान की कार्यवाही उत्तर कोरिया पर लगाए गए प्रतिबंधों को अर्थहीन बना देगी तथा हठी शासन को उसके परमाणु कार्यक्रमों को त्यागने के लिए मना पाना कठिन होगा।
हालांकि जापान में अधिकारियों ने जापान के इस कदम को एक मानवीय कार्रवाई बताया है, जबकि आलोचकों को विश्वास है कि टोक्यो और प्योंगयांग के बीच यह समझौता मानवीय मुद्दों तक ही सीमित नहीं रह जाता है, बल्कि यह राजनीतिक उद्देश्यों से प्रेरित है। इसमें कोई संदेह नहीं कि जापान और दक्षिण कोरिया दोनों ही के पास एक-दूसरे के साथ संबंध स्थापित करने के अपने-अपने कारण हैं। दक्षिण कोरिया अपने आक्रामक व्यवहार जैसे परमाणु हथियारों और मिसाइलों के परीक्षण के कारण अंतर्राष्ट्रीय समुदाय से अलग-थलग रहा है। इसके अलावा, इसने किम जोंग-यून शासन में दूसरे स्थान की राजनीतिक हस्ती जोंग सोन-थाएक के मृत्यु-दण्ड केबाद अपने सबसे महत्वपूर्ण मित्र-राष्ट्र चीन को भी नाराज किया। किम जोंग-यून द्वारा प्रशासन संभालने के बाद से चीन ने कभी भी उत्तर-कोरिया के साथ शिखर-सम्मेलन स्तरीय वार्ताएं नहीं कीं और इस प्रकार वह और भी अकेलापन महसूस करता रहा। इसी प्रकार, जापान ने ऐतिहासिक मुद्दों तथा प्रादेशिक विवादों पर मतभेदों के कारण चीन और दक्षिण कोरिया की ओर से पृथकवाद झेला क्योंकि उन्होंने जापानी प्रशासन के साथ अपने सभी राजनीतिक संबंध निलंबित कर दिए थे। टोक्यो और प्योंगयांग के बीच पुनर्मेल जापान के घरेलू क्षेत्रों में यह संदेश प्रेषित कर सकता है कि वह अब क्षेत्र में अलग-थलग नहीं रह गया है। अत: यह अपने ही देश में जापानी प्रधानमंत्री की लोकप्रियता में वृद्धि करने में सहायता करेगा जिसकी सुरक्षा मुद्दों पर उनके मंत्रिमंडल द्वारा लिए गए कुछ विवादास्पद निर्णयों के कारण छवि में गिरावट आई है। जहां तक उत्तर कोरिया का संबंध है, यह कदम उस पार्थक्य राष्ट्र के लिए कुछ आर्थिक लाभ लाएगा क्योंकि यह अपनी-अपनी जीर्ण-शीर्ण अर्थव्यवस्था को पुन: समृद्ध बनाने के लिए काफी मेहनत कर रहा है। यह पुनर्मिलन जापान के साथ अपने संबंध सामान्य करने की उत्तर-कोरिया की आकांक्षा की भी पूर्ति करेगा।
जापान के भीतर, विश्लेषकों का एक वर्ग यह संदेह भी जताता है कि जांच पुन: आरंभ करने के महत्वपूर्ण परिणाम होंगे। उत्तर कोरिया ने पूर्व में भी ऐसी ही जांच का वायदा किया था परंतु उनसे अभी तक आशयित परिणाम नहीं निकले। जापानी सरकार ने उन 17 राष्ट्रिकों की सूची प्रस्तुत की थी जिन्हें सत्तर के दशक के प्रारंभ में और अस्सी के दशक के अंत में उत्तर कोरिया द्वारा अपहृत किया गया था। तथापि, जापानी एनजीओ का अनुमान यह सुझाता है कि लगभग 470 लोगों को हर्मिट नेशन की जासूसी एजेंसियों द्वारा अपहृत किया गया है। 2002 में, तत्कालीन प्रधानमंत्री जुलिचिरो कोइजूमी प्योंगयाग की अपनी औचक यात्रा के उपरांत पांच अपहृतों को वापस लाने में सफल रहे थे। तत्कालीन उत्तर कोरियाई नेता किम जोंग II ने कोइजूमी के साथ बैठक के दौरान जापानी राष्ट्रिकों के अपहरण की बात स्वीकार की। उन्होंने एक जांच भी प्रारंभ की तथा बाद में जापान को सूचित किया कि आठ अपहृती मर गए हैं तथा शेष चार ने उत्तर कोरिया में कभी प्रवेश किया ही नहीं। जापान द्वारा इस दावे को स्वीकार नहीं किया गया, जिसने नए सिरे से जांच की मांग की। अपहरण में मुद्दे पर वार्ताएं जापान द्वारा अनेक अवसरों पर निलंबित कर दी गईं, विशेष रूप से तब, जब उत्तर कोरिया ने हठधर्मी वाले कदम उठाए तथा मिसाइल परीक्षण संचालित किए।
उत्तरी कोरिया ने जापान-दक्षिण कोरिया वार्तालापों के मध्य तथा इस वर्ष 27 और 29 जून को चीनी राष्ट्रपति की दक्षिण कोरिया के दौरे के आस-पास छोटी दूरी के मिसाइल परीक्षण संचालित किए। जापान ने इस हठी कार्यवाही के लिए उत्तर कोरिया के पास अपना विरोध दर्ज किया परंतु पिछले अवसरों के विपरीत इसने अपनी वार्ताओं को निलंबित नहीं किया। यह इस तथ्य का संकेत था कि जापान किसी दीर्घावधिक लाभ को देख रहा था और वह उत्तर कोरिया के साथ अपने संबंधों के लिए प्रतिबद्ध रहा। ऐसी रिपोर्टों के मध्य कि अनेक अपहृत व्यक्ति अभी भी जीवित हैं, जापान मीडिया इस बात का अनुमान लगा रहा है प्रधानमंत्री शिजो आबे-जापानी अपहृतियों की वापसी सुनिश्चित करने के लिए उत्तर कोरिया की यात्रा की योजना बना रहे हैं।
जापानी विदेश मंत्री फुमियो खिशिया ने जापानी डिएट में कहा है कि आबे की दक्षिण कोरिया यात्रा अपहरण के मामले का निवारण करने क लिए एक मार्ग होगी।
यदि आबे वस्तुत: प्योंगयांग का दौरा करते हैं तथा शीर्ष उत्तरी कोरियाई नेताओं के साथ वार्तालाप करते हैं, तो यह जापान-उत्तर कोरिया संबंधों में एक नए अध्याय की शुरुआत होगी। आबे के उत्तर कोरिया के प्रति लिया गया यह मैत्रीपूर्ण दृष्टिकोण सुझाता है कि वे उत्तर कोरिया के साथ दो-आयामी रणनीति को अपना रहे हैं। एक ओर वे अमेरिका, दक्षिण कोरिया और जापान को शामिल करने वाला त्रिपक्षीय समन्वय जारी रखना चाहते हैं जिसका उद्देश्य उत्तर कोरिया द्वारा प्रस्तुत की गई सुरक्षा चुनौतियों का सामना करना है, वहीं दूसरी ओर वे उत्तर कोरिया को स्पष्टत: उसके आक्रामक व्यवहार में सौम्यता लाने के लिए उसकी सहायता करते हुए उसके साथ संबंध बनाने के लीक से हटकर कदम उठाने की इच्छा रखते हैं। दक्षिण कोरिया के स्रोत यह सुझाव देते हैं कि उत्तर कोरिया चौथे परमाणु परीक्षण की तैयारी कर रहा है। लेकिन, उत्तर कोरिया ने अभी तक यह परीक्षण संचालित नहीं किया है। ऐसा प्रतीत होता है कि उत्तर कोरिया के प्रति जापान की हालिया रुचि ने प्योंगयांग को परीक्षणों को आस्थगित करने के लिए विवश किया है। यह पूरी तरह से जानता है कि यदि इसने आगे और परीक्षण संचालित किए, तो जापान अपनी रणनीति पर पुनर्विचार करेगा तथा इससे किंग जांग-उन के शासन का और पार्थिक्य होगा।
आलोचकों ने उत्तर कोरिया पर प्रतिबंध उठाने के लिए जापान को दोषी माना है क्योंकि उनका मानना है कि जापान का यह दृष्टिकोण प्योंगयांग के मिसाइल और परमाणु कार्यक्रम पर पाबंदी लगाने के अंतर्राष्ट्रीय समुदाय के प्रयासों को हल्का बना देगा। तथापि, दोनों देशों के बीच प्रारंभिक वार्तालापों को पूर्णत: नकारात्मक नहीं माना जाना चाहिए। म्यामांर क्षेत्र में हालिया परीक्षण का मामला है, अमेरिका-म्यामांर वार्तालापों ने पई ताव के दृष्टिकोण को बदल दिया तथा इससे उसे विश्व के साथ संबंधी स्थापित करने के लाभ प्राप्त हुए और इसके फलस्वरूप देश का राजनीतिक रूपांतरण भी हुआ। इसी प्रकार जापान और उत्तर कोरिया के बीच अपहरण के मामले को सुलझाने के लिए वार्ताएं द्विपक्षीय संबंधों में सुधार ला सकती हैं, जिसके फलस्वरूप प्रतिबंध और उत्तरी कोरिया तक होगा। प्योंगयांग में किम जोंग-उन शासन भी आर्थिक दृष्टि से मजबूत पड़ोसी के साथ संबंधों के लाभों को देखता है तथा वह ऐसे कदम न उठाने के लिए प्रोत्साहित हो सकता है जिससे उसे पार्थक्य प्राप्त हुआ था। चूंकि प्रतिबंधों की 'छड़ी' अथवा कड़े उपायों तथा उत्तर कोरिया के बहिष्कार ने अपेक्षित परिणाम नहीं दर्शाए, इसके लिए 'लालच' के वैकल्पिक मार्ग को अपनाया जाना होगा। जापान की ऐसे कदम उठाने के लिए सराहना की जानी चाहिए तथापि, इसे सावधानीपूर्वक यह देखना चाहिए कि क्या इसके संबंध में उत्तर कोरिया के आक्रामक व्यवहार को सौम्य बनाने में सहायता कर रहे हैं अथवा उसे और हठी बना रहे हैं।
*****
* डॉ. शमशाद ए खान, भारतीय विश्व मामले परिषद, नई दिल्ली में अध्येता हैं
*
अस्वीकरण: व्यक्त मंतव्य लेखक के हैं और परिषद के मंतव्यों को परिलक्षित नहीं करते।