प्रस्तावना:
अप्रैल 2011 में इथियोपिया के अपने ग्रेट इथियोपियन रेनेसां डैम (जीईआरडी)[i] परियोजना के लॉन्च के ठीक से बाद ही, मिस्र और इथियोपिया के बीच नील नदी के पानी के बंटवारे को लेकर मतभेद सामने आने शुरु हो गए, जिसे इथियोपिया की जीवन रेखा तथा विकास की प्रमाणिकता माना जाता है। मिस्र के लिए चिंता की बात यह है कि ऊपरी लहर वाले इथियोपिया में मिस्र के जल प्रवाह को नियंत्रित करना होगा। इसके अलावा, अतिरिक्त चिंता यह है कि जीईआरडी के तेजी से भरने से मिस्र न केवल अपने पारंपरिक पानी से हिस्से से वंचित हो सकता है, बल्कि इससे नील नदी पर उसके ऐतिहासिक दावे भी खत्म हो सकते हैं। सामान्य तौर पर, मिस्र बांध को भविष्य के पानी की कमी और उसके भोजन तथा ऊर्जा सुरक्षा हेतु एक प्रमुख संभावित वजह मानता है। इथियोपिया के लिए, यह बांध उसके विकास के एजेंडे में एक निर्णायक क्षण को दर्शाता है और मिस्र के कट्टर रणनीतिक तथा राजनयिक दावे के खिलाफ एक जवाबी प्रधानता वाले साधन के रूप में भी है।
फलस्वरूप, यह मुद्दा दोनों के संबंधों में खटास के रुप में फरवरी, 2019 में नोबेल पुरस्कार विजेता इथियोपिया के प्रधानमंत्री अबी अहमद अली के एक साक्षात्कार में बयान में दिखाई देता है जब उन्होंने कहा था कि, "कोई भी इथियोपिया को नील नदी पर बांध बनाने से रोक नहीं सकता और अगर इसके लिए युद्ध भी करना पड़े, तो हम पूरी तरह से तैयार हैं।” [ii] दूसरी ओर, मिस्र ने अतीत में हुए हवाई हमले को लेकर इथियोपिया को धमकी दी[iii] और इसके राष्ट्रपति, अब्देल फतह अल-सीसी ने 2019 में यूएनजीए के 74वें सत्र में कहा कि 'नील का जल जीवन तथा अस्तित्व का मुद्दा है’।[iv] इसको लेकर सूडान की अलग चिताएं है, जो इस मुद्दे में तीसरा प्रमुख खिलाड़ी है।
इथियोपिया, सूडान और मिस्र के बीच 2015 में संपन्न हुए रेनेसां डैम पर सिद्धांतों की घोषणा और द्विपक्षीय एवं बहुपक्षीय वार्ता के एक दशक के बावजूद, और हाल ही में अमेरिका और विश्व बैंक की नेतृत्व वाली मध्यस्थता वार्ता से भी मिस्र तथा इथियोपिया के बीच तनाव कम नहीं हो सका है और इस विवाद का कोई आसान समाधान नहीं है।
वर्तमान विवाद की शुरुआत:
नील नदी दुनिया की सबसे लंबी अंतरराष्ट्रीय नदी प्रणाली है[v] और यह तंजानिया, युगांडा, रवांडा, बुरुंडी, द डेमोक्रेटिक रिपब्लिक ऑफ कांगो (डीआरसी), केन्या, इथियोपिया, इरीट्रिया, दक्षिण सूडान, सूडान और मिस्र से होते हुए 67,000 किलोमीटर (किमी) बहती है और इसका अपवाह जलग्रहण क्षेत्र 3.3 मिलियन वर्ग किमी का है। नील नदी का निर्माण दो प्राथमिक आपूर्ति स्रोतों द्वारा होता है: ब्लू नील और व्हाइट नील जिनका क्रमशः नील नदी के कुल पानी में 85% और 15% हिस्सा है।[vi] इथियोपिया मिस्र को नील नदी के पानी के वार्षिक प्रवाह का लगभग 86% हिस्सा प्रदान करता है।[vii] 96% मिस्र के पेयजल की आपूर्ति नील द्वारा होती है।[viii]
मौजूदा तनाव कोई नई बात नहीं है और 20वीं सदी की शुरुआत में इथियोपिया ने 1902 में एंग्लो-इथियोपियाई नील संधि का इस आधार पर पालन करने से इनकार कर दिया था कि, इसके अंग्रेजी तथा अम्हारिक अनुवाद अलग-अलग थे, जिसपर सूडान और मिस्र की ओर से ब्रिटेन ने हस्ताक्षर किए थे।[ix] इस संधि में परिकल्पना की गई थी कि नील नदी पर कोई भी ऐसा निर्माण नहीं किया जाएगा, जिससे पानी का बहाव नीचे के राष्ट्रों की ओर प्रवाहित होता हो।[x] 1929 में, मिस्र तथा ब्रिटेन (सूडान और अन्य विपक्षी राष्ट्रों युगांडा, केन्या तथा तंजानिया की ओर से) के बीच एक अधिक व्यापक संधि पर हस्ताक्षर किए गए थे। यह संधि विशिष्ट थी क्योंकि इसमें पहली बार निर्धारित किया गया था कि मिस्र (48 बिलियन क्यूबिक मीटर) (बीसीएम) और सूडान (4 बीसीएम) प्रतिवर्ष कितना पानी प्राप्त करेंगे।[xi] इथियोपिया ने इस संधि को स्वीकार करने से इनकार कर दिया क्योंकि वह इस वार्ता में शामिल नहीं था। 1929 की संधि में मिस्र का पक्ष लिया गया था क्योंकि पानी की बहुतायत से मिस्र को कपास उगाने में मदद मिलती थी, जिसकी ब्रिटेन को आवश्यकता थी।
इसके बाद, ब्रिटिश सरकार की देखरेख में मिस्र और स्वतंत्र सूडान के बीच एक व्यापक संधि पर हस्ताक्षर किए गए। यह 1959 की संधि थी जिसे आमतौर पर नील नदी के समझौते[xii] के रूप में जाना जाता था, जिसपर मिस्र आज भी जोर देता है और भविष्य की सभी वार्ताओं का सैद्धांतिक आधार है। इस संधि के तहत, मिस्र 55.5 बीसीएम और सूडान 18.5 बीसीएम सालाना पानी के हकदार बन गए।[xiii]
इस संधि ने तय किया कि अपस्ट्रीम तटवर्ती राष्ट्र डाउनस्ट्रीम राष्ट्र की सहमति के बिना कोई भी निर्माण प्रोजेक्ट शुरु नहीं कर सकते हैं। इसने मिस्र को वीटो का अधिकार दिया। इस संधि को अपस्ट्रीम राष्ट्रों की ओर से समर्थन नहीं मिला और इथियोपिया ने इसे पूर्व में गैर-प्रतिनिधित्व के समान कारणों का हवाला देते हुए खारिज कर दिया।[xiv] 1959 की संधि ने इथियोपिया के नेतृत्व में अन्य तटवर्ती राष्ट्रों (मिस्र के अलावा) के बीच नाराजगी और अविश्वास पैदा किया। 1959 की संधि को दूसरी चुनौती सूडान से मिली जब उसने पानी के वितरण के तंत्र पर अपनी नाराजगी व्यक्त की।[xv]
विगत संधियों के इस विरोध के कारण, पानी के वितरण को हल करने हेतु 1999 में नील बेसिन पहल (एनबीआई) के रूप में ज्ञात एक नई पहल शुरु की गई थी। यह फरवरी 1999 में नौ तटवर्ती राष्ट्रों द्वारा जल संसाधनों के समान उपयोग हेतु हस्ताक्षरित एक अंतर-सरकारी तंत्र था। नई पहल की शुरुआत का मुख्य उद्देश्य यह था कि बेसिन व्यापक दृष्टिकोण से पानी के बंटवारे की तुलना में अधिक आम सहमति उत्पन्न होगी। इस पहल के बाद 2010 में पानी के समान उपयोग हेतु 'नील रिवर बेसिन कोऑपरेटिव फ्रेमवर्क एग्रीमेंट’ जिसे आमतौर पर सीएफए के रूप में जाना जाता है, शुरु किया गया। हालांकि इस बार मिस्र तथा सूडान ने इसका विरोध किया।
मिस्र ने इसलिए आपत्ति जताई क्योंकि संधि में नील नदी पर उसके ऐतिहासिक अधिकारों को चिन्हित नहीं किया गया, बल्कि सभी के द्वारा पानी के समान उपयोग पर जोर दिया गया। 2010 के समझौते को पूरी तरह से नहीं अपनाया गया है तथा मिस्र के प्रतिरोध को अन्य कारणों के साथ-साथ इथियोपियाई भयादोहन की अपनी आशंकाओं से जोड़ा गया।[xvi] दूसरी ओर, इथियोपिया ने नई संधि को नई विश्व व्यवस्था की बदलती वास्तविकताओं के प्रतिबिंब के रूप में माना। इथियोपिया न केवल औपनिवेशिक और उपनिवेशवादी सहमति द्वारा स्थापित यथास्थिति को अस्वीकार करता है बल्कि 'देश की पूर्ण संप्रभुता’ के सिद्धांत का पालन करता है। 2010 के इस समझौते ने मतभेदों को और मजबूत किया और अपस्ट्रीम तटवर्ती राष्ट्रों को उभरने में मदद कि, जिसमें तंजानिया, युगांडा, रवांडा, बुरुंडी, डेमोक्रेटिक रिपब्लिक ऑफ कांगो (डीआरसी), केन्या, इथियोपिया, इरीट्रिया प्रमुख शक्ति खंड के रूप में शामिल हैं।[xvii] अपस्ट्रीम तटवर्ती राष्ट्र इथियोपिया के समर्थक रहे हैं और इथियोपिया ने डाउनस्ट्रीम राष्ट्रों के समर्थन का इंतजार किए बिना 2010 में सीएफए का समर्थन करने हेतु अपस्ट्रीम राष्ट्रों को सफलतापूर्वक एकजुट किया था।[xviii] नील के पानी के असमान बंटवारें या उपयोग के मुद्दे पर अपस्ट्रीम राष्ट्रों ने इथियोपिया की चिंता को साझा किया।
इथियोपिया और मिस्र आपस में क्यों भिड़े हुए हैं:
इस क्षेत्र में मौजूदा असमानता की स्थिति असंतुलित शक्ति समीकरण के बीते दशकों के जैसी ही है, जिसमें मिस्र के राजनीतिक तथा रणनीतिक आधिपत्य अन्य तटवर्ती राष्ट्रों की नाजुकता से मेल खाते थे। जीईआरडी परियोजना यथास्थिति को बदलने तथा नील नदी के बेसिन में मिस्र के सदियों पुराने प्रभुत्व को चुनौती देने वाली पहली पहल थी। जीईआरडी को मिस्र के लोग अपने अस्तित्व के बुनियादी साधनों के लिए खतरा मानते हैं। मिस्र ने हमेशा इथियोपिया में भरपूर बारिश तथा अन्य नदियों के आधार पर 85% के अपने हिस्से को सही ठहराया है, जबकि मिस्र विशेष रूप से नील नदी पर निर्भर करता है। मिस्र के लिए, जीईआरडी 1902, 1929 और 1959 की संधियों के उल्लंघन जैसा ही है।[xix]
नील नदी मिस्र की जीवन रेखा है और मिस्र को डर है कि बांध की वजह से पेयजल आपूर्ति, कृषि, उद्योग इत्यादि को प्रभावित करने वाले पानी के हिस्से में पर्याप्त कमी हो जाएगी। इस परिप्रेक्ष्य में, बांध निम्न प्रवाह के दौरान जल प्रदूषण में गिरावट का कारण बनेगा, नेविगेशन को प्रभावित करेगा, पर्यटन को प्रभावित करेगा, मत्स्यपालन को नुकसान पहुंचाएगा, और इसके कई अन्य प्रभाव भी होंगे।[xx]
मिस्र हमेशा इथियोपिया के पानी के अपने जलाशय के निर्माण के अधिकार को खारिज करता रहा है। 73 बीसीएम के जीईआरडी-निर्मित जलाशय को भरने में लगने वाला समय तथा बांध की सुरक्षा मिस्र के लिए प्रमुख चुनौतियां हैं। ऐसी राय है कि बांध, जिसके 2022 तक पूरा होने की संभावना है, बिना किसी पर्याप्त वैज्ञानिक या तकनीकी अध्ययन के बनाया गया है, हालांकि जलाशय का निर्माण पूरा हो चुका है और इसकी भरने की प्रक्रिया शुरू हो गई है जैसा कि मीडिया रिपोर्ट्स में बताया गया है। अन्य लोगों का मानना है कि यदि बांध को भरने की समय अवधि बढ़ जाती है और निर्माण चरण भी बढ़ जाता है, तो डाउनस्ट्रीम राष्ट्रों को इससे कम नुकसान होगा।[xxi] इथियोपिया चाहता है कि बांध छह साल में भरा जाए, जबकि मिस्र 12-21 साल की एक क्रमिक प्रक्रिया के पक्ष में है क्योंकि बांध के जल्दी भरने से सूडान और मिस्र तक ब्लू नदी का प्रवाह पूरी तरह रुक सकता या 54 बीसीएम पानी की कमी हो सकती है।[xxii] अल जज़ीरा द्वारा जारी एक अनुमान के मुताबिक, अगर जीईआरडी दस साल में भरता है, तो मिस्र को मिलने वाले वार्षिक जल प्रवाह में 14% और उसके कृषि क्षेत्रों का 18%, यदि सात साल में भरे तो पानी और कृषि का क्रमशः 22% और 30%, और अगर पांच साल में भरे तो क्रमशः 36% और 50% नुकसान होने की संभावना है।[xxiii] एक अन्य रिपोर्ट में कहा गया है कि 1959 के समझौते पर हस्ताक्षर करने के बाद मिस्र को जितना पानी की मात्रा का नुकसान हुआ था, उससे तीन गुना नुकसान होगा[xxiv] और वाष्पीकरण ह्रास 5.9% बढ़ जाएगा, जिससे बढ़ते लवणता के कारण नील नदी की जल गुणवत्ता तथा मात्रा दोनों प्रभावित होगी। बांध से मिस्र को सालाना 15-20 बीसीएम पानी कम मिलेगा और यह एक ऐसे देश के लिए बहुत अधिक है, जो पहले से ही खाद्य संकट तथा अनियंत्रित जनसंख्या वृद्धि से पीड़ित है।[xxv] एक रिपोर्ट में अनुमान लगाया गया है कि इस बांध के कारण एक मिलियन लोगों की नौकरियां जा सकती हैं और सालाना 1.8 बिलियन अमेरिकी डॉलर का वित्तीय नुकसान हो सकता है।[xxvi]
मिस्र की प्रगति का प्रतीक और पानी, भोजन तथा बिजली का एक बड़ा प्रदाता अस्वान हाई डैम इसका एक अन्य शिकार हो सकता है। जीईआरडी के चालू होने के बाद इसकी पानी की आपूर्ति कम हो जाएगी और इससे पानी की आपूर्ति, औद्योगिक और सिंचाई पंप स्टेशनों की दक्षता, नेविगेशन और जलविद्युत स्टेशन प्रभावित होंगे और विशेष रूप से अस्वान बांध में बिजली उत्पादन क्षमता में गिरावट आएगी।[xxvii]
दूसरी ओर, अगर जीईआरडी के संदर्भ में मिस्र के विचारों को उसके आर्थिक तथा रणनीतिक हितों से तय किया जाता है, तो इथियोपिया के बांध के विचार इसकी नई आर्थिक महत्वाकांक्षाओं और नई राजनीतिक वास्तविकताओं की धारणाओं से प्रेरित होते हैं। इथियोपिया नाइजीरिया के बाद अफ्रीका में दूसरा सबसे अधिक आबादी वाला राष्ट्र है और महाद्वीप में सबसे अधिक विकास दर हासिल करने वाले राष्ट्रों में से एक होने का दावा करता है।[xxviii] इथियोपिया, जिसे अक्सर 'क्षेत्र के बड़े अज्ञात के रूप में संदर्भित किया जाता है'[xxix], ने 1960 में बांध मार्ग की संकल्पना की थी, लेकिन कई प्रतिकूल परिस्थितियों के कारण, यह परियोजना को स्थगित करने हेतु मजबूर हो गया था।[xxx]
इथियोपिया जल ऊर्जा का केंद्र होने के बावजूद बिजली की कमी से पीड़ित है और काफी समय पहले तक इसकी 65% आबादी तक बिजली की पहुंच नहीं थी। जीईआरडी से, इथियोपिया अपने आर्थिक प्रदर्शन को बढ़ाने तथा अपने लोगों के जीवन स्तर में सुधार करने की उम्मीद करता है। इससे इथियोपिया अफ्रीका महाद्वीप का बिजली का सबसे बड़ा निर्यातक बन जाएगा और इससे सालाना 1 बिलियन अमेरिकी डॉलर अर्जित करेगा।[xxxi] इथियोपियाई मुख्य ध्यान महाद्वीप का पावर हब बनना है।
इथियोपियाई सरकार अफ्रीकी महाद्वीप में अपनी रणनीतिक महत्वाकांक्षाओं को छिपाती नहीं है और दावा करती है कि जीईआरडी एक राष्ट्रीय तथा संप्रभुता परियोजना भी है। बांध को बहुत अधिक समर्थन प्राप्त है और कथित तौर पर सरकारी कर्मचारियों ने बांध के लिए अपने एक महीने का वेतन दान किया है। सबसे अधिक दान इथियोपियाई प्रवासी समुदाय से आए हैं।[xxxii] यह बांध मिस्र की पारंपरिक छवि के रूप में क्षेत्रीय वाटर पावरहाउस और नील नदी का संरक्षक होने का प्रतिनिधित्व करता है।[xxxiii]
बांध के निर्माण से मिस्र और इथियोपिया के बीच मौखिक रुप से कई झड़पें हुईं। फरवरी 2018 में, इथियोपिया ने मिस्र पर इरीट्रिया में विद्रोही बलों को बांध की तोड़ने और सूडान को उकसाने हेतु इथियोपिया की सीमा पर अपनी सेना भेजने का आरोप लगाया। जुलाई 2018 में एक जीईआरडी इंजीनियर की हत्या में भी मिस्र की भूमिका को लेकर संदेह था। 2013 में एक कैबिनेट बैठक में, राष्ट्रपति मोर्सी ने धमकी दी कि 2013 में इथियोपिया के सीएफए की पुष्टि के बाद युद्ध नहीं होने को लेकर अब सभी विकल्प खुले हुए हैं।[xxxiv]
तीसरा देश - सूडान:
सूडान का बांध के प्रति कुछ हद तक अस्पष्ट रुख रहा है और खुद के इथियोपिया तथा मिस्र के साथ अपने संबंधों से निर्धारित होता है, जो स्थिर नहीं रहे हैं। इस मामले पर मिस्र और इथियोपिया के बीच सूडान की प्रतिक्रियाओं और स्थिति ने इसे अस्थिर दर्शाया है। उदाहरण के लिए, 2010 में, सूडान ने सीएफए का विरोध किया गया और मिस्र के साथ पक्षपात किया गया।
आज सूडान का मानना है कि हारने की तुलना में बांध के लाभार्थी होना अधिक उचित है। मिस्र के विपरीत सूडान, नील नदी पर कम निर्भर होने के कारण इससे कम पीड़ित होगा और इसे बांध से पानी के एक विनियमित तथा स्थिर प्रवाह की सुविधा मिलेगी जो इसके नेविगेशन, सिंचाई और जल विद्युत उत्पादन में सुधार करेगा। ये कारक हाल के इतिहास में पहली बार सूडान की इथियोपिया के पक्ष लेने की वजह को दर्शा सकते हैं।[xxxv] इथियोपिया में सूडान की निकटता हाल ही में सूडान तथा दक्षिण सूडान के नए स्वतंत्र राज्य के बीच इथियोपिया के नेतृत्व वाली मध्यस्थता में देखी गई थी, जब इथियोपिया ने संयुक्त राष्ट्र के आदेश के तहत दारफुर में 5,000 शांति सैनिक, और साथ ही सूडान-दक्षिण सूडान की सीमा में 4,300 शांति सैनिक प्रदान किए थे।[xxxvi]
हाल के महीनों में सूडान ने जीईआरडी पर होने वाली त्रिपक्षीय वार्ताओं में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है और विशेष रूप से उमर अल-बशीर को हटाने के बाद से परियोजना को आधिकारिक समर्थन प्रदान किया है। इसने लगातार जीईआरडी के डाउनस्ट्रीम लाभ पर प्रकाश डाला है और यह किसी पक्ष के बजाय मिस्र और इथियोपिया के बीच बातचीत में इथियोपिया के भागीदार के रूप में उभरा है।[xxxvii] सूडान की प्राथमिक चिंता यह है कि एक नए बने बांध में पानी छोड़ने से सूडान के जल स्तर पर प्रतिकूल प्रभाव न पड़े। हाल के महीनों में, सूडान ने इस मामले पर अपने स्वयं के जलमार्ग को प्रस्तुत करने की एक झलक दी है जिसमें उन परिस्थितियों में घसीटा जा रहा है जहां मिस्र और इथियोपिया के बीच किसी एक पक्ष को चुनने हेतु मजबूर किया जा रहा है। उमर अल-बशीर का निर्वासन जिसे मिस्र द्वारा युद्ध अपराधी घोषित किया गया था और जो मिस्र में राष्ट्रपति अल-सीसी की विरोधी सेनाओं का करीबी सहयोगी था, उसने भी सूडान के बांध के प्रति अपनाए गए रुख पर एक अपनी छाप छोड़ी है।
स्थायी समाधान की तलाशः
स्थायी समाधान की तलाश में अतीत में कई देशों तथा सक्रियकों को शामिल किया गया है लेकिन कोई ठोस परिणाम नहीं निकल सका। प्रत्येक हितधारक का विवाद के प्रति अपना दृष्टिकोण है और सभी पक्ष विभिन्न उद्देश्यों तथा विविध दृष्टिकोणों का अनुसरण कर रहे हैं। इथियोपिया इसे अफ्रीका के संबंध में देखना पसंद करता है और प्रधानमंत्री अबी अहमद अली हमेशा अफ्रीकी संकट के लिए अफ्रीकी समाधान हेतु प्रेरित रहे हैं। हाल के एक ट्वीट में, उन्होंने कहा कि अफ्रीका संघ, "पैन-अफ्रीकी भावना के साथ हमारा महाद्वीपीय संगठन इस मुद्दे (बांध) पर बातचीत करने हेतु तैयार है जो अफ्रीका के लिए काफी महत्वपूर्ण हैं"।[xxxviii] सूडान भी, अफ्रीकी नेतृत्व वाले समाधान के पक्ष में है और इसके प्रधानमंत्री हमदोक ने हमेशा अफ्रीकी संघ के हस्तक्षेप की मांग की है।[xxxix] मिस्र इस संकट को अरब के मुद्दे के रूप में दर्शाना चाहता है और अरब देशों के समर्थन को जीतने में सक्षम रहा है। अरब लीग ने अपने अंतिम सत्र में इथियोपिया को मिस्र के साथ एक समझौते पर हस्ताक्षर करने हेतु कहा जिसमें मिस्र की भावनाओं का भी ख्याल रखा गया है। अरब लीग के प्रस्ताव ने मिस्र की जल सुरक्षा को अरब जगत के बड़े सुरक्षा हितों से भी जोड़ा है।[xl]
सूडान के पूर्व राष्ट्रपति, उमर अल-बशीर, दोनों में से किसी का भी विरोध करने में दिलचस्पी नहीं रखते: उन्होंने सीएफए पर मिस्र का पक्ष लिया, लेकिन दूसरी तरफ कभी भी जीईआरडी का विरोध भी व्यक्त नहीं किया। पहली सफलता 2015 में मिली जब तीनों दलों ने एक घोषणा पत्र पर हस्ताक्षर किए थे, जिसे सिद्धांतों की घोषणा के रूप में जाना जाता था।[xli] कई लोगों ने यह कल्पना की थी कि पहली बार मिस्र ने स्थायी विकास हेतु नील नदी के पानी के समान उपयोग के लिए सभी तटवर्ती राष्ट्रों के अधिकारों को स्वीकार किया था। लेकिन मिस्र के तत्कालीन विदेश मंत्री ने यह स्पष्ट कर दिया था कि, "यह ऐतिहासिक समझौते और इन समझौतों में आवंटित जल हिस्सेदारी को प्रभावित नहीं करेगा"।[xlii] 2015 की घोषणा मुख्य रूप से सहयोग, विकास, स्थिरता, प्रत्येक पक्ष की कई चिंताओं, परियोजना की तकनीकी तथा वैधता, बांध सुरक्षा और सूचना के आदान-प्रदान पर केंद्रित थी।[xliii]
लेकिन घोषणा पर हस्ताक्षर के कुछ ही समय बाद, जीईआरडी पर तकनीकी समिति की रिपोर्ट पर किसी भी आम सहमति बनाने में विफलता के कारण कक्षों के बीच कई मतभेद सामने आ गए। सितंबर 2019 में मिस्र तथा इथियोपिया दोनों द्वारा संयुक्त राष्ट्र संघ में जीईआरडी मुद्दे को उठाने के कारण जो प्रमुख समस्याएं थीं, वे भी सामने आईं। मिस्र ने यूएनएससी को त्रिपक्षीय विवाद को सुलझाने में मदद करने हेतु कहा और इथियोपिया के असहयोगी व्यवहार की शिकायत की। लेकिन अब तक, यूएनएससी ने मिस्र के इस आह्वान का जवाब नहीं दिया है। इथियोपिया कई बार इन हस्तक्षेपों को खारिज कर चुका है और हमेशा एयू की तरह किसी क्षेत्रीय निकाय की मध्यस्थता को तरजीह देता है।
पहली बार नवंबर 2019 में, मिस्र ने इस मुद्दे पर अमेरिकी विदेश विभाग के हस्तक्षेप का आह्वान किया और उसके तुरंत बाद तीन देशों के जल मंत्रियों ने वाशिंगटन में कई बार मुलाकात की। विवाद में इससे भी कोई सुधार नहीं हो सका। विश्व बैंक और यूएस ट्रेजरी भी इस बातचीत का हिस्सा थे[xliv] क्योंकि दोनों इथियोपिया के आर्थिक सुधार में सहायक रहा हैं और विश्व बैंक को सिंधु जल संधि जैसे जल-साझाकरण समझौतों का अनुभव है। फरवरी 2020 में इथियोपिया अमेरिका पर मिस्र का पक्ष लेने का आरोप लगाते हुए अमेरिकी नेतृत्व वाली वार्ता से पीछे हट गया।[xlv] यह आरोप अमेरिकी ट्रेजरी विभाग के दावे के साथ इथियोपिया के बिना वाशिंगटन में एक समझौते पर हस्ताक्षर किए जाने के बाद लगाता गया था कि समझौते में सभी मुद्दों को समान तथा संतुलित तरीके से संबोधित किया है।
हाल के महीनों में इथियोपिया और सूडान ने इस मुद्दे को अफ्रीकी महाद्वीप का आंतरिक मुद्दा बनाने हेतु प्रयास किया। जुलाई 2020 में अफ्रीकी संघ द्वारा इस विषय पर आयोजित हुआ पहली बैठक में यह स्पष्ट हो गया। दक्षिण अफ्रीका के राष्ट्रपति सिरिल रामफोसा ने पानी तथा खाद्य सुरक्षा हेतु मिस्र की चिंता पर सहमति व्यक्त की, लेकिन बांध के प्रति भी सहानुभूति दिखाई और डाउनस्ट्रीम तटवर्ती राष्ट्रों के बीच पानी के अधिक लाभदायक वितरण का आह्वान किया। सभी पक्षों ने स्वीकार किया कि यह एक क्षेत्रीय मुद्दा है और इसके लिए क्षेत्रीय स्तर पर समाधान की आवश्यकता है। एयू के नेतृत्व वाली वार्ता के माध्यम से, इथियोपिया ने इस मामले को संयुक्त राष्ट्र, अमेरिका या अरब क्षेत्र से बाहर लाने का प्रयास किया क्योंकि वह इस मुद्दे के अंतर्राष्ट्रीयकरण को मिस्र की तुलना में अपनी कमजोर स्थिति में नहीं करना चाहता है।[xlvi] इथियोपिया ने एक नए ढांचे का निर्माण करके और मिस्र के पारंपरिक आधिपत्य को बेअसर करने हेतु अपस्ट्रीम राष्ट्रों के साथ गठबंधन बनाकर पिछले समझौतों को रद्द करने के दोहरे दृष्टिकोण को अपनाने का प्रयास किया।[xlvii] इसके अलावा, इथियोपिया ने हमेशा मिस्र हेतु पानी का कोटा तय करने में कोई प्रतिबद्धता व्यक्त नहीं की है जो बांध के भरने की अवधि से परे है। अतीत और वर्तमान सभी वार्ताओं में मिस्र का एकमात्र उद्देश्य पानी के अपने हिस्से की इथियोपिया से बाध्यकारी प्रतिबद्धता की मांग करना है। मिस्र समझौते में स्थायित्व चाहता है लेकिन इथियोपिया समय-समय पर इसकी समीक्षा करने के पक्ष में है। इन गतिरोधों के बीच, ऐसी खबरें हैं कि इथियोपिया ने इस दावे के साथ जलाशय को भरना शुरू कर दिया है कि यह प्राकृतिक निर्माण प्रक्रिया का हिस्सा है।[xlviii] भरने की प्रक्रिया इथियोपिया, मिस्र और सूडान के बीच त्रिपक्षीय वार्ता के एक दिन बाद 14 जुलाई 2020 को शुरू हुई, जिसमें कोई समाधान नहीं निकला था। यहां यह ध्यान देना जरुरी है कि इथियोपिया के विदेश मंत्री ने पिछले मई में ही घोषणा की थी कि वह आगामी वर्षा के मौसम में जलाशय के प्रारंभिक भराव का शुभारंभ करेंगे।[xlix]
निष्कर्ष:
मिस्र और इथियोपिया के बीच नील नदी के पानी के बीच की वर्तमान स्थिति एक औपनिवेशिक विरासत का हिस्सा है। पिछले सभी समझौते इसलिए विफल हो गए क्योंकि मिस्र ऐतिहासिक दृष्टिकोण के माध्यम से इसका समाधान चाहता है, जबकि इथियोपिया नई वास्तविकताओं के आधार पर समाधान चाहता है। कोई भी मिस्र के बांध के भय की वैधता से इनकार नहीं कर सकता है, लेकिन इथियोपिया का यह दावा कि 'बांध उनके विकास की कुंजी है', इसे भी नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है।
मुद्दे की जटिलताओं तथा नील पर इथियोपिया और मिस्र दोनों की निर्भरता को देखते हुए, यह महत्वपूर्ण है कि सभी पक्ष संकट के लिए सामूहिक और समावेशी दृष्टिकोण अपनाने का प्रयास करें। इन युद्धरत दलों को मतभेदों को और गहरा करने से बचना चाहिए और एक सौहार्दपूर्ण समझौते की दिशा में काम करना चाहिए। सभी का अंतिम उद्देश्य नील नदी बेसिन को साझा करने वाले सभी राष्ट्रों के लिए एक स्वीकार्य समाधान तलाशना होना चाहिए। इसके अलावा, वार्ता की भावना बड़े राजनीतिक और आर्थिक सहयोग तथा उन सभी की परस्पर-निर्भरता होनी चाहिए, जिनकी नील नदी के बेसिन में हिस्सेदारी है।
अफ्रीकी संघ के तत्वावधान और यूरोपीय संघ तथा संयुक्त राष्ट्र के पर्यवेक्षकों के तहत बातचीत अभी भी चल रही है। अन्य हितधारकों की सहमति के बिना बांध को भरने हेतु इथियोपिया की ज़िद इसमें प्रमुख बाधा है। हालाँकि, एक-दूसरे के दावों को पूरी तरह से अस्वीकार करने से लेकर एक-दूसरे की चिंताओं का ध्यान रखने तक चीजें पहले से थोड़ी बदली हैं, जो आशा की एक किरण है। कहने की आवश्यकता नहीं है, अगर वास्तव में कोई समझौता होता है, तो यह भविष्य के सीमा-पार जल विवादों के लिए एक अच्छी मिसाल पेश करेगा।
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* डॉ. फज्जुर रहमान सिद्दीकी विश्व मामलों की भारतीय परिषद में शोधकर्ता हैं।
व्यक्त विचार व्यक्तिगत हैं
अंत टिप्पण
[i] It is the largest hydropower plant in the African continent, costing around US $ 4.7 billion, and being built by Italian company , Salini Imperglio, covers an area of 1700 KM2 which is bigger than Greater London
[ii] Ethiopia’s Abiy Ahmed Issues Warning over Renaissance Dam, Al Jazeera, English, October 22, 2019, Accessed https://bit.ly/300sq3l July 15, 2020
[iii]Cam McGrath, Nile River Dam Threatens War Between Egypt and Ethiopia , Common Dream, March 22, 2014 Accessed https://rb.gy/ru9snxAugust 10 , 2020
[iv]ShimelisDessue, The Battle for the Nile with the Egypt for Ethiopia ‘s Grand Renaissance Dam has just begun, Quartz Africa, February26, 2019, Accessed https://bit.ly/3hAx0eh July 10, 2020
[v] Ashok Swain, Ethiopia, Sudan, and Egypt: The Nile River Dispute, The Journal of Modern African Studies, Vol. 35, no.4 (Dec 1997) pp. 675-694
[vi]GhadaSuliman, HodaSausa and Sherif El Sayed, Assessment of Great Ethiopian Renaissance Dam Impact Using Decision Support System, Research Gate, August, 2019 Accessed https://bit.ly/30OmDNq July 9 2020
[vii]ArsanoYacob, Ethiopia and Nile Dilemma of national and regional hydro politics: Doctoral Thesis , 2007, ETH Zurich, Accessed https://bit.ly/3jIPV8A July 15 2020
[viii]ElyaanyWalaay Y. El-Nashar and Ahed H. Managing risk of GERD on Egypt, Ain Shams Engineering Journal (2018) 2383-88, Accessed https://bit.ly/39qKpTy July 23, 2020
[ix]Hala Nasr and Andres Neef, Ethiopian challenge to Egyptian hegemony in the Nile River Basin: The case of Grand Ethiopian Renaissance Dam, Geopolitics, Vol. 21, 2016, No. 4
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