पाकिस्तान किसी न किसी कारण से मीडिया की सुर्खियों में बना ही रहता है। इस बार यह कारण न्यायपालिका से जुड़ा है। पहले तो, पदधारी सेना स्टाफ प्रमुख (सीओएएस) जनरल कमर जावेद बाजवा के कार्यकाल में किए गए तीन वर्ष के विस्तार का मामला था जिसे एक कड़ी कानूनी लड़ाई के बाद उच्चतम न्यायालय ने कम करके छह माह कर दिया था। अनेक प्रासंगिक प्रश्न उठाने के अलावा शीर्ष न्यायालय ने संघीय सरकार को स्पष्ट रूप से निर्देश भी दिया कि वह छह माह की अवधि के भीतर सीओएएस की पदावधि की शर्तों को प्रशासित करने वाला विधान अधिनियमित करे। जब सरकार इस स्थिति से जूझ ही रही थी, उसी समय पाकिस्तान के पूर्व सेना स्टाफ प्रमुख और पूर्व राष्ट्रपति परवेज़ मुशर्रफ के घोर राजद्रोह की सुनवाई में विशेष न्यायालय1के निर्णय के रूप में उसे एक और झटका लग गया। विशेष न्यायालय की तीन-सदस्यीय न्यायपीठ ने अनेक कारणों से परवेज़ मुशर्रफ को दोषी पाया जिनमें अन्य बातों के साथ-साथ, संविधान को निरसित करना, आपातकाल की स्थिति घोषित करना और उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीशों को निरुद्ध करके रखना शामिल था।यहां यह नोट करना महत्वपूर्ण है कि वर्तमान मामला अनन्य रूप से 2007 में घटे घटनाक्रम के बारे में था तथा यह 12 अक्तूबर, 1999 के मूल विद्रोह से संबंधित नहीं था। न्यायालय अपने 1 के मुकाबले 2 के बहुमत वाले निर्णय में इस बात के प्रति आश्वासित थी कि पूर्व सीओएएस और पूर्व राष्ट्रपति संविधान के अनुच्छेद 6 के अंतर्गत परिभाषित 'घोर राजद्रोह' के आरोपों के दोषी हैं तथा उसने 17 दिसम्बर, 2019 को मृत्यु-दंड की सजा सुनाई।
1वर्ष 2010 में, मौलवी इकबाल हैदर ने घोर राजद्रोह के अपराध के लिए जनरल परवेज़ मुशर्रफ के विरुद्ध सुनवाई करने के अनुरोध के साथ उच्चतम न्यायालय में एक याचिका दायर की थी। यह याचिका ढाई वर्ष से भी अधिक समय तक उच्चतम न्यायालय में लंबित पड़ी रही और अंततः इसे 2013 में तीन-सदस्यीय न्यायपीठ द्वारा सुनवाई के लिए लिया गया। न्यायपीठ न नवाज शरीफ सरकार से वचन लिया कि इस मामले की जांच की जाएगी और इसे सुनवाई के लिए विशेष न्यायालय के समक्ष भेजा जाएगा। इस प्रकार, विशेष न्यायालय का गठन किया गया और नवाज शरीफ सरकार ने न्यायालय के समक्ष दिसम्बर, 2013 में आधिकारिक शिकायत दर्ज की। विवरण के लिए देखिए स्पेशल कोर्ट (2019), 2013 की शिकायत सं. 1 में निर्णय, 17 दिसम्बर, 2019, इस्लामाबाद, पृष्ठ 6-7.
घोर राजद्रोह को पाकिस्तान के संविधान के अनुच्छेद 6(1) और अनुच्छेद 6(2) में स्पष्टत: परिभाषित किया गया है। अनुच्छेद 6(1) कहता है किः
"जो व्यक्ति बल के प्रयोग से अथवा बल के प्रदर्शन से अथवा किसी अन्य असंवैधानिक तरीके से संविधान का निरसन करता है, अथवा विकृत करता है अथवा निलंबित करता है अथवा आस्थगित करता है अथवा उसका निराकरण अथवा विकृत अथवा निलंबित अथवा आस्थगित रखने का प्रयास या षड्यंत्र करता है, वह घोर राजद्रोहका दोषी होगा।
अनुच्छेद 6(2) उन अन्य लोगों का भी 'घोर राजद्रोह' का दोषी मानता है जो प्रक्रिया में सहायता करते हैं अथवा अपराध में सहायक होते हैं। यह कहता है कि, "जो व्यक्ति खंड (1) में उल्लेख किए गए कृत्यों मेंसहायता देगा अथवा उसके लिए उकसाएगा अथवा उसमें भागीदार होगा, वह भी समान रूप से घोर राजद्रोह का दोषी होगा।"न्यायालय ने अपने 16 पृष्ठ के निर्णय में अपनी अधिकारिता को स्थापित करने तथा इस अति महत्वपूर्ण मामले में सुनवाई के लिए अपनाई गई प्रक्रिया के संबंध में संविधान के विभिन्न उपबंधों को विनिर्दिष्ट किया है।इसके उपरांत इसने पूर्व सेना प्रमुख और पूर्व राष्ट्रपति को अपराधी ठहराया है। घोर राजद्रोह के लिए किसी पूर्व सीओएएस को अपराधी ठहराया जाना अभूतपूर्व और उल्लेखनीय बात है। यह पहली बार है कि किन्ही सेवानिवृत्त सेना प्रमुख और पाकिस्तान के पूर्व राष्ट्रपति को उसके शासनकाल के दौरान असंवैधानिक कृत्यों के लिए उत्तरदायी ठहराया गया है।
सुनवाई और निर्णय
वर्ष 2005 से, इफ्तिखार मोहम्मद चौधरी के पाकिस्तान का मुख्य न्यायमूर्ति बनने के साथ ही उनके और तत्कालीन सैन्य-नेतृत्व वाली सरकार के बीच अनेक मतभेद उत्पन्न हो गए थे। मार्च, 2007 में मुख्य न्यायमूर्ति के पद से उनके नाटकीय निलंबन से मामला काफी तनावपूर्ण हो गया। गहन विरोध के उपरांत, उच्चतम न्यायालय ने न्यायमूर्ति चौधरी को जून, 2007 में पुनः बहाल किया। न्यायपालिका के वकीलों के विरोध द्वारा बहिष्कृत न्यायमूर्ति चौधरी ने राष्ट्रपति का एक और चुनाव लड़ने की मुशर्रफ की पात्रता को चुनौती देते हुए एक याचिका दाखिल की। जबकि यह मामला शीर्ष न्यायालय में लंबित ही था, मुशर्रफ ने 3 नवम्बर, 2007 को आपातकाल की घोषणा कर दी, संविधान का निरसन किया तथा उच्च न्यायपालिका में न्यायाधीशों से कहा कि वे अनंतिम संवैधानिक आदेश (पीसीओ) के अंतर्गत पुनः शपथ ग्रहण करें। उच्चतम न्यायालय के कम से कम 15 न्यायाधीशों तथा प्रांतीय उच्च न्यायालयों के 56 न्यायाधीशों, जिन्होंने पुनः शपथ लेने से इंकार कर दिया था, को निकाल बाहर कर दिया गया। मुख्य न्यायमूर्ति इफ्तिकार मोहम्मद चौधरी तथा कुछ अन्य न्यायाधीशों को भी नज़रबंद कर दिया गया था। बाद के घटनाक्रम इतिहास बन गए हैं जिसमें न्ययपालिका और वकीलों के न्तृत्व में छिड़े लोकप्रिय आंदोलन के फलस्वरूप राजनीतिक परिवर्तन आयातथा सेना और उसके द्वारा समर्थन दिए गए शासकों का एक दशक लंबा शासनकाल समाप्त हुआ और एक लोकप्रिय सरकार का चुनाव किया गया।
इन्हीं अपराधों की पृष्ठभूमि में, मार्च, 2013 में इफ्तिकार मोहम्मद चौधरी के नेतृत्व में उच्चतम न्यायालय की एक तीन-सदस्यीय न्यायपीठ 'घोर राजद्रोह' के लिए जनरल मुशर्रफ की सुनवाई करने के लिए मौलवी इकबाल हैदर द्वारा दाखिल याचिका पर सुनवाई करने के लिए सहमत हुई। इस याचिका का निपटान नवाज शरीफ की सरकार द्वारा यह वचन देने के उपरांत कर दिया गया था कि इस मामले की जांच की जाएगी और इसे सुनवाई के लिए भेजा जाएगा। जांच और विधिक परामर्शों के उपरांत, सरकार ने 13 दिसम्बर, 2013 को पेशावर उच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति वकार अहमद सेठ की अध्यक्षता में गठित एक विशेष न्यायालय में शिकायत दाखिल कर दी। इसके दो अन्य सदस्य थे - सिंध उच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति नज़र अकबर और लाहौर उच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति शाहिद करीम।
सेना ने इसे कभी भी किसी व्यक्ति के विरुद्ध मामला नहीं माना तथा इसे एक संस्था के रूप में सेना के सम्मान के साथ जोड़े रखा और अपने पूर्व प्रमुख के विरुद्ध सुनवाई में पर्दे के पीछे से निरंतर बाधा पहुंचाई। जनरल राहिल शरीफ, तत्कालीन सीओएएस (2013-2016) ने भी इसमें महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। उनकी भूमिका को स्वयं मुशर्रफ द्वारा भी स्वीकारा गया है। 1 दिसम्बर, 2016 को वर्ल्ड न्यूज को दिए गए एक साक्षात्कार में मुशर्रफ ने स्पष्ट रूप से यह बताया कि "जी हां, उन्होंने मेरी मदद की थी तथा मैं इस बात को पूरी तरह से मानता हूं और उनके प्रति आभार व्यक्त करता हूं। मैं उनका वरिष्ठ रहा हूं और मैं उनसे पहले सेना प्रमुख था.......उन्होंने मेरी सहायता की, लेकिन इन मामलों का राजनीतिकरण हो गया है।'' उन्होंने यह भी कहा कि जनरल शरीफ 'न्यायालयों पर प्रभाव डालकर' ऐसा कर पाने में सफल रहें। उनके अपने शब्दों में, ''जब उन्हें सरकार मिल गई, तो उस दबाव को कम करने के लिए, जो उनके द्वारा डाला जा रहा था, न्यायालय ने अपना निर्णय सुना दिया और मुझे उपचार के लिए विदेश जाने की अनुमति दे दी गई।'' अनेक कारणों से, जिसमें अपीलीय फोरमों पर चलने वाली मुकदमेबाजी भी शामिल थी, घोर राजद्रोह की सुनवाई टलती चली गई।
जबकि यह मामला कभी लंबित ही थी, मुशर्रफ ने चिकित्सा उपचार के लिए देश छोड़ दिया और वे वापस नहीं आए। न्यायालय ने मुशर्रफ को उसके समक्ष व्यक्तिगत रूप से उपस्थित रहने और सुनवाई में सहयोग करने के अनेक अवसर प्रदान किए। तथापि, उनकी अनुपस्थिति से सुनवाई नहीं रुकी क्योंकि घोर राजद्रोह (दंड) 1973 की धारा 9 न्यायालय को मामले पर आगे कार्यवाही संचालित करने की शक्ति प्रदान करती है। इसके अलावा, उच्चतम न्यायालय ने 1 अप्रैल, 2013 को विशेष न्यायालय को निर्देश दिया कि वे आरोप की अनुपस्थिति में भी सुनवाई जारी रखे। जब मामले की सुनवाई अपने अंतिम चरण पर आती प्रतीत हो रही थी, संघीय सरकार ने 24 अक्तूबर, 2015 को अभियोजन दल को अचानक ही बर्खास्त कर दिया, जिसके लिए कोई कारण नहीं बताया गया था, परंतु संभवतः यह मामले में विलंब करने की एक चाल थी। न्यायालय ने अपनी अप्रसन्नता व्यक्त की परंतु सुनवाई चलती रही क्योंकि तब तक अभियोजन दल ने सभी साक्ष्य प्रस्तुत कर दिए थे।
किसी प्रतिकूल निर्णय की संभावना को भांपते हुए, सरकार ने यह अनुरोध करते हुए इस्लामाबाद उच्च न्यायालय का द्वार खटखटाया कि विशेष न्यायालय को इस सुनवाई में अंतिम निर्णय पारित करने से रोका जाए। इस्लामाबाद उच्च न्यायालय ने 27 नवम्बर को विशेष न्यायालय को आदेश पारित करने से रोक दिया परंतु सरकार को निर्देश दिया कि वह 5 दिसम्बर, 2019 तक एक नया अभियोजन दल अधिसूचित करे। नया अभियोजन दल, विशेष न्यायालय के समक्ष पहले 5 दिसम्बर को और पुनः 17 दिसम्बर को प्रस्तुत हुआ। बहस उसी दिन समाप्त हो गई जिसके बाद न्यायालय ने अपना निर्णय सुना दिया। निर्णय स्वतः ही अनेक प्रश्नों का समाधान करता है जिसमें उचित सुनवाई का मुद्दा भी शामिल है। पैरा 64 में यह कहा गया है किः
हमारा यह सुविचारित मत है कि इस घोर राजद्रोह के मामले में आरोपी को उचित सुनवाई के उसके देय अवसरों से कहीं अधिक अवसर दे दिए गए हैं। एक संवैधानिक अपराध, न कि किसी साधारण अपराध, की इस संरक्षित सुनवाई, जो छह वर्ष पूर्व 2013 में प्रारंभ हुई थी, वर्ष 2019 के अंत में भी अपनी समाप्ति की प्रतीक्षा कर रही है। आरोपी जिसे स्वयं का बचाव करने का प्रत्येक अवसर प्रदान किया गया है, ने इन सुनवाइयों में अपने आचरण से विधि और देश की विधिक संस्थाओं के प्रति केवल अपनी घोर अवमानना की भावना ही प्रदर्शित की है। इस मामले के तथ्य भली-भांति प्रलेखीकृत किए गए हैं। दस्तावेज आरोपी की ओर से किए गए अपराध को स्पष्टतः दर्शाते हैं। ये बिना किसी युक्तियुक्त संदेह के राज्य द्वारा आरोपी के विरुद्ध लगाए गए घोर राजद्रोह के सभी आरोपों को सिद्ध करते हैं।
पैरा 6.5 में, न्यायालय ने जनरल परवेज़ मुशर्रफ को घोर राजद्रोह का दोषी घोषित किया है और यह कहते हुए दंड के परिमाण का निर्णय लिया है कि "जो कुछ प्रेक्षित किया गया उसके एक आवश्यक परिणाम के रूप में हम आरोपी को आरोप के अनुसार दोषी पाते हैं। अतः अपराधी को आरोप के अनुसार प्रत्येक अवसर पर इसकी गर्दन से तब तक लटकाया जाए, जब तक उसकी मृत्यु न हो जाए।"
पाकिस्तान के भीतर प्रतिक्रियाएं
दुबई में अपने अस्पताल के बिस्तर से परवेज़ मुशर्रफ ने निर्णय पर प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए वीडियो द्वारा वक्तव्य जारी किया जिसमें उन्होंने इस मामले को 'पूर्णतः निराधार' बताया। उन्होंने आगे यह भी कहा कि "जहां तक इस मामले (राजद्रोह) का संबंध है, यह पूर्णतः आधारहीन है। मैंने दस वर्ष तक अपने देश की सेवा की है। मैं अपने देश के लिए लड़ा हूं। यह एक ऐसा मामला है जिसमें मुझे सुना नहीं गया और मुझे पीड़ित बनाया गया है। द डेली टाइम्स के संपादकीय ने इस निर्णय को 'पाकिस्तान की एक मार्शल लॉविहीन युग की ओर यात्रा' बताते हुए वर्णित किया है। द डॉनके संपादकीय ने इसे 'पाकिस्तान के इतिहास में एक आमूल परिवर्तन' की संज्ञा दी है। अधिकांश विरोधी पार्टियों ने निर्णय का स्वागत किया है। पाकिस्तान पीपल्स पार्टी के चेयरमैन बिलावल भुट्टो जरदारी ने इस निर्णय को 'एक ऐतिहासिक निर्णय' बताया है और कहा है कि "यह पाकिस्तान की लोकतंत्र की ओर यात्रा का पहला कदम है।" उन्होंने यह भी कहा कि इस निर्णय ने यह संदेश प्रसारित किया है कि कोई सैन्य तानाशाह भविष्य में असंवैधानिक कदम नहीं उठा सकता है। इंटर सर्विसेज़ पब्लिक रिलेशन (आईएसपीआर) ने 17 दिसम्बर 2019 को एक प्रेस विज्ञप्ति में इस निर्णय के विरुद्ध गहरी अप्रसन्नता व्यक्त की थी। निर्णय की घोषणा के तत्काल पश्चात् सेना मुख्यालय द्वारा एक वक्तव्य जारी कियाः
विशेष न्यायालय द्वारा सेवानिवृत्त जनरल परवेज़ मुशर्रफ द्वारा दिए गए निर्णय द्वारा पाकिस्तान सशस्त्र सेनाओं के समस्त स्तरों में अत्यंत दुःख और रोष पहुंचा है। पूर्व-सेना प्रमुख, जॉइंट चीफ ऑफ़ स्टाफ कमेटी के सभापति और पाकिस्तान के राष्ट्रपति जिन्होंने देश की 40 से अधिक वर्षों तक सेवा की है, देश की रक्षा के लिए युद्ध लड़े हैं, निसंदेह कभी भी गद्दार नहीं हो सकते हैं। यह प्रतीत होता है कि सम्यक विधिक प्रक्रिया को नजरअंदाज किया गया है जिसमें विशेष न्यायालय का गठन, आत्मरक्षा के मौलिक अधिकार से इंकार किया जाना, विशिष्ट वैयक्तिक कार्यवाहियां संचालित करना और मामले को तेजी के साथ समाप्त करना भी शामिल है। पाकिस्तान की सशस्त्र सेनाएं इस निर्णय को छोड़कर पाकिस्तान इस्लामी गणराज्य के संविधान के अनुरूप कार्य करती रहेगी।
पीटीआई सरकार ने भी त्वरित प्रक्रिया व्यक्त की। उसने इस सुनवाई को 'अनुचित' बताया तथा यह स्पष्ट किया कि वह अपनी ओर से अपील दाखिल करते हुए पूर्व सेना प्रमुख का बचाव करेगी। अटार्नी जनरल अनवर मंसूर ने प्रधानमंत्री के विशेष सूचना सहायक डॉ. फिरदौस आशिक अवान ने संयुक्त प्रेस कांफ्रेंस को संबोधित किया जिसके दौरान उन्होंने कहा कि "मैं मामले में विधि का बचाव करूंगा, न कि कसी व्यक्ति-विशेष का..... इस मामले में संविधान के अंतर्गत गारंटी प्रदान किए गए उचित सुनवाई को अधिकार सुनिश्चित नहीं किया गया। कोई सुनवाई केवल उचित ही नहीं होनी चाहिए, बल्कि उचित लगनी भी चाहिए। पाकिस्तान विधिज्ञ परिषद (पीबीसी) ने विशेष न्यायालय के निर्णय की अपमानजनक आलोचना के लिए पाकिस्तान सेना और पीटीआई सरकार, दोनों की निंदा की। 19 दिसम्बर को कठोर शब्दों में जारी किए गए वक्तव्य में, अन्य बातों के साथ-साथ, यह कहा गया था किः
हमारी यह दृढ़ राय है कि डीजी, आईएसपीआर का वक्तव्य विधिक और संवैधानिक उपबंधों का स्पष्ट उल्लंघन है और इस प्रकार यह न्यायालय की अवमानना करता है। यदि डीजी, आईएमपीआर की राय में मुशर्रफ के मामले में दिए गए निर्णय में त्रुटियां हैं, तो विधि ने ऐसी त्रुटि, यदि कोई है, के विरुद्ध रोष व्यक्त करने के लिए प्रक्रिया और समुचित मार्ग प्रदान किए है जैसे उच्चतर न्यायिक मंचों के समक्ष अपील, समीक्षा अथवा संवैधानिक याचिका के रूप में, परंतु सेना के किसी अधिकारी द्वारा जिस तरीके से विशेष न्यायालय के निर्णय की आलोचना की गई है, वह स्पष्ट रूप से यह छवि प्रस्तुत करती है कि पाकिस्तान की सभी संस्थाएं उसका आदेश मानने के लिए सशस्त्र सेनाओं के अधीन हैं तथा उनके लिए न्यायपालिका सहित किसी अन्य मंच के प्रति कोई सम्मान नहीं है। विधिक समुदाय की यह राय है कि संघीय सरकार, इसके मंत्रियों, विधि अधिकारी और विशेष रूप से पाकिस्तान के अटार्नी जनरल द्वारा अपनाया गया रवैया भी यह सिद्ध करता है कि सत्ता पक्ष को भी सेना द्वारा स्थापित किया गया है तथा इसकी संस्था ही इसे चला रही है, यही कारण है कि वे समान सुर और अभिप्राय में निर्णय की आलोचना भी कर रहे हैं।
इस मामले में व्यक्त की गई रायों की यह विविधता पाकिस्तान की राजनीति में सेना की भूमिका पर गहन विरोधाभास प्रदर्शित करती है। सरकार और सेना इस परिदृश्य के एक छोर पर खड़े प्रतीत होते हैं जबकि विपक्ष और अधिकांश विधिक वर्ग तथा पाकिस्तान के नागरिक समाज के वर्ग दूसरे छोर पर खड़े दिखते हैं। ये विभाजन पाकिस्तान में विभिन्न सोशल मीडिया प्लेटफार्मों पर भी अत्यंत स्पष्ट दिखाई पड़ते हैं।
निर्णय के पैरा 66 पर विवाद
19 दिसम्बर, 2019 को सार्वजनिक किया गया विशेष न्यायालय का विस्तृत निर्णय, उस निर्णय के पैरा 66 के संबंध में विवादास्पद बन गया, जो यह कहता है किः
हम विधि प्रवर्तन एजेंसियों को भगोड़े/अभियुक्त को गिरफ्तार करने के लिए यथासंभव श्रेष्ठ कार्रवाई करने और यह सुनिश्चित करने का निदेश देते हैं कि दंड को विधि के अनुसार पूर्ण किया जाए और यदि वह मृतक पाया जाता है, तो उसके शव को घसीटकर डी-चौक, इस्लामाबाद, पाकिस्तान लाया जाए और वहां उसे 03 दिन तक लटकाया जाए।
अनेक लोगों के लिए यह समकालीन समय में अत्यंत अभूतपूर्व बात है, जहां एक उच्च स्तरीय न्यायालय मध्यकालीन समय की सजा सुना रहा है। द डॉन ने 20 दिसम्बर, 2019 के अपने संपादकीय में इसे न्यायिक बमबारी के समतुल्य बताया है जो मध्यकालीन युग की ओर निराशाजनक गमन के समान है। सेना के भीतर रोष सुस्पष्ट था। पीटीआई सरकार ने निर्णय की समीक्षा कराने का निर्णय लिया और यह संकेत भी दिया कि वह न्यायमूर्ति वकार अहमद शाह के विरुद्ध इस निर्मम निर्णय को लिखने के लिए सर्वोच्च न्यायिक परिषद (एसजेसी) में एक संदर्भ दाखिल करगी। इस निर्णय को न केवल 'विधिविरुद्ध' और 'अमानवीय' कहा गया बल्कि 'गैर-संवैधानिक' भी बताया गया। सामान्य तौर पर, पाकिस्तान की सेना ने इस निर्णय को 'शत्रु द्वारा निर्मित' बताने का प्रयास भी किया। डीजी, आईएसपीआर मेजर जनरल आसिफ गफूर ने कहा कि यह निर्णय 'मानवीयता, धर्म, संस्कृति और हमारे मूल्यों के विरुद्ध है।' उन्होंने यह भी कहा कि 'राज्य विरोधी तत्वों, आंतरिक और बाह्य, के षड्यंत्र को नष्ट किया जाएगा।'
अधिकांश लोगों ने जो बात बात पर ध्यान नहीं दिया अथवा जिसे जानबूझकर नजरअंदाज किया, वह निम्नलिखित पैरा 67 है जो पूर्ववर्ती पैरा में उठे विवाद के बारे में स्पष्टीकरण प्रदान करता है। पैरा 67 कहता है किः
वस्तुतः, निर्णय के इस भाग तथा सजा के निष्पादन को कहीं भी परिभाषित नहीं किया गया है, परंतु यदि यह प्रथम अनुभव का मामला है और मृत्यु की सजा अभियुक्त को प्रमाणित अपराधी के रूप में घोषित करते हुए उसकी अनुपस्थिति में सुनाई गई है, अतः यह माना जाता है कि सजाको निष्पादित किया जाएगा और उसकी मृत्यु के मामले में यह प्रश्न उठेगा कि सजा के निष्पादन की रीति क्या होगी, तो इस संबंध में पैरा 65 निष्पादन की रीति विनिर्दिष्ट करता है।
विवादास्पद दौरा 66 के विरुद्ध विरोध जताने वाले इस तथ्य को भी नजरअंदाज करते हैं कि यह एक न्यायाधीश की अल्पमत राय है तथा किसी भी तरीके से निर्णय का प्रचालनात्मक भाग नहीं है अतः इसे प्रवर्तित नहीं किया जा सकता है। अनेक लोगों को यह प्रतीत हो सकता है कि यह विवाद पाकिस्तान की सेना और पीटीआई सरकार, दोनों की ओर से समाज के भीतर रोष भड़काने के लिए जान-बूझकर किया गया प्रयास हो, ताकि समग्र निर्णय का वास्तविक आशय ही समाप्त हो गए। बाबर सत्तार का मानना है कि 'सजा पर न्यायाधीश की राय का एक भाग उनके दोषी बताने पर लौटने के निर्णय के लिए उनके तर्कों को खंडित नहीं करता है। इस बात को भली-भांति जानने पर कि पैरा 66 प्रचालित नहीं होगा, न्यायाधीश को न्यायपालिका के विरुद्ध जाने के लिए इसे उपकरण के मद में प्रयोग करना दुर्भावनापूर्ण आशय का प्रतीक है।'
निर्णय का महत्व
ऐतिहासिक दृष्टि से पाकिस्तान की न्यायपालिका देश की सर्वाधिक शक्तिशाली संस्था सेना के पक्ष में खड़ी रही है। इसका 'आवश्यकता के सिद्धांत' के नाम पर सेना द्वारा शासन पर कब्जा जमा लेने को औचित्यपूर्ण ठहराने का प्रामाणिक रिकार्ड रहा है। अयूब खान से लेकर परवेज मुशर्रफ तक, वर्दी वाले लोगों पर न्यायपालिका के उच्चतम पदाधिकारियों द्वारा कभी भी संविधान का अपमान करने और लोकतांत्रिक तरीके से निर्वाचित सरकारों को उखाड़ फेंकने के लिए कोई प्रश्न नहीं किया गया। इसके विपरीत, नागरिक राजनीतिज्ञों को प्रायः उसी न्यायपालिका द्वारा विधि की कड़ी संवीक्षा के अधीन रखा जाता है. यह उल्लेखनीय है कि 2018 में पाकिस्तान मुस्लिम लीग-नवाज (पीएमएल-एन) के नवाज शरीफ, जो तत्कालीन प्रधानमंत्री थे, को उनके संपूर्ण जीवनकाल के लिए किसी भी सार्वजनिक पद को ग्रहण करने के लिए अयोग्य घोषित कर दिया गया था।
हाल के निर्णय को भी इसी संदर्भ में देखा जाना चाहिए। निर्णय का वर्णन करने के लिए 'उल्लेखनीय', 'ऐतिहासिक', 'अभूतपूर्व' से लेकर 'न्याय की हत्या' जैसे शब्दों का प्रयोग किया गया, जो इस बात पर निर्भर करता था कि वर्णनकर्ता स्वयं को किस पाले में सुविधाजनक महसूस करता है। तथापि, इस तथ्य पर कुछ सहमति प्रतीत होती है कि इस निर्णय के दूरगामी परिणाम होंगे, विशेष रूप से नागरिक-सैन्य संबंधों पर और पाकिस्तान में विद्यमान सांस्थानिक असंतुलनों पर। अंग्रेजी दैनिक द डॉन के निवासी संपादक फाहत दुसैन ने चार कारणों का वर्णन किया है जिनकी वजह से यह निर्णय एक ऐतिहासिक निर्णय बन गया है, पहला यह भविष्य में सैन्य विद्रोहों के विरुद्ध एक ठोस विधिक निवारण स्थापित करता है, जिसके फलस्वरूप संवैधानिक लोकतंत्र सुदृढ़ होगा; दूसरे, यह उच्च न्यायपालिका पर आम आदमी के विश्वास का निर्माण करता है; तीसरे, यह राज्य के विभिन्न स्तंभों के बीच किसी प्रकार का सांस्थानिक संतुलन सृजित करता है; तथा अंततः यह कम-से-कम सांकेतिक रूप में तो पाकिस्तान में नागरिक प्रधानता की अवधारणा की पुनःपुष्टि करता है।
निष्कर्ष
घोर राजद्रोह की सुनवाई के मामले में विशेष न्यायालय का निर्णय एक व्यक्ति विशेष, परवेज़ मुशर्रफ के विरुद्ध है, जो दुबई में स्वतःकारित निर्वासन में है और जिसका इस निर्णय को चुनौती देने के लिए पाकिस्तान लौटने की कोई मंशा नहीं है। जिस प्रकार से इस मुद्दे पर सरकार और विधि प्रवर्तन एजेंसियों द्वारा प्रतिक्रिया व्यक्त की गई है, उसमें यह प्रतीत होता है कि पाकिस्तानी कार्यपालिका शाखा उस भगोड़े को वापस लाना और निर्णय को कार्यान्वित करना नहीं चाहती है। इससे यह निर्णय सांकेतिक प्रकृति का बन जाता है। तथापि, इस निर्णय का महत्व इस तथ्य में निहित है कि पाकिस्तान के इतिहास में पहले ऐसा कभी नहीं हुआ कि किसी सेवानिवृत्त सेना प्रमुख ने ऐसी स्थिति का सामना किया हो। इस तथ्य के बावजूद कि पैरा 66 पर विवाद अनावश्यक रूप से अधिक खींचा जा रहा है, घोर रोजद्रोह की सुनवाई में दिया गया निर्णय महत्वपूर्ण बना हुआ है। पाकिस्तान के इतिहास तथा सेना की सुदृढ़ स्थिति को ध्यान में रखते हुए, यह तर्क देना कठिन है कि यह निर्णय सेना के हस्तक्षेप को भविष्य में निवारित कर पाएगा। तथापि, जिस तरीके से न्यायपालिका ने अपना सुदृढ़ पक्ष रखा है, वह कर पाना भी उतना आसान नहीं है।
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*डॉ. आशीष शुक्ला, रिसर्च फेलो, विश्व मामलों की भारतीय परिषद।
अस्वीकरण: व्यक्त किए गए विचार व्यक्तिगत हैं।
डिस्क्लेमर: इस अनुवादित लेख में यदि किसी प्रकार की त्रुटी पाई जाती है तो पाठक अंग्रेजी में लिखे मूल लेख को ही मान्य माने ।
पाद-टिप्पणी/संदर्भ
[1]मोहमद, रुस्तम शाह(2019), “Will Musharraf verdict change the political landscape?,” द डॉन, दिसम्बर 19, https://www.dawn.com/news/1523860/the-descent
2पाकिस्तान सरकार(2012), The Constitution of the Islamic Republic of Pakistan, Islamabad: पाकिस्तान राष्ट्रीय विधानसभा, पृष्ठ 4.
3पूर्वोक्त
4विशेष अदालत(2019), Judgement in Complaint No. 1 of 2013, दिसम्बर 17, 2019, इस्लामाबाद, पृष्ठ 7-14.
5एक्सप्रेस ट्रिब्यून(2013), “Supreme Court to hear petition against Musharraf on Thursday,” मार्च 27, https://tribune.com.pk/story/527221/supreme-court-to-hearing-petition-against-musharraf-on-thursday/
6द डॉन(2016), “Raheel Sharif 'helped me out' in leaving Pakistan: Musharraf,” दिसम्बर 20, https://www.dawn.com/news/1303429
7पूर्वोक्त
8पूर्वोक्त
9असद, मलिक(2019), “Prosecution team in Musharraf treason case fired, court told,” द डॉन, अक्तूबर 25, https://www.dawn.com/news/1512781
10पूर्वोक्त
11विशेष अदालत(2019), Judgement in Complaint No. 1 of 2013, दिसम्बर 17, 2019, इस्लामाबाद, पृष्ठ 65-66.
[1]2पूर्वोक्त, पृष्ठ66
13सरफराज, मेहमल(2019), “Pervez Musharraf sentenced to death for treason,” द हिंदू, दिसम्बर 17, https://www.thehindu.com/news/international/pervez-musharraf-sentenced-to-death-by-pakistan-court-for-high-treason/article30327665.ece
[1]4डेली टाइम्स(2019), “Troubles for the general, दिसम्बर 19, https://dailytimes.com.pk/522597/troubles-for-the-general-daily-times/
[1]5द डॉन(2019), “Musharraf verdict,” दिसम्बर 19, https://www.dawn.com/news/1523149/musharraf-verdict
[1]6द न्यूज (2019), “Musharraf’s death sentence ‘a historic decision’: Bilawal,” दिसम्बर 17, https://www.thenews.com.pk/latest/584779-musharrafs-death-sentence-a-historic-decision
[1]7जियो टीवी(2019), “Bilawal Bhutto calls Musharraf’s death sentence ‘a historic decision,’” दिसम्बर 17, https://www.geo.tv/latest/262438-bilawal-bhutto-calls-musharrafs-death-sentence-a-historic-decision
[1]8आईएसपीआर(2019), “The decision given by special court about General Pervez Musharraf, Retired has been received with lot of pain and anguish by rank and file of Pakistan Armed Forces,” प्रेस विज्ञप्ति संख्या पीआर-206/2019-आईएसपीआर, दिसम्बर 17.
[1]9 द डॉन(2019), “Govt to save ex-ruler in court on appeal: AG,” दिसम्बर 18, https://www.dawn.com/news/1522863/govt-to-save-ex-ruler-in-court-on-appeal-ag
20विशेष अदालत(2019), Judgement in Complaint No. 1 of 2013, दिसम्बर 17, 2019, इस्लामाबाद, पृष्ठ 66.
21द डॉन(2019), “Descent into medievalism,” दिसम्बर 20, https://www.dawn.com/news/1523322/descent-into-medievalism
22रजा, सैयद इरफान(2019), “Army, govt roast judge over grisly rider in Musharraf ruling,” द डॉन, दिसम्बर 20, https://www.dawn.com/news/1523287
23पूर्वोक्त
24पूर्वोक्त
25विशेष अदालत(2019), Judgement in Complaint No. 1 of 2013, दिसम्बर 17, 2019, इस्लामाबाद, पृष्ठ 66-67.
26सत्तार, बाबर(2019), “Rule of law or force?,” द न्यूज, दिसम्बर 21, https://www.thenews.com.pk/print/586241-rule-of-law-or-force
27द डॉन(2019), “Groundbreaking in many ways’: Reactions pour in on momentous verdict in Musharraf treason case,” दिसम्बर 17, https://www.dawn.com/news/1522780/groundbreaking-in-many-ways-reactions-pour-in-on-momentous-verdict-in-musharraf-treason-case, Accessed on?